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उत्साहजनक मतदान के अर्थ

  • प्रमोद भार्गव
    अठाहवीं लोकसभा के तीसरे चरण के मतदान को उत्साहजनक कहा जा सकता हैं। 10 राज्यों व एक केंद्र शासित प्रदेश की 93 सीटों पर 61.64 प्रतिशत मतदान हुआ। असम में सबसे ज्यादा 75.01 प्रतिशत और महाराष्ट्र में सबसे कम 54.09 प्रतिशत मत पड़े। अभी इस मतदान के और बढ़ने की उम्मीद है। क्योंकि दूर-दराज के इलाकों से मतदानकर्मी देर-रात तक वापस आकर आंकड़े दे पाते हैं। हालांकि इन सीटों पर 2014 में 65.38 और 2019 में 67.62 मत पड़े थे। इस अनुपात में 2024 में पड़ा मत कम है। मध्यप्रदेश में जिन 9 सीटों पर चुनाव हुआ है, उन पर औसत मतदान 66.50 रहा। जबकि 2019 की तुलना में यह मतदान मात्र 0.38 प्रतिशत कम है। तब 66.88 प्रतिशत वोट पड़े थे।
    मध्यप्रदेश में सबसे कम भिंड लोकसभा सीट पर 55.44 प्रतिशत वोट पड़े, जबकि दिग्विजय सिंह के प्रत्याशी होने से बहुचर्चित रही सीट राजगढ़ में 76.19 वोट पड़े हैं। इस बड़े प्रतिशत को राजगढ़ में कांग्रेस अपने पक्ष में तो भाजपा राम लहर का परिणाम बता रही है। इस मतदान के बढ़ने के कारणों में तिथि में शादी-विवाह न होना और खेती-किसानी का समाप्त हो जाना माना जा रहा है। निर्वाचन आयोग ने भी कुछ ऐसे प्रयोग किए हैं, जो मतदान बढ़ाने में सहायक रहे हैं। बावजूद उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और बिहार समेत अन्य राज्यों की कई सीटों पर मतदान का प्रतिशत 55 से 59 रहना चिंताजनक है।
    जिन सीटों पर मतदान कम रहा है, उसका प्रमुख कारण चुनाव का इकतरफा हो जाना है। ऐसा राष्ट्रीय मुद्दों का उन क्षेत्रों में प्रभाव शील होना माना जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दूसरी बार सत्ता संभालने के बाद अनेक बुनियादी मुद्दों का संवैधानिक निराकरण तो किया ही, देशव्यापी लोक-कल्याणकारी योजनाओं को भी कामयाबी के साथ जमीन पर उतारा। इनके असर के चलते 350 से ज्यादा सीटों पर इकतरफा मतदान का रुख देखने में आएगा। यही रुख नरेंद्र मोदी के संकल्प 400 पार को पूरा करता दिखाई दे रहा है। मोदी ने जम्मू-कश्मीर में धारा-370 और 35-ए के खात्मे के साथ तीन तलाक जैसे महत्वपूर्ण फैसले लिए। राम मंदिर के निर्माण का रास्ता भी दूसरे कार्यकाल में खुला और राम मंदिर में रामलला की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा वैदिक रीति से गरिमा के साथ संपन्न हुई। इस आयोजन के आमंत्रण को ठुकराकर कांग्रेस ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया। इसी के बाद से मतदाता की मानसिकता भाजपा के पक्ष में होती दिखाई देने लगी थी, जो पहले चरण में हुए मतदान के उत्साहजनक प्रतिशत से पुष्ट हुई है। चुनांचे मतदाता यदि राष्ट्रहित प्रमुख मानते हुए मतदान कर रहा हैं, तो उसकी अपेक्षा आगे भी नरेंद्र मोदी की नई सरकार से राष्ट्रहित में लोक हितकारी नए निर्णयों की उम्मीद बढ़ जाती है। अतएव अब लोग चाहते हैं कि समान नागरिक संहिता और जनसंख्या नियंत्रण जैसे कानून जल्द अस्तित्व में आएं? साथ ही रोजगार की उपलब्धता, महंगाई और भ्रष्टाचार पर अंकुश भी मतदाता चाहता है। धर्म के आधार पर मुस्लिमों को आरक्षण देने के खिलाफ पिछड़े वर्ग का मतदाता उठ खड़ा हुआ है। क्योंकि कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में पिछड़ों के कोटे से ही मुस्लिमों को आरक्षण देने के प्रयास हुए हैं। हालांकि ये प्रयास उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों के हस्तक्षेप के चलते परिणाम तक नहीं पहुंच पाए। क्योंिक संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण देने का कोई प्रावधान नहीं है।
    बहुआयामी चुनाव सुधार के कारगर नतीजे पूरे देश में दिख रहे हैं। इसका श्रेय निर्वाचन आयोग के साथ, लोकतंत्र के इस अभूतपूर्व पर्व में भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करने की उन अपीलों को भी जाता है,जो दृश्य, श्रव्य व मुद्रित प्रचार माध्यमों से निरंतर जारी हैं। पूर्वोत्तर भारत से लेकर दशों दिशाओं में शांतिपूर्ण मतदान में जो सुधार हुआ है, उसे बेहतर, पारदर्शी व फोटो लगी मतदाता सूचियों का भी बड़ा योगदान है। चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के बाद आयोग ने छूटे रह गए मतदाताओं को अपने नाम का पंजीयन कराने का जो अवसर दिया, उसे भी रेखांकित करना जरूरी है। लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार में मतदाता ने जो उदासीनता दिखाई है, उसके चलते ऐसा लग रहा है कि जीत का इकतरफा माहौल बन जाने के कारण कुलीन मतदाता घरों से बाहर नहीं निकला। अतएव अभी मतदाता को अपने संवैधानिक अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति और जागरूक करने की जरूरत है।
    आयोग की सख्ती से चुनाव गुंडा-शक्ति से मुक्त हुए हैं। इस कारण मतदान केंद्रों पर लूटपाट और खून-खराबे के जो हालात बन जाते थे,उनका कमलेश खात्मा हो गया है। भय-विहीन स्थिति के चलते आम मतदाता निसंकोच मतदान करने लगा है। नोटा के विकल्प ने भी मतदाता को आकर्षित किया है। लिहाजा मौजूदा उम्मीदवारों से निराश मतदाता नकारात्मक मत प्रयोग के लिए घरों से निकलने लगे हैं। जाहिर है, अतिवादी ताकतें कमजोर पड़ रही हैं। सजायाफ्ताओं के चुनाव लड़ने के प्रतिबंध से भी चुनाव प्रक्रिया साफ-सुथरी व भयमुक्त हुई है। इसीलिए मतदान को लेकर सबसे प्रमुख रुझान जम्मू-कश्मीर में देखने को मिला है। जहां अनुच्छेद-370 हटने के बाद पहली बार आम चुनाव हो रहे हैं। यही स्थिति जातीय संघर्ष से जूझ रहे मणिपुर में दिखी है।मतदान के अगले चार चरणों में यदि मतदान 70 फीसदी से ऊपर पहुंचता है तो यह स्थिति लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत रहेगी।
    यह वजह कालांतर में अल्पसंख्यक समुदाओं व जातीय समूहों को वोट बैंक की लाचारी से मुक्ति दिलाएगाी। दलों को भी तुष्टिकरण की राजनीति से छुटकारा मिलेगा। बढ़ा मतदान या औसत 70 प्रतिशत तक पहुंचा मतदान उन सब मिथकों को तोड़ रहे हैं, जो तुष्टिकरण के कारक आजादी के बाद से ही बने रहे हैं। कश्मीर में इसी तुष्टिकरण का परिणाम अलगाववाद और आतंकवाद का जनक रहा है। लेकिन अब वहां हालात तेजी से बदल रहे है और भटके हुए लोग मुख्यधारा में शामिल होने के लिए बढ़-चढ़कर लोकतांत्रिक प्रणाली में भागीदारी करने लगे हैं।
    जाहिर है, मतदाताओं के ध्रुवीकरण की राजनीति को पलीता लग रहा है। नतीजतन समुदाय और जाति विशेष की राजनीति करने वाले नेताओं को झटका लगा है और उनका वर्चस्व सिमटता दिखाई दे रहा है। तुष्टिकरण और जातिवाद के आधार पर खड़ा हुआ इंडी गठबंधन स्वमेव आपस में लड़-झगड़कर खत्म होने के कगार पर पहुंच गया है। गठबंधन की परिणति पर पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हैरानी में डालने वाला बयान देते हुए कहा कि ‘कांग्रेस और वामदल इंडी गठबंधन के घटक दल नहीं है।

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