- डॉ लोकेन्द्रसिंह कोट
हर पल खुशियों को बांटने की संस्कृति और आचार-विचार के चलते त्योहारों की रचना हुई है। व्यवहारगत तो यही है कि व्यक्ति को हरदम खुश ही रहना चाहिये। इसलिए भारतीय परम्परा में लगभग हर दिन तीज त्यौहार होते ही है। जितनी भी हिन्दी तिथियॉं हैं एकम, दूज, तीज, चौथ, पंचमी, छठ, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, बारस, तेरस, चौदस और अमावस्या या पूर्णिमा। सभी के नाम वर्ष भर कोई न कोई त्यौहार हैं। कोई भी दिन हमारी संस्कृति में अशुभ नहीं हैं। यहाँ तक कि यह भी शास्त्रों में है कि इस सृष्टि का निर्माण जब भी ब्रह्मा ने किया होगा उस दिन का भी त्यौहार है। चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे अहनि, शुक्ल पक्षे समग्रेतु तु सदा सूर्योदये सति। ब्रह्म पुराण में वर्णित इस श्लोक के अनुसार चैत्र मास के प्रथम सूर्योदय पर ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी। इसे गुड़ी पड़वा कहा गया। गुडी का निर्माण उस सृष्टि का प्रतीक है जो हमारे अस्तित्व का आधार स्तंभ है। पीले-लाल रंग के रेशम के कपड़े उस सामाजिक ताने-बाने को बताते हैं जिससे यह संसार आबद्ध है। रंग उस उल्लास व जीवंतता को दर्शाते हैं और पीला, लाल रंग उस संवेदनशीलता को जिनका तरंग दैर्ध्य ज्यादा है। जीवन की निरंतरता, पवित्रता में स्निग्धता का कार्य करते है संयम, उपकार के प्रतीक, आम और उसके पत्ते। पुष्प इसलिए लगाए जाते हैं कि फूलों की तरह खिलना हमारा मूल स्वभाव है। मिट्टी के लौटे को भी ऊपर लगाया जाता है जो प्रतीक है आकाश का, अनंतता का। इसी की गुड़ी बनाकर द्वार पर फहराई जाती है ताकि हमे याद रहे कि हम उस अनंतता के वंशज हैं। यह ब्रह्म पुराण जो कि एक पवित्र हिंदू ग्रंथ में दर्शाया गया है कि भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन पूरी दुनिया को फिर से विकसित किया था। भगवान विष्णु के मत्स्य अवतार के समय जब पृथ्वी जलमग्न हो गई, तब ब्रह्मा ने फिर से सृजन का काम इसी शुभ दिन की थी। इस दिन ब्रह्मा पूजा का विशेष महत्व है। निर्माण और ईश्वर की करुणा की यह प्रतिकृति हमारे लिए नूतन आयाम खोलती है इसलिए इसे नवसंवत्सर भी कहा जाता है। काल गणना को भास्कराचार्य ने इसी तिथि को ध्यान में रखकर किया था।
काल किसी के हाथ में तो नहीं होता है परंतु उसे सूर्य, पृथ्वी की गति के आधार पर गणना कर उसे सुविधाजनक स्थिति में बनाया गया ताकि जीवन में काल के महत्व को महसूस किया जा सके। गणना की अभूतपूर्व प्रक्रिया के तहत पंचांग का प्रादुर्भाव भी यहीं से है। ग्रह-नक्षत्रों की विभिन्न स्थितियों आधार पर यहीं से ज्योतिषीय गणना कर भविष्य में ताक-झांक कर अशुभ संकेतों को पहचान कर आगाह करना या होना और उसका उपाय करना तभी से प्रचलित हुआ। गुड़ी पड़वा वह अवसर है जो हूणों पर शाकास की विजय का प्रतीक है। गुड़ी पड़वा के पीछे की कहानी और शालिवाहन कैलेंडर के अनुसार, इस दिन हूणों को राजा शालिवाहन ने हराया था। किंवदंती में कहा गया है कि गुड़ी पड़वा के दिन सत्य युग शुरू हुआ। भारतीय पंचांग और काल निर्धारण का आधार विक्रम संवत ही हैं। जिसकी शुरुआत मध्य प्रदेश की उज्जैन नगरी से हुई। यह कैलेंडर राजा विक्रमादित्य के शासन काल में जारी हुआ था तभी इसे विक्रम संवत के नाम से भी जाना जाता है। विक्रमादित्य की जीत के बाद जब उनका राज्यारोहण हुआ तब उन्होंने अपनी प्रजा के तमाम ऋणों को माफ करने की घोषणा करने के साथ ही भारतीय कैलेंडर को जारी किया इसे विक्रम संवत नाम दिया गया। ब्रह्मांड के सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में भी इसका वर्णन है। नवसंवत यानी संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के 27वें एवं 30वें अध्याय के मंत्र क्रमांक क्रमश: 45 व 15 में दिया गया है। प्रकृति का जब स्वरूप बदलता है और नव सृजन को भूमिका मिलती है, जैसे पतझड़ के बाद नए किसलय पेड़ों पर आ जाते हैं और पुराने पत्ते उसी पेड़ के नीचे गिरकर अपने पालक और जन्मदाता पेड़ के लिए उर्वरक बनकर उन्हे जीवंत बनाए रखते हैं और नव किसलयों को यह संदेष भी दे देते हैं कि वे इस ऋण के प्रति सदैव कृतज्ञ रहें। जीवन में हमारे भी जन्मदाता, पालक होते हैं उनका ऋण उतारना सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है जीवन का। जैसे-जैसे हमारे समाज में वृद्धा आश्रम बढ़ रहे हैं जो दर्शाता है कि हम प्रकृति के अनुकूल नहीं जीवन यापन कर पा रहे हैं। इसका सीधा-सीधा परिणाम यह है कि हमारे समाज में तनाव, अवसाद, कुंठा, दबाव, गुस्सा, असंवेदनशीलता की बढ़ौतरी हो रही है।
गुड़ी पड़वा का संबंध फसलों से भी है चैत्र माह में फसलें और उनके साथ अथाह मेहनत दोनों पक कर बाहर आती हैं। पसीने की बूंदों में तो महक होती है वह फसलों के लगे अंबार में दिखाई देती है। धरती मां के प्रति अनुपम कृतज्ञता गुड़ी पड़वा के त्यौहार के माध्यम से ही निकलती है। यह काल भगवान राम से भी जुडा है। इस दिन राम जी का राज्यारोहण किया गया था और कालांतर में युधिश्ठिर का भी राज्यारोहण इसी दिन हुआ था। गुडी पड़वा त्योहार, जो दक्षिण में उगादी और उत्तर में चेटी चंद के रूप में मनाया जाता है, आमतौर पर मार्च के अंत और अप्रैल की शुरुआत के बीच होता है। होला मोहल्ला, विशु, वैशाखी, चेटीचंड, चित्रेय तिरुविजा आदि सभी की तिथि इस नव संवत्सर के आसपास आती हैं। इसी दिन से सतयुग की शुरुआत मानी जाती है। इसी दिन भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार लिया था। इसी दिन से रात्रि की अपेक्षा दिन बड़ा होने लगता है। गोवा और केरल में कोंकणी समुदाय इसे ‘संवत्सर पड़वो’ नाम से मनाता है। कर्नाटक में ये पर्व ‘युगाड़ी’ नाम से जाना जाता है। आन्ध्र प्रदेश और तेलंगाना में ‘गुड़ी पड़वा’ को ‘उगाड़ी’ नाम से मनाते हैं। कश्मीरी हिन्दू इस दिन को ‘नवरेह’ के तौर पर मनाते हैं। मणिपुर में यह दिन ‘सजिबु नोंगमा पानबा’ या ‘मेइतेई चेइराओबा’ कहलाता है। इस दिन चैत्र नवरात्रि भी आरंभ होती है।
नवीनता, नयापन हमारी अप्रत्याशित जिज्ञासा का हिस्सा है। और नव संवत्सर के रूप में प्रकृति हमारे स्वभाव का हिस्सा बनकर आगे आती है। नई फसल, नया कार्य हमारे अंदर नए आत्मविश्वास को भर देता है। भारतीय संस्कृति में नवीनता को इतने वैविध्यपूर्ण लिया गया है कि उसका उल्लास हमारे अंदर जमा कई तरह के मेल को बाहर निकाल देता है। नकारात्मकता, बुराइयां सबसे दूर जाने के लिए कोई ना कोई तो माध्यम चाहिए और त्यौहार इसमे हमारी बेहद मदद करते हैं। त्योहारों में ही मन पिघलते हैं, अनायास वह होने लगता है जो हमने कल्पना भी नहीं की होती है। आपसी रोष, मतभेद, मनभेद उस उल्लास में दबने लगते हैं।