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राजनीतिक दलों के घोषणा पत्र चुनाव आयोग में पंजीकृत हो

  • रघु ठाकुर
    लोकतांत्रिक देशों में चुनाव के समय घोषणा पत्र जारी करने का चलन रहा है। दरअसल घोषणा पत्र का चलन संबंधित पार्टी के द्वारा आने वाले समय में कौन से काम को हाथ में लेंगे और क्या होना चाहिए इसका एक विवरण या पांच वर्षीय कार्यक्रम जैसा होता है। परंतु पिछले कुछ दशकों से यह अनुभव हो रहा है कि राजनीतिक दल विशेषतः जो सत्ताधारी या सत्ता के नजदीक हैं, वह घोषणाएं तो बहुत करते हैं परंतु उसके ऊपर अमल नहीं करते हैं। घोषणा पत्रों के स्वरूप भी अब बदल रहे हैं।
    1952 से लेकर 1967 तक के दलों के चुनाव घोषणा पत्रों को देखें तो उनमें मुख्यतः नीति परिवर्तन के संदेश और वायदे ज्यादा होते थे। परंतु अब घोषणा पत्र नीति परिवर्तन के बजाय वोट खरीदने के मंत्र बन रहे हैं और घोषणा पत्र में मुख्यतरू राहत की बातों की चर्चा ही मुख्य होती है कि अगर सरकार बनती है तो कौन-कौन सी रियायत मतदाताओं को देंगे। मैं रियायतों के खिलाफ नहीं हूं। परंतु रियायतें स्थानीय़ नहीं होनी चाहिए वरना वह लोकतांत्रिक विफलता में बदल सकती हैं। रियायतें एक अस्थाई संक्रमणता व्यवस्था हो जो आमजन को समर्थ बनाने की अवधि के बीच की मदद हो परंतु आमतौर पर दलों का लक्ष्य स्थाई विकलांगता पैदा करना हो गया यानि समर्थ न बनाकर निरंतर कमजोर रखना तथा मदद के नाम पर वोट हासिल करते रहना एक स्थाई रणनीति बन गई है।
    इस 2024 के लोकसभा चुनाव का जो घोषणा पत्र कांग्रेस ने जारी किया है उसमें यह कहा है कि गरीब महिलाओं को हर साल 1 लाख रुपए देंगे। भारतीय जनता पार्टी भी इसके पहले चुनाव में लगभग ऐसी ही अन्य घोषणाएं करती रही। उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 50000 रुपए तक के किसानों के कर्ज माफ करने का ऐलान किया था और इस आधार पर उन्हें वोट भी मिला, बाद में छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने भी किसानों के कर्ज माफी का ऐलान किया और उन्हें भी किसानों का समर्थन मिला। पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने भी यह वादा किया कि हम हर किसान को साल का रु. 6000 किसान सम्मान निधि देंगे और किसान उनकी ओर कुछ उन्मुख भी हुए।
    कुल मिलाकर स्थिति यही है प्रत्यक्ष रूप से या अप्रत्यक्ष रूप से कुछ राहत के नाम पर रुपयों का लालच देकर पार्टियां वोट खरीदती हैं। प्रत्याशियों के द्वारा व्यक्तिगत तौर पर मतदाताओं को आर्थिक लाभ पहुंचाना या कोई सुविधा देना चुनावी कानून की दृष्टि से अपराध है और इस अपराध के लिए उनके चुनाव भी रद्द हो सकते हैं, परंतु राजनीतिक दलों के द्वारा घोषणा पत्र के नाम पर यह थोकबंद खरीद चुनावी अपराध नहीं मानी जाती। सार्वजनिक रूप से ऐलान करके इस प्रकार से मतदाताओं को ललचाते हैं और वोट लेते हैं।
    घोषणा पत्र जारी करने की प्रक्रिया में एक और परिवर्तन आया है कि आम तौर पर घोषणा पत्र पार्टियां बगैर किसी सामाजिक और आर्थिक आंकलन के करती हैं। 1952 के बाद लगभग 2-3 दशकों तक पार्टियां जो घोषणा पत्र जारी करती थीं उनके पीछे एक उत्तरदायित्व की भावना तथा वस्तुपरक आंकलन होता था कि वहघोषणा कैसे पूरी कर सकेंगे? जिनके लिए वे जरूरी मानती हैं। क्या देश के आर्थिक हालात इसके लिए समर्थ होंगे। मुख्यतरू उनके चुनाव घोषणा पत्र में नीति निर्माण के ऊपर जोर दिया जाता था। अब पार्टियों के जो घोषणा पत्र जारी हो रहे हैं वह इतने लंबे चैड़े हो रहे हैं कि उन्हें याद रखना जनता को तो दूर पार्टी के नेताओं को भी याद रखना संभव नहीं बचा है। पाँच सौ हजार वायदे और अलग-अलग क्षेत्रों के वायदे वाले इन चुनाव
    घोषणा पत्रों में सौ-सौ पेज तक होते हैं। इन चुनाव घोषणा पत्र को ना तो पार्टी वाले और ना मतदाता पढ़ते हैं। कोई विशिष्ट मुद्दे पर या किसी विशिष्ट राहत की घोषणा पर देश में चर्चा हो जाती है, परंतु उसका कोई महत्व नहीं होता। अभी जो चुनाव घोषणा पत्र जारी हुए हैं इनमें उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी ने भी कल घोषणा की है कि छोटे किसानों को प्रति माह प्रति किसान रु. 5000 की सहायता दी जाएगी। यह ढाई एकड़ से कम भूमि वाले किसानों को दी जाएगी। मैं नहीं जानता हूं कि उन्होंने इसका कोई आंकड़ा निकाला है? क्योंकि अगर निकाला होता तो वह उनकी भी संख्या भी जारी करते। इसी प्रकार हर मजदूर को रु. 5000 प्रतिमाह पेंशन देने का वादा किया है।

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