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मुस्लिम लीग का विभाजनकारी अतीत

  • प्रमोद भार्गव
    कांग्रेस के प्रमुख नेता राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा करके जो साख बनाई थी, उसे अमेरिका की धरती पर गलतबयानी करके गंवा दिया। इस यात्रा में मुस्लिम तुष्टिकरण को हवा देने की दृष्टि से उन्होंने कहा कि ‘भारत में मुसलमान निशाने पर हैं। मुस्लिम लीग पूरी तरह से धर्म निरपेक्ष पार्टी है, उसमें कुछ भी गैर धर्म-निरपेक्ष नहीं है। ‘याद रहे केरल की वायनाड लोकसभा सीट राहुल ने इसी मुस्लिम लीग के समर्थन से जीती थी। खैर, जो भी भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की समझ रखते हैं, वे भलिभांति जानते हैं कि इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग कतई धर्म निरपेक्ष दल नहीं रहा। बल्कि अंग्रेजों के उकसाने पर मुस्लिम लीग की नींव पड़ी और जिसकी परिणति भारत विभाजन में हुई। राहुल गांधी जब भी विदेशी धरती पर होते हैं, तब ऐसे बयान अवश्य देते हैं, जो भारत में हिंदु-मुसलमानों के बीच विभाजन की रेखा चौड़ी करने वाले साबित होते हैं। जबकि यही राहुल आज तक कश्मीरी पंडितों और उन पर हुए अत्याचारों के विरुद्ध एक वाक्य भी नहीं बोले हैं। उनका यह पक्षपात इस तथ्य का प्रमाण है कि न तो वे तटस्थ हैं और न ही पंथनिरपेक्ष ! उन्होंने एक बार फिर वोट की राजनीति के लिए मुस्लिम तुष्टिकरण को आधार बनाया है। देशहित में ऐसी दलीलें उचित नहीं हैं। क्योंकि मुस्लिम लीग का इतिहास के पन्नों में जो सांप्रदायिक चरित्र दर्ज हैं, उस पर थोथे बयानों से पर्दा पड़ने वाला नहीं है।
    अंग्रेजों द्वारा अपनी सत्ता कायम रखने की दृष्टि से बंगाल-विभाजन एक ऐसा षड्यंत्रकारी घटनाक्रम रहा, जो भारत विभाजन की नींव डाल गया।
    इस बंटवारे के फलस्वरूप अंग्रेजों के विरुद्ध ऐसी उग्र जन-भावना फूटी की बंग-भंग विरोध में एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। दरअसल जब गोरी पलटन ने समूचे भारत को अपनी अधीनता में ले लिया, तब क्रांतिकारी संगठनों और विद्रोहियों पर कठोरता बरतने के लिए 30 सितंबर 1898 को भारत की धरती पर वाइसराय लाॅर्ड कर्जन के पैर पड़े। कर्जन को 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा ले रहे क्रांतिकारियों के दमन के लिए भेजा गया था। इस संग्राम पर नियंत्रण के बाद फिरंगी इस बात को लेकर चिंतित थे, कि कहीं इसकी राख में दबी चिंगारी फिर न सुलग पड़े। अंग्रेज भली भांति जान गए थे कि 1857 का सिलसिला टूटा नहीं है। अंग्रेजों को यह भी शंका थी कि कांग्रेस इस असंतोष पनपने के लिए खाद-पानी देने का काम कर रही है। कर्जन ने अंग्रेजी सत्ता के संरक्षक बने मुखबिरों से ज्ञात कर लिया कि इस असंतोष को सुलगाए रखने का काम बंगाल से हो रहा है। वाकई स्वतंत्रता की यह चेतना बंगाल के जनमानस में एक बेचैनी बनकर तैर रही थी। यह बेचैनी 1857 के संग्राम जैसे रूप में फूटे, इससे पहले कर्जन ने कुटिल क्रूरता के साथ 1905 में बंगाल के दो टुकड़े कर दिए। जबकि इस बंग-भंग का विरोध हिंदू और मुसलमानों ने अपनी जान की बाजी लगाकर किया था। इस बंटवारे का मुस्लिम बहुल क्षेत्र को पूर्वी बंगाल और हिंदू बहुल इलाके को बंगाल कहा गया। अर्थात जिस भूखंड पर हिंदू-मुस्लिम संयुक्त भारतीय नागरिक के रूप में रहते चले आ रहे थे, उनका मानसिक रूप से सांप्रदायिक विभाजन कर दिया। लेकिन कर्जन ने इसे कुटिल चतुराई मुस्लिम लीग की स्थापना में बदल दिया।
    कर्जन की दुर्भावना की चालाकी व रहस्य तत्काल तो बंग-भंग के रूप में ही नजर आई, लेकिन वास्तव में इसे पूर्वी बंगाल की लकीर खींच देने का अर्थ मुसलमानों में ऐसी भावना जगाना भी था, जो उन्हें हिंदुओं के विरुद्ध एकजुट करने का काम करे। इस कुटिलदृष्टि के चलते कर्जन ने मुसलमानों में मुगल बादशाहों, जमींदारों और जागीरदारों के जमाने को बहाल करने का लालच दिया। यही नहीं कर्जन ने अपने वाकचातुर्य से ढाका के नवाब सलीमुल्ला को बंगाल विभाजन का समर्थक और अचानक उदय हुए स्वदेश आंदोलन का बहिष्कार करने के लिए राजी कर लिया। सलीमुल्ला कर्जन से इसने प्रभावित हुए कि उन्होंने सक्रिय होकर कुछ नवाबों को बरगलाकर दिसबंर 1906 में ‘मुस्लिम लीग’ संगठन खड़ा कर दिया। स्वदेशी आंदोलन को विफल करने के लिए अंग्रेज अधिकारियों ने सलीमुल्ला के साथ मिलकर हिंदू-मुस्लिमों के बीच संप्रदाय के आधर पर दंगे भड़काने का काम भी शुरू कर दिया। यहीं से हिंदुओं की हत्या करने और उनकी संपत्ति लूटने व हड़पने का सिलसिला शुरू हो गया।
    गवर्नर जनरल और वायसराय मिंटो ने मुस्लिम पृथकवादियों के साथ मिलकर एक नई चाल चली। इसके तहत बंग-भंग विरोध आंदोलन को देष के एक मात्र ‘मुस्लिम-प्रांत’ की खिलाफत के आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। नतीजतन मुस्लिम नेता पूरी ताकत से बंटवारे के समर्थन में आ खड़े हुए। इसी समय आगा खान के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल मिंटो षिमला में मिला और मुस्लिमों के लिए पृथक ‘मतदाता सूची’ बनाए जाने की मांग उठा दी।

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