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मणिपुरः कानूनी असमानताओं से उपजी हिंसा

  • प्रमोद भार्गव
    पूर्वोत्तर के सातों राज्यों में अकसर हिंसा की वजह बांग्लादेशियों की अवैध घुसपैठ, बिगड़ता जनसंख्यात्मक घनत्व, संसाधनों पर अतिक्रमण और अर्द्धसैनिक बलों का विरोध रही हैं। लेकिन यह अपवाद है कि कानूनी असमानता के चलते हिंसा का ऐसा तांडव रचा गया कि 54 लोग काल के गाल में समा गए और 150 से ज्यादा घायल हैं। सेना और अर्द्धसैनिक बलों की इस घटनाक्रम में दोहरी सफलता देखने में आई। एक तो उन्होंने मणिपुर में अचानक फैली आग को नियंत्रित किया, दूसरे 23,000 से ज्यादा लोगों को दंगा स्थलों से विस्थापित कर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया।
    अपनी नाकामी पर पर्दा डालते हुए मणिपुर सरकार कह रही है कि लोग गलतफहमी का शिकार होकर हिंसा में लिप्त हो गए। लेकिन सवाल उठता है कि संदेह उत्पन्न क्यों हुआ और हो भी गया था तो उसको सुलझाने के प्रभावी प्रयत्न क्यों नहीं हुए। दरअसल मणिपुर उच्च न्यायालय ने इसी माह एक आदेष जारी किया कि सरकार मैतेई आदिवासी समुदाय के लोगों को आदिवासी समुदाय की श्रेणी में शामिल करने पर विचार करे। लेकिन सरकार यदि यह समझ लेती कि ऐसे मुद्दे सरकारी नौकरी और सुविधाओं का लाभ लेने से जुड़े हंै, इसलिए चिंगारी सुलगते ही विस्फोट की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। गोया, मणिपुर की यह ताजा हिंसा इसी नासमझी का दुष्परिणाम है। फरवरी 2023 में राज्य सरकार ने पहाड़ी और जंगली क्षेत्रों से अवैध प्रवासियों को बाहर करने की शुरुआत कर दी थी। इन क्षेत्रों की नगा और कूकी समुदाय की 33 जातियां, जनजाति की श्रेणी में अधिसूचित हैं। अतएव इनके लिए चिन्हित भूभाग पर किसी गैर-जनजातीय समुदाय के लोग काबिज नहीं हो सकते हैं।
    विडंबना देखिए जिन लोगों को प्रवासी बताकर विस्थापन का सिलसिला शुरु किया गया उन्हें इस इलाके के मूल निवासी कूकी समुदाय ने अपना बताया। किंतु सरकार ने इस तथ्य पर ध्यान न देते हुए कूकियों की बेदखली का सिलसिला तो बनाए ही रखा, साथ ही मैतेई समुदाय को जब जनजाति का दर्जा मिल गया। तब उन्होंने बलपूर्वक नगा और कूकी समुदाय के लोगों को आरक्षित भूखंडों पर भी काबिज होने से नहीं रोका। विवाद की असली जड़ यही विरोधाभास रहा। मैतेई समुदाय इस इलाके में शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक रूप से सक्षम वर्ग है। संख्याबल में भी वे अधिक हैं। यही नहीं मणिपुर की विधानसभा की 60 में से 40 विधानसभा क्षेत्रों में वहीं काबिज है। जबकि पहाड़ी इलाकों के 90 प्रतिषत दुर्गम भू-भाग में रहने वाली नगा और कूकी 33 जनजातियों के केवल 20 विधायक ही हैं। ज्यादातर मैतेई हिंदू होने के साथ वैष्णव संप्रदाय से जुड़े हैं। इनमें से कुछ मतांतरित मुसलमान भी है। जबकि नगा और कूकियों में से 90 फीसदी धर्मांतरित ईसाई हैं। इस लिहाज से यह विवाद आसानी से धार्मिक रंग में बदलकर हिंसक हो गया। इसे धार्मिक रंग देने में ड्रग माफिया ने भी आग में घी डालने का काम किया। समूचे पूर्वोत्तर भारत में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निर्यात नषे का कारोबार खूब फल-फूल रहा है। यहां प्रत्येक माह हेरोइन बड़ी मात्रा में पकड़ी जाती है। चीन और बांग्लादेश ने नेपाल के रास्ते यहां के लोगों को पहले तो नशे का लती बनाया और फिर इसे धन कमाने के बड़े कारोबार में तब्दील कर दिया। नतीजतन मणिपुर में अवैध रूप से अफीम की फसल भी उगाई जाने लगी। पूर्व की सरकारों ने इसे अवैध कमाई का जरिया बना लिया। अलबत्ता अब मणिपुर के मुख्यमंत्री नोंगथोंबम बीरेन सिंह ने इस ड्रग माफिया के विरुद्ध बड़ी लड़ाई छेड़कर, इन्हें कारोबार करना मुश्िकल कर दिया है। लिहाजा ड्रग माफिया इस विवाद को दंगे का रूप देकर सरकार को कमजोर करना चाहता है।
    वैसे, ऐसे हालात के निर्माण की प्रक्रिया तभी शुरू हो गई थी, जब विधानसभा से 2015 में तीन नए विधेयक पारित हुए थे। तब भी हिंसा के खतरनाक हालात निर्मित हुए थे। दरअसल इन कानूनों को स्थानीय जनजातीय समुदायों ने व्यापक हितों के प्रतिकूल मान लिया था। एक साथ लाए गए तीन विधेयकों से खासतौर से आदिवासी समूहों में ये आशंकाएं गहरी हुई कि बाहरी लोगों को पर्वताचंलों का स्थाई निवासी बनाए जाने के रास्ते इन कानूनों के जरिए खोले जा रहे हैं। इसीलिए यह मामले में बाहरी बनाम मूल निवासियों की जंग में उलझकर विस्फोटक हो गया है। स्थानीय समुदायों में पनपे इस असुरक्षा-बोध पर सद्भाव और विश्वास की मलहम लगाने की जरूरत है। उत्तर-पूर्व के जिन सात राज्यों को सात बहनों के नाम से जाना जाता है, वे पश्चिम बंगाल और असम के विभाजित रूप हैं। लिहाजा बृहत्तर असम का ‘असम‘ नाम यूं ही नहीं पड़ा। उसकी पृष्ठभूमि वे असमानताएं रही हैं, जिनकी वजह से यहां के षासकों ने इस क्षेत्र का ‘असम‘ नाम से नामकरण किया। ‘असम‘ का सामान्य सा अर्थ है, जो ‘सम‘ न हो। अर्थात जो असमानताओं और विसंगतियों से भरा हो।
    भूमि से लेकर जीवन-यापन के हर क्षेत्र में इस विरोधाभासी पहलू को सकारात्मक सोच देने की दृश्टि से हमने इसे ‘विविधता में एकता‘ के पर्याय से जोड़ दिया। जबकि पूर्वोत्तर समेत समस्त भारत भौगोलिक, सांस्कृतिक,शैक्षिक और आर्थिक विसंगतियों से जबरदस्त मुठभेड़ करता हुआ, बमश्किल जीवन-यापन कर रहा है। ऐसे में जनप्रतिनिधियों द्वारा ऐसे कानून वजूद में लाए जाएं, जो भेद को और बढ़ाने वाले का षक पैदा करते हों तो विरोध और हिंसा के स्वर तो मुखर होंगे ही? ये कानून हैं, मणिपुर यात्री किराएदार एवं प्रवासी नियमन विधेयक, मणिपुर भू-राजस्व एवं भूमि सुधार (सातवां संशोधन) विधेयक और मणिपुर दुकान एवं प्रतिष्ठान (दूसरा संषोधन) विधेयक। विवाद व हिंसक आंदोलन का कारण ‘यात्री किराएदार एवं प्रवासी नियमन विधेयक-2015‘ बना हुआ है। इस विधेयक में इनर लाइन परमिट हासिल करने के तरीके को कड़ा किया गया है।
    यह उपाय जीसीआरएलपीएस नामक संगठन द्वारा सालों से उठाई जा रही मांग के परिप्रेक्ष्य में किया गया है। संगठन की प्रमुख मांग थी कि मणिपुर में प्रवासी मसलन बाहरी लोगों की संख्या और हस्तक्षेप लगातार बढ़ रहा है। लिहाजा इसे नियंत्रित किया जाए। मूल निवासियों की ऐसी धारणा पुख्ता हुई है कि ये लोग मणिपुर की प्राकृतिक संपदाओं पर तो कब्जा कर ही रहे हैं, रोजगार और आजीविका के दुकान व श्रम से जुड़े संसाधनों को भी हथिया रहे हैं। सरकारी नौकरियों में स्थानीय और प्रवासियों के बीच प्रतिस्पर्धा उत्तरोत्तर बड़ी होती जा रही है। नतीजतन मणिपुर की कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री रहे ओकराम इबोबी सिंह को इनर लाइन परमिट के नियमों को सख्त बनाने की जरूरत पड़ी। मूल रूप से यह मांग मणिपुर के बहुसंख्यक मैतेई समुदाय की थी। इसका विरोध आदिवासी समुदाय शुरुआत से ही कर रहे हैं। उन्हें यह भय है कि अगर ये ये कानून अमल में आ जाते हैं तो उन्हें जो ‘मणिपुर घाटी जन-प्रशासन नियमन अधिनियम 1947 के तहत विशेष अधिकार मिले हुए हैं, उनका हनन होगा। दरअसल इस कानून के तहत राज्य के पहाड़ी और दुर्गम इलाकों में अनादि काल से रह रहे जनजातीय समुदायों के हितों को विषेश रूप से संरक्षित करने के उपाय किए गए हैं।

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