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पहनावे का भारतीयकरण!

  • सोनम लववंशी
    विगत कुछ वर्षों में हमने कई स्तर पर ‘औपनिवेशिक युग के प्रतीकों’ को त्यागा है। इसी कड़ी में अब भारतीय नौसेना गुलामी की एक और निशानी से मुक्ति की दिशा में बढ़ गई है। जो भारत और भारतीयता के लिए एक सुखद पहल है। दरअसल किसी भी देश की बुनियाद, वहां की संस्कृति और संस्कार पर टिके होते हैं। ऐसे में भारतीय नौसेना की मेस पोशाक के रूप में कुर्ता-पैजामा की एंट्री होना एक स्वागतयोग्य कदम है। कुर्ता-पैजामा हमारी संस्कृति को दर्शाते हैं और यह हमारी नैतिक और सामाजिक जिम्मेदारी है कि हम उसे अक्षुण्ण बनाए रखे।
    फौज में भारतीय परंपराओं को अपनाना कहीं ना कहीं औपनिवेशिक दौर से छुटकारा पाना ही तो है। पहनावे और संस्कृति से हमारा इतिहास सदियों से जुड़ा रहा है। हमारे भारतीय परिवेश में जितनी विविधता है उसकी झलक हमारी संस्कृति व पहनावे में भी देखने को मिलती है। किसी भी समाज, उसकी संस्कृति को जानना हो तो वहां के दैनिक जीवन के तौर-तरीके और वेशभूषा को देखकर वहां की सभ्यता और संस्कारों का पता लगाया जा सकता है।
    हमारे देश में अलग-अलग धर्म जाति और नस्ल के लोग रहते हैं। जिन्होंने भारतीय कल्चर से कुछ चीजें अपनाई है तो अपने कल्चर की कई चीजें दी भी है। जिसकी बानगी भारत की संस्कृति रहन-सहन, बोल-चाल, खान-पान और लिबास में बखूबी दिखाई देती है। जिस कुर्ता पजामा को नौसैनिकों को मेस में पहनने के लिए कहा गया है उसका अपना इतिहास भी कम रौचक नहीं है। कुर्ता-पजामा, सलवार कमीज का ही एक रूप है जो मुगलों की पोशाक हुआ करती थी। जबकि शेरवानी भारत में तुर्की और फ़ारसी लोगों के साथ आई थी।
    कपड़े सदियों से सामाजिक रुतबे की शान रहे हैं। राजा रजवाड़े हो या शाही परिवार, दरबारी या आम इंसान सब का अपना अलग-अलग पहनावा हुआ करता था, कपड़ों से लोगों की पहचान की जाती थी। ग़ुलामी के दौर में कुछ भारतीय ऐसे भी थे जो अंग्रेजों की तरह कपड़े पहनकर खुद को सभ्य दिखाते थे। अंग्रेजों ने अपने फ़ायदे के लिए जब भारतीय कपड़ा उद्योग को तबाह करना चाहा तब गांधी जी ने विदेशी कपड़ों का बहिष्कार किया। और खादी के कपड़े और स्वदेशी वस्तुओं को प्राथमिकता दी। ये आंदोलन कपड़ों के बहिष्कार से शुरू हुआ लेकिन आगे चलकर देश की आज़ादी के आंदोलन का प्रतीक बन गया।
    कपड़ों के मामले में भारतीय परंपरा और संस्कृति किसी विरासत से कम नहीं रही , फिर चाहे कोई भी काल क्यों न हो? वर्तमान दौर में भी अमीरों के कपड़े चर्चा का विषय बने रहते हैं। बड़े-बड़े ब्रांड सेलिब्रिटी से अपने कपड़ों की नुमाइश कराते है ताकि युवा उस फ़ैशन की तरफ आकर्षित हो सके। आज आधुनिकता की चकाचौंध और पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव में हमारा पहनावा काफ़ी हद तक बदल गया है। विशेष रूप से विदेशी वेशभूषा का नितांत बिगड़ा स्वरूप पिछले कुछ वर्षों में भारत को अपने रंग में रंगता जा रहा है। जो भारतीय संस्कृति के लिए सही नहीं है।
    एक समय अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा व्यवस्था को समाप्त करना चाहा ताकि भारतीयों पर राज कर सके, ठीक उसी प्रकार आजकल बाजारों में युवाओं को नये ट्रेंड के नाम पर बेतरतीब लिबास परोसे जा रहे हैं। आश्चर्य की बात है कि युवा फ़ैशन के नाम पर उसे हंसी ख़ुशी अपना भी रहें हैं। आज अगर युवा अपनी संस्कृति और सभ्यता के अनुरूप पारम्परिक पोशाक पहने तो उसे पिछड़ा हुआ महसूस कराया जाता है।
    आज के युवाओं को स्वामी विवेकानंद जी के विचारों को न केवल सुनना होगा बल्कि उन विचारों पर अमल भी करना होगा। वरना वो समय दूर नहीं जब हम मानसिक ग़ुलामी की जंजीरों में जकड़ लिए जाएंगे। सदियों से भारतीय बाजार, विदेशी ब्रांड्स के लिए एक मुनाफे का बाजार रहा है, क्योंकि यहां सस्ते दामों में कुछ भी बेचा जा सकता है। बाजारवाद का प्रभाव युवाओं पर हावी हो गया है। आज नित नये शॉपिंग मॉल, ट्रेंड्स और विज्ञापनों की भरमार है। जो युवाओं को अपने जाल में फंसा रहे हैं और भारतीय युवा उनके अधनंगे फ़ैशन को अपना स्टेट्स मानने लगे। सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय संस्कृति में इस तरह की नग्नता का प्रदर्शन सही है! सोच कर देखिए? फैशन के नाम पर अश्लीलता फैलाने वाली युवा पीढ़ी को सही मार्ग पर लाने के लिए कहीं न कहीं से तो शुरुआत करनी ही थी। जो कि वर्तमान काल में होती दिख रही है। ऐसे में वो दिन दूर नहीं जब भारतीय सैनिक युवाओं के रोल मॉडल होंगे। उनकी पोशाक पर भारतीय गर्व महसूस करेंगे।

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