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- शतरूपा
मैं बलिपथ का अंगारा हूं, जीवन-ज्वाल जलाता आया लिखने वाला कवि स्वतंत्रता संग्राम में अपनी लेखनी से ऐसी ज्वाला सुलगाता रहा जिससे अंग्रेजी हुकूमत भी हिल गई। इस कवि ने देशके लिए अपने जीवन को होम कर दिया। माखनलाल चतुर्वेदी जिन्होंने प्रारंभ में एक भारतीय आत्मा के नाम से काव्य रचनाएं कीं, एक ओजस्वी कवि ही नहीं थे जो अंग्रेजों के शासनकाल में कविताओं के जरिये देशभक्ति का उबाल पैदा कर रहे थे, उन्होंने कलम को एक दूसरे मोर्चे -पत्रकारिता के क्षेत्र में भी जुटा रखा था। माखनलाल चतुर्वेदी मध्यप्रदेश के बाबई जिसे अब उनके ही नाम पर माखननगर कर दिया गया है, में जन्मे और खंडवा को अपनी कर्मभूमि बनाया। यहां वे शिक्षक रहे। यहीं से उन्होंने हिंदी साहित्य की उत्कृष्ट पत्रिका प्रभा का प्रकाशन प्रारंभ किया। इसी दौरान उनकी मुलाकात गणेशशंकर विद्यार्थी, माधवराव सप्रे, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी इत्यादि से हुई. माधवराव सप्रे ने कवि के रूप में प्रसिद्ध हो चुके दादा के जीवन में देशभक्ति के भावों को मुखर किया। सप्रे जी ही बाद में दादा के राजनीतिक गुरु भी बने। दादा ने कर्मवीर व गणेश शंकर विद्यार्थी के संपादन वाले प्रताप का संपादन भी किया।
दादा ने जबलपुर में भी स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रहे। सागर में अंग्रेजों द्वारा खोले जाने आधुनिक कसाईखाने के आंदोलन में उन्होंने अग्रणी भूमिका निभाई। उनकी सक्रियता को देखकर खुद महात्मा गांधी ने उनके प्रशंसक हो गए थे। उनकी ‘पुष्प की अभिलाषा’ शीर्षक अमर कविता तो आंदोलन का उद्घोष ही थी जिसमें कहा गया था-मुझे तोड़ लेना वनमाली, और उस पथ पर देना फेंक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जाएं वीर अनेक। दादा को अपनी निर्भीक पत्रकारिता के कारण ‘राजद्रोह’ के मुकदमे में जेल भी जाना पड़ा। उन्हें 1963 में पद्मविभूषण अलंकरण दिया गया किंतु उन्होंने 1967 मंें हिंदी को राष्ट्रभाषा न बनाए जाने के विरोध में इस अंलकरण को लौटा दिया था। 1943 में उस समय का हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा ‘देव पुरस्कार’ माखनलालजी को ‘हिम किरीटिनी’ पर दिया गया था। 1954 में साहित्य अकादमी पुरस्कार की स्थापना होने पर हिंदी साहित्य के लिए प्रथम पुरस्कार ‘हिमतरंगिनी’ के लिए दिया गया। ‘पुष्प की अभिलाषा’ और ‘अमर राष्ट्र’ जैसी ओजस्वी रचनाओं के रचयिता इस महाकवि को सागर विश्वविद्यालय ने १९५९ में डी.लिट्. की मानद उपाधि से विभूषित किया।