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- अभिषेक कुमार सिंह
देश में बीते दो दशकों में गैरसंचारी बीमारियों यानी कि मोटापा, उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदयरोग से पीड़ित लोगों की संख्या विस्फोटक रूप से बढ़ी है। अक्सर इसके लिए शहरी किस्म की दिनचर्या को जिम्मेदार बताया जाता है, जिसमें शारीरिक श्रम कम होता जा रहा है और बैठे-बैठे खाना-पीना बढ़ रहा है। तथ्यात्मक रूप से ये दावे सही हैं, पर इसमें एक और तथ्य ऐसा है जिस पर प्रायः कम ही नजर जाती है। वह है रेडी टू ईट यानी पैकेटबंद या डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों का बढ़ता सेवन । खाने-पीने के ऐसे सामान प्रायः पैक्ड प्रोसेस्ड फूड रूप में आते हैं, जैसे कि चिप्स कुरकुरे और शीतलपेय आदि इनमें संतृत्प बसा (सैचुरेटेड फैट), नमक, शुगर, सेडियम आदि की मात्रा जरूरत से ज्यादा होती है । किसी पैकेटबंद खाद्य सामग्री में इनकी कितनी मात्रा है और वह कितनी ज्यादा खतरनाक है – इसका पता उपभोक्ताओं को नहीं चल पाता है। इसका कारण यह है कि ये जानकारियां पैकेट के पीछे और छोटे आकार में छपी होती हैं।
खरीदते समय ग्राहकों का ध्यान इन पर नहीं जाता है और वे इसके जरिये गंभीर बीमारियों के शिकार हो जाते हैं, लेकिन अब देश में खाद्य पदार्थों के मानक जांचने और तय करने वाली संस्था भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) पैकेट वाले खाद्य पदार्थों में नमक, चीनी एवं संतृप्त वसा आदि के बारे में बोल्ड अक्षरों के साथ ही बड़े फांट में जानकारी देने को अनिवार्य करने की तैयारी कर रही है। नियामक ने गत दिनों खाद्य पदार्थों के पैकेट पर पोषण संबंधी जानकारी की लेबलिंग में बदलाव को मंजूरी दे दी। इसके लागू होने के बाद बिस्कुट, नमकीन समेत अन्य पैकेन्ड सामान बनाने वाली सभी कंपनियों को उनपर शुगर, फैट, नमक आदि तमाम तत्वों की कलर वार्निंग भी देनी होगी, ताकि उपभोक्ता उनके इस्तेमाल से पहले खतरों के बारे में सचेत हो सकें। नियमों में संशोधन से सुधरेंगे हालात पोषण संबंधी जानकारी लेबल पर ही देने से जुड़े खाद्य सुरक्षा एवं मानक विनियमन, 2020 में संशोधन का मूल उद्देश्य यह है कि पैकेटबंद खाद्य सामग्री खरीदने वाले ग्राहकों का ध्यान उनमें मौजूद तत्वों की ओर जाए और वे अपनी सेहत पर पड़ने वाले असर के अनुसार उस सामान को खरीदने और उपभोग करने का फैसला ले सकें।
इससे संबंधित नियमों को अमल में लाए जाने पर पैकेज्ड फूड कंपनियों को खाद्य पदार्थों में मौजूद कुल चीनी, सैचुरेटेड फैट और सोडियम आदि की जानकारी बड़े अक्षरों में देनी होगी। इस फैसले को वैश्विक स्वास्थ्य जर्नल द लैंसेट की एक रिपोर्ट की रोशनी में देखना चाहिए। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि भारत के शहरी और ग्रामीण इलाकों में भोजन के रूप में ग्रहण की जा रही कैलोरी का औसतन 10 प्रतिशत हिस्सा पैकेटबंद अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड के जरिये लोगों के शरीर में पहुंच रहा है। शहरी परिवारों में तो यह हिस्सा 30 प्रतिशत तक है। देश में ऐसे अल्ट्रा प्रोसेस्ड फूड बेचने में शापिंग माल्स की तुलना में छोटे किराना विक्रेता कहीं ज्यादा आगे हैं। ये चीजें शुगर, नमक और खतरनाक ट्रांस फैट आदि से लबरेज होती हैं। हालांकि इन तत्वों की जानकारी पैकेट के पिछले हिस्से पर होती है, लेकिन वह इतने छोटे अक्षरों में होती है कि उस पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता।
इसके एक समाधान के रूप में एफएसएसआइ ने ताजा पहल की है। संदेश ऐसा जो समझ में आए : देश में बड़ी आबादी ऐसी है जिसे अंग्रेजी या हिंदी लिखे संदेश समझ में नहीं आते, क्योंकि उनकी भाषा कोई और है। साथ ही अक्सर लोगों की शिकायत रहती है कि बेहद छोटे अक्षरों में छपी इन जानकारियों या चेतावनियों को पढ़ना आसान नहीं होता। ऐसे में उन उपायों की जरूरत महसूस हो रही है, जो उपभोक्ताओं को उचित तरीके से संबंधित सूचनाएं दे सकें। जैसे कि सिगरेट, तंबाकू और गुटके के पैकेट के ऊपर कैंसर पैदा करने से जुड़ी तस्वीरेंऔर जानकािरयां दी जाती है। कुछ इसी तरह की तस्वीरें एवं जानकािरयां पैकज्ड फूड के पैकेट पर भी दी जा सकती है िक अिधक चीनी, नमक या वसा खाने से उपभोक्ताओं को क्या समस्याएं हो सकती हैं।