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- डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र
भगवान शिव सर्वप्रिय देवता हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने उन्हें जगत्वन्द्य कहा है -‘संकर जगत् वन्द्य जगदीसा’ – अर्थात भगवान शंकर संसार के स्वामी हैं और समस्त संसार‘ उन्हें वंदनीय मानता है। देवता, मनुष्य, ऋषि मुनि सब उन्हें नमन करते हैं। यहाँ प्रयुक्त ‘सब‘ शब्द में देवताओं, मनुष्यों और साधारण मनुष्यों से अधिक अलौकिक शक्ति सम्पन्न मुनियों के साथ यक्ष, किन्नर, नाग, असुर आदि अन्य जातियाँ भी समाहित हो जाती हैं। भगवान शिव जगत वंध होने के कारण सब के प्रिय आराध्य हैं। इस संदर्भ में यह विचारणीय प्रश्न है कि जब देवता और दैत्य परस्पर शत्रु हैं तब देवाधिदेव महादेव दैत्यों के लिए भी वंदनीय क्यों हैं ? दैत्य वरदान प्राप्ति के लिए सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा की शरण में जाते हैं । उनकी तपस्या करते हैं किन्तु उनकी पूजा नहीं करते। दैत्य विष्णु से कभी कोई याचना नहीं करते परन्तु शिव के समक्ष सदा नतमस्तक मिलते हैं।
शिव की इस सर्वप्रियता का रहस्य उनकी कल्याणकारी शक्ति और त्यागपूर्ण सरलता में निहित है। नेतृत्व यदि सर्वप्रिय होना चाहंे तो उसे भी शिव के समान सहज सुलभ और सबके प्रति कल्याणकारी बनना चाहिए। ‘शिव‘ का एक अर्थ कल्याण‘ भी है। कल्याण सब चाहते हैं– देवता भी और दैत्य भी । अतः शिव के भक्त सभी हैं। कल्याण-कामना से किसी का विरोध नहीं होता । इसलिए शिव से भी किसी का विरोध नहीं है। शिव वैदिक- पौराणिक देवता होने के साथ- साथ लौकिक घरातल पर भी एक ऐसे नेहूत्व का प्रतीकार्थ देते हैं जो सबका भला चाहता है, सबका भला करता है, सबके लिए सुलभ है और भोला-भंडारी है। जो वीतरागी है, संन्यासी है, जिसका अपना अपने लिए कुछ नहीं, अपना सब कुछ सबके लिए हैं।
जो समन्वय की सामर्थ्य से युक्त है और विरोधों में सामंजस्य बैठाना जानता है, जिसे अपयश, अपमान एवं निन्दा का विष पीना- पचाना और समाज के लिए घातक भयानक विषधरों को वश में करना आता है। ऐसा ही व्यक्तित्व शिव हो सकता है, लोक के लिए शुभ हो सकता है और सर्वप्रिय तथा जगतबंद्य बन सकता है। शिव के कंठ में, भुजाओं में नाग लिपटे हैं। नाग संसार के लिए भयकारी हैं किन्तु जब वे शिव के नियन्त्रण में उनकी देह पर मालाओं के समान शोभायमान होते हंै तब लोक के लिए भय का कारण नहीं रह जाते । लौकिक संदर्भ में नाग अपराधी ताकतों के प्रतीक हैं। लोक के कल्याण के लिए इनका नियंत्रण आवश्यक है। शिव वही हो सकता है जो इन पर नियंत्रण कर सके। नेतृत्व की शिवता शिव जैसी नियन्त्रण-शक्ति की अपेक्षा करती है। शिव को त्रिलोचन कहा गया है। दो नेत्र तो सबके पास हैं। सब उनसे देखते हैं, अनुमान लगाते हैं और निष्कर्ष निकालकर कार्य करते हैं किन्तु शिव ज्ञान के तृतीय नेत्र से देखकर विचार करते हैं।
सही निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए ज्ञान के तृतीय नेत्र का सदुपयोग शिव-नेतृत्व की परम उपलब्धि है। ज्ञान का यही तृतीय नेत्र लोक-कल्याण के लिए आवश्यकता पड़ने पर रुद्र रूप धारण कर अशिव शक्तियों के संहार का कारण भी बनता है। समाज की सुरक्षा के लिए नेतृत्व के तीसरे नेत्र का संहारक रौद्ररुप लेना और उसकी कल्याणकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में उसका विचार सम्पन्न ज्ञान रूप में परिणत होना आवश्यक है। भगवान शंकर के इस तीसरे नेत्र का रहस्य समझकर ही कोई नेतृत्व समाज को समृद्धि और सुरक्षा देकर सर्वप्रिय बन सकता है।
लच्छेदार बातों और कोरे वादों की बौछारें समाज को बहका सकती हैं, बहला सकती हैं उसे रिझाकर वोट बटोर सकती हैं लेकिन समाज का भला नहीं कर सकतीं। शिव की देह पर लगी भस्म का अंगराग उनकी निष्कामता, निर्लोभता और निर्लिप्तता का प्रतीक है। सर्वप्रिय बनने के लिए उत्सुक नेतृत्व को व्यक्तिगत सुख सुविधाओं और वैभवपूर्ण प्रदर्शनों की विलासप्रियता पर अंकुश लगाना चाहिए।
निजी महत्वाकांक्षाएं नेता को इंद्र बना सकती हैं, शिव नहीं और इन्द्र कभी सर्वप्रिय नहीं हो सकते। इंद्र व्यवस्था चला सकते हैं किन्तु समाज पर आयी विपदाओं के निवारण के लिए सक्षम नहीं हो सकते। इस कार्य के लिए उन्हें शिव आदि अन्य शक्तियों की शरण में आना पड़ता है। नेतृत्व का इन्द्र बन जाना समाज के लिए शुभ नहीं होता। समाज की शुभता तो शिवता की विलासिता विहीन भस्मरागमयी भूमि में ही विलसती है। भगवान शिव नित्य शुद्ध हैं। शुद्धता का संधारण मन, वाणी और कर्म से होता है। शिव की कथाओं में कोई प्रसंग ऐसा नहीं मिलता जब उन्होंने कहीं किसी से कोई छल किया हो। समाज का नेतृत्व करने वाला व्यक्ति भी यदि शुद्ध हो, छल-फरेब न करे, झूठ न बोले तो उसकी विश्वसनीयता समाज में स्वतः बढ़ जाती है और तब उसकी सर्वप्रियता का पथ प्रशस्त होने लगता है।
नेतृत्व की शुचिता समाज में भी सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करके समाज से भ्रष्टाचार दूर कर सकती है। लोकजीवन में आचरण की पवित्रता नेतृत्व के शिवत्व की शुचिता पर निर्भर है। शुद्धता के अभाव में सामाजिक लोकप्रियता संभव नहीं। निजी आवश्यकताओं में न्यूनता शिव का आदर्श है। अन्न, वस्त्र और आवास लोकजीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं। शिव सबके लिए इन आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। शिव की पत्नी भगवती पार्वती का एकनाम अन्नपूर्णा भी है। माता अन्नपूर्णा की शिवगृह में उपस्थिति सबका पेट भरने की गारंटी है। अन्नपूर्णा सुख समृद्धि देकर लोक मंे वस्त्र और आवास की लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति का भी प्रतीकार्थ हैं। शिव और अन्नपूर्णा की यह पौराणिक युति नेतृत्व और नीति में सामंजस्य को संकेतित करती है। लोक का कल्याण चाहने वाले नेता की नीति ऐसी होनी चाहिए जो सबकी अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। स्वयं शिव इन अनिवार्यताओं से भी परे हैं।