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- पदमचंद गांधी
प्रकृति और मानव जीवन वर्तमान संक्रमण के ऐतिहासिक पलों में भारतीय सम्यता जीवन मूल्यों के गम्भीर संकट से होकर गुजर रही है। एक ओर जहां इसका चिरस्थापित ढ़ाचा चरमरा रहा है, तो दूसरी ओर इसके उभार का आशा भरा स्वरूप भी सामने दिख रहा है। जीवन मूल्य जीवन की समझ और जीवनशैली के आधार पर तय होते हैं। गुरु भगवन्तों ने इसके लिए दो मार्ग-श्रेय और प्रेम बताये है। एक मार्ग अहंकार, शोषण एवं स्वार्थ पर केन्िद्रत संसारिक भोग एवं अपने सुख या लाभ का मार्ग है। ऐसी प्रवृति के कारण मनुष्य ने प्रकृति को भी नहीं छोड़ा है। जिस प्रकृति ने मनुष्य को हवा, पानी, वनस्पति, वन सम्पदा, फल-फूल खनिज, प्रकाष, शुद्ध वातावरण, निःशुल्क उपहार के रूप में दिए हैं, वही मनुष्य अतिलालसा, लाभ एवं शौक, मौज के लिए इन्हीं पर क्रूरता एवं निर्दयता से छेदन, भेदन, खोदन कार्य आदि से अरबों रुपयों का व्यापार कर अच्छी कीमत अर्जित कर रहा है, भले ही इनके बदले सामान्य जन-जीवन दूभर भी क्यों न हो जाये। दूसरा मार्ग महापुरुषोंने यतना, अहिंसा, संयम, सेवा, त्याग, करुणा से भरा परमार्थिक जीवन एवं आत्मकल्याण का मार्ग जिसके द्वारा अहिंसा करुणा एवं यतना द्वारा प्रकृति पर किए जाने वाले प्रहारों, आघातों एवं नरसंहार को रोका जा सके।
मनुष्य जीवन की श्रेष्ठतम परिभाषा है तो वह है, सफलता, सार्थकता एवं सन्तुष्टि। तीनों मिलकर जीवन का निर्माण करते है। मनुष्य के श्रेष्ठ एवं मूल्यवान जीवन का आधार उसके उच्च आदर्शयुक्त जीवन मूल्य है। इनके क्षीण होते ही मनुष्य अपने जीवन की चमक को खो बैठता है तथा निर्दयी बनकर कमजोर का शोषण तथा प्रकृति का दोहन करता है।
जीवन यदि प्रकृति को सिंचित एवं पोषित करता है तो प्रकृति भी जीवन को अभिसिंचित एवं पोषित करती है। जीवन और प्रकृति के बीच का यह सम्बन्ध तब तक अटूट अक्षुण एवं अखण्ड बना रहता है, जब तक प्रकृति भी पोषित होती है इससे जीवन भी सुरक्षित, संरक्षित एवं विकसित होता है। इस सम्बन्ध मंे जहां भी व्यतिक्रम पैदा होता है, वही सम्बन्धों की डोर टूटने बिखरने लगती है और प्रकृति विक्षुब्ध हो जाती है, जिससे जीवन संकट में पड़ जाता है। प्रकृति की कोख से ही जीवन के सभी रूप अंकुरित होते हैं, जैसे पादप, वनस्पति, जीव-जन्तु एवं प्राणियों के रूप में प्रियंच पशु-पक्षी एवं मनुष्य जाति। प्रकृति ही जीवन दात्री मां होती है। प्रकृति से ही जीवन के विविध आयाम प्रस्फुटित हुए है।
प्रकृति ही मनुष्य के विकास का साधन है। यह कुपित हो जाये तो विनाश को रोका नहीं जा सकता। आज की स्थिति कुछ ऐसी ही है। प्रकृति से विलग-विमुख होने पर जीवन में घनघोर संकट छाने लगता है। जीवन में उजाला एवं प्रकाश की जगह आपदाओं एवं विपदाओं के बादल उमड़-घुमड़ने लगते हैं। जीवन में हाहाकार मच जाता है। प्रलयकारी घटनाएं घटित होने लगती है। आपदाओं एवं विपदाओं की आंधी इन्हें बहा ले जाती है। इन सभी संकटों का कारण प्रकृति से विलगाव-अलगाव एवं विमुख होना है।
प्रकृति का निर्यातवाद कहता है, मनुष्य प्रकृति की उपज है, प्रकृति का दास है। वह वातावरण के अनुसार अपनी क्रिया कलापों को विकसित कर लेता है। प्रकृति के अनुरूप चलने से प्राकृतिक आपदाए एवं विपदाये नहीं आती क्योंकि प्रकृति एवं मनुष्य में सन्तुलन बना रहता है। यदि आपदाए आती भी हैं तो प्रकृति स्वयं अपना सन्तुलन बना लेती है। डार्विन का ‘विकासवाद का सिद्धान्त’ भी यही कहता है कि मनुष्य प्राकृतिक परिस्थितियों, पर्यावरण के स्थिति के अनुसार अपना विकास करता है तथा उसी के अनुरूप अपना जीवन जीता है, विकसित करता है तथा उसी के अनुरूप जीवन ढ़ाल लेता है।
मनुष्य का सम्भववाद कहता है मनुष्य स्वयं क्रियाशील है, स्वनिर्माणकर्ता है, स्वयं भोक्ता है। वह अपनी बुद्धि चातुर्य, कौशल एवं पुरुषार्थ से प्राकृतिक परिस्थितियों को निरन्तर अपने वष में करता है। जब सम्मवाद प्रकृति के नियतिवाद पर भारी पड़ता है या हावी होता है, तब पारिस्थितिक असन्तुलन उत्पन्न होता है, जो जन जीवन के लिए आपदाए एवं विपदाए उत्पन्न करता है, जिससे दुर्घनाएं, रोग, महामारी, भूकम्प, बाढ़ जीव जन्तुओं की दैनिक क्रियाओं में परिवर्तन तथा मौसम के सभी विनाशक परिवर्तन हर जगह नजर आते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार कल्पवृक्ष की पूजा उपासना द्वारा मनोवांछित कामनाओं की पूर्ति होती थी। आज कल्पवृक्ष की सत्यता को सिद्ध कर पाना सम्भव नहीं है, परन्तु धरती पर मनुष्य जीवन के रूप में जिस सुअवसर को प्राप्त करने का लाभ मिलता है, उसकी तुलना अवश्य कल्पवृक्ष के अस्तित्व से की जा सकती है। मनुष्य जीवन अद्भुत संभावनाओं से युक्त अनुपम विभूतियों का प्रदाता और असाधारण परिणामों को जन्म देने वाला है, इसलि इसे ‘दिव्य’ और ‘महानतम्ा्’ भी कहा जा सकता है। यदि मनुष्य जीवन का सद्उपयोग किया जा सके तो कल्पवृक्ष की भांति इस जीवन में से अमूल्य वरदानों की श्रृंखला को प्राप्त किया जा सकता है। शर्त एक ही है, उसमें अभिष्ट की प्राप्ति हेतु प्राकृतिक संसाधनों का श्रेष्ठतम उपयोग करने की विधि व्यवस्था बनायी जावे तथा अपनायी जावें जिससे हरीतिमा संवर्द्धन तथा पर्यावरण संरक्षण हो सके।
पर्यावरण को क्षति पहुंचाने का अर्थ है प्रकृति को नष्ट करना। पर्यावरण को बचाने का तात्पर्य है, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता होना और उसकी कृपा दृष्टि प्राप्त करना। प्रकृति का पोषण एवं रक्षण करके हम इसे नष्ट होने से बचा सकते है। संरक्षित एवं सुरक्षित प्रकृति ही हमारे जीवन को अभिसिंचित कर सकती है। जीवन को पुष्पित एवं पल्लवित कर सकती है। प्रकृति एवं मनुष्य जीवन के इस संवेदनशील सम्बन्धों को फिर से जीवित करने की आवश्यकता है, जिससे किसी भी आसन्न संकट और विपदा से बचा जा सकें। इस प्रकार प्रकृति को पोषित किया जाय जिससे जीवन स्वतः ही पोषित हो सकेगा तथा जीवन सुखमय, शान्तिमय तथा समृद्धिमय बन सकेगा।