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हिन्दू – अमेरिकन के ऊपर हिंसा की बढ़ती घटनाएं

  • राजेश पाठक
    अमेरिका में आज प्रवासी भारतीय छात्रों पर मारक हमले लगता है केवल आंकड़े बनकर रह गए हैं। बताया तो जाता है की ये कहीं अधिक है, पर अधिकृत सूत्रों के अनुसार अब तक मारे गए हिन्दू छात्रों की संख्या 10 तक पहुँच चुकी है। इसका सामना करने के लायक बनने के लिए ये समझने लेने की जरूरत है कि अमेरिका में हिन्दू पहचान समाप्त कर डालने की सुनियोजित कोशिश हुई है और इस कोशिश का केंद्र उच्च-शिक्षण केंद्र बनकर उभरें हैं । पर अब इस संकट नें बता दिया है कि इससे बाहर निकलने का समय आ गया है। आज स्थिति ये है कि कई यूनिवर्सिटी में इंडियन स्टूडेंट एसोसिएशन को गायब ही कर दिया गया है।
    साउथ एशियाई स्टूडेंट्स एसोसिएशन मात्र ही अस्तित्व में है , जिसमें पाकिस्तान और बंगलादेश भी शामिल हैं । हमारे और इन दोनों देशों के बीच क्या समानता है ,जबकि वहां मौजूद जेहादी तत्व आंतकवाद निर्यात कर रहें हैं भारत में। स्पस्ट है, आज अमेरिका में इंडियन या भारतीय ही नहीं , बल्कि हिन्दू- स्टूडेंट्स एसोसिएशन की भी जरूरत आन पड़ी है। जब इन्हीं शिक्षण संस्थानों में यहूदी, मुस्लिम, कोरियाई , चीनी स्टूडेंट यूनियन हो सकती हैं तो हिन्दू यूनियन क्यूँ नहीं। अति ‘ब्रॉड-माइंडेड’ दिखने की प्रवृति से बहार निकलना ही ठीक होगा। हमारी अपनी जनसँख्या इतनी विशाल है तो नकली-भाईचारा वाद के चक्कर में पढ़ने की जरूरत ही क्या ।
    हमारी पहचान को अपृहत करने का ये सुनियोजित षड्यंत्र है, जो कि आज हर स्तर पर अमेरिका में देखा जा सकता है । हालत ये है कि अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में कंबोडिया, वियतनाम , जापान के नाम से तो फिल्म प्रदर्शित होती हैं , पर भारत की फ़िल्में साउथ एशियाई की बता कर दिखाई जाती हैं । वो भी तब जबकि इस श्रेणी में लगभग हर दूसरी फिल्म भारतीय हुआ करती है । सोमालिया की इलहान उमर निर्भीक होकर कहती है कि वो सोमालियन पहले है, अमेरिकन बाद में और वो इस्लामिक कानून पहले मानेगी , अमेरिका के बाद में! ये बोलकर वो आसानी से निकल जाती है , उसका कुछ भी नहीं बिगड़ता । हिंदुओं को भी अपनी पहचान के प्रति इतना ही प्रखर होना होगा । सबसे जरूरी अपनी हिन्दू अमेरिकन की पहचान को स्थापित करना होगा। सुनियोजित तरीके से स्थापित साउथ एशियन का हमको हिस्सा बताने के विरुद्ध संगठित हो खड़े होकर । विश्वविद्यालयों में हिन्दू- कौंसिल का प्रावधान होता जरूर हैं , लेकिन अपने-अपने में बंटे रहने के कारण उसका महत्त्व खो कर रह जाता है।
    क़तर जैसे देश पोषित वैश्विक जिहादी संगठन -सोरोस – चीन समर्थित लेफ्ट-लिबरल समूहों नें अमेरिका-यूरोप के विश्व विद्यालयों, शोध संस्थानों, मानव अधिकारवादी संगठनों, कथित फाउंडेशन आदि एनजीओ में अराजक रुझान रखने वाले समूहों के माध्यम से अनुदान पहुंचाकर अपनी मजबूत दखल स्थापित कर रखी है । वर्तमान स्थिति को यहाँ तक पहुँचाने में इन सब की कहीं न कहीं अपनी-अपनी भूमिका रही हैं। इसका भी ध्यान रखकर चलना पड़ेगा और साथ ही उसका भी जैसा पूर्व पेप्सिको की चेयरपर्स इंद्रा नुई कहती हैं – ‘ अमेरिका में आने से पहले ये जरूर देख ले कि किस यूनिवर्सिटी में , कौनसा विषय पढ़ने के लिए इस देश को चुन रहे हो। ये पढ़ायी इतनी सस्ती नहीं है।’
    इस बात को आगे बढ़ाते हुए अमेरिका निवासरत पत्रकारिता से जुड़े विभूति झा कहते हैं, अमेरिका यदि पढ़ने आते हैं तो साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, मेडिसिन (STEM) को छोड़कर यदि कला, मानविकी, साहित्य जैसे किसी विषय को लेकर इतनी दूर निकलते हैं तो इतना समझ लीजिए कि वो जबरदस्त ‘वोकिस्म’ के नाम पर विकृत हो चुका है। इसलिए इतना पैसा लगाकर दिमाग को भृष्ट करवाने के लिए माता-पिता को चाहिए कि वो अपने बच्चे को अमेरिका न भेजें तो ही ठीक।
  • अमेरिका में आज प्रवासी भारतीय छात्रों पर मारक हमले लगता है केवल आंकड़े बनकर रह गए हैं। बताया तो जाता है की ये कहीं अधिक है, पर अधिकृत सूत्रों के अनुसार अब तक मारे गए हिन्दू छात्रों की संख्या 10 तक पहुँच चुकी है। इसका सामना करने के लायक बनने के लिए ये समझने लेने की जरूरत है कि अमेरिका में हिन्दू पहचान समाप्त कर डालने की सुनियोजित कोशिश हुई है और इस कोशिश का केंद्र उच्च-शिक्षण केंद्र बनकर उभरें हैं । पर अब इस संकट नें बता दिया है कि इससे बाहर निकलने का समय आ गया है। आज स्थिति ये है कि कई यूनिवर्सिटी में इंडियन स्टूडेंट एसोसिएशन को गायब ही कर दिया गया है।
    साउथ एशियाई स्टूडेंट्स एसोसिएशन मात्र ही अस्तित्व में है , जिसमें पाकिस्तान और बंगलादेश भी शामिल हैं । हमारे और इन दोनों देशों के बीच क्या समानता है ,जबकि वहां मौजूद जेहादी तत्व आंतकवाद निर्यात कर रहें हैं भारत में। स्पस्ट है, आज अमेरिका में इंडियन या भारतीय ही नहीं , बल्कि हिन्दू- स्टूडेंट्स एसोसिएशन की भी जरूरत आन पड़ी है। जब इन्हीं शिक्षण संस्थानों में यहूदी, मुस्लिम, कोरियाई , चीनी स्टूडेंट यूनियन हो सकती हैं तो हिन्दू यूनियन क्यूँ नहीं। अति ‘ब्रॉड-माइंडेड’ दिखने की प्रवृति से बहार निकलना ही ठीक होगा। हमारी अपनी जनसँख्या इतनी विशाल है तो नकली-भाईचारा वाद के चक्कर में पढ़ने की जरूरत ही क्या ।
    हमारी पहचान को अपृहत करने का ये सुनियोजित षड्यंत्र है, जो कि आज हर स्तर पर अमेरिका में देखा जा सकता है । हालत ये है कि अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में कंबोडिया, वियतनाम , जापान के नाम से तो फिल्म प्रदर्शित होती हैं , पर भारत की फ़िल्में साउथ एशियाई की बता कर दिखाई जाती हैं । वो भी तब जबकि इस श्रेणी में लगभग हर दूसरी फिल्म भारतीय हुआ करती है । सोमालिया की इलहान उमर निर्भीक होकर कहती है कि वो सोमालियन पहले है, अमेरिकन बाद में और वो इस्लामिक कानून पहले मानेगी , अमेरिका के बाद में! ये बोलकर वो आसानी से निकल जाती है , उसका कुछ भी नहीं बिगड़ता । हिंदुओं को भी अपनी पहचान के प्रति इतना ही प्रखर होना होगा । सबसे जरूरी अपनी हिन्दू अमेरिकन की पहचान को स्थापित करना होगा। सुनियोजित तरीके से स्थापित साउथ एशियन का हमको हिस्सा बताने के विरुद्ध संगठित हो खड़े होकर । विश्वविद्यालयों में हिन्दू- कौंसिल का प्रावधान होता जरूर हैं , लेकिन अपने-अपने में बंटे रहने के कारण उसका महत्त्व खो कर रह जाता है।
    क़तर जैसे देश पोषित वैश्विक जिहादी संगठन -सोरोस – चीन समर्थित लेफ्ट-लिबरल समूहों नें अमेरिका-यूरोप के विश्व विद्यालयों, शोध संस्थानों, मानव अधिकारवादी संगठनों, कथित फाउंडेशन आदि एनजीओ में अराजक रुझान रखने वाले समूहों के माध्यम से अनुदान पहुंचाकर अपनी मजबूत दखल स्थापित कर रखी है । वर्तमान स्थिति को यहाँ तक पहुँचाने में इन सब की कहीं न कहीं अपनी-अपनी भूमिका रही हैं। इसका भी ध्यान रखकर चलना पड़ेगा और साथ ही उसका भी जैसा पूर्व पेप्सिको की चेयरपर्स इंद्रा नुई कहती हैं – ‘ अमेरिका में आने से पहले ये जरूर देख ले कि किस यूनिवर्सिटी में , कौनसा विषय पढ़ने के लिए इस देश को चुन रहे हो। ये पढ़ायी इतनी सस्ती नहीं है।’
    इस बात को आगे बढ़ाते हुए अमेरिका निवासरत पत्रकारिता से जुड़े विभूति झा कहते हैं, अमेरिका यदि पढ़ने आते हैं तो साइंस, टेक्नोलॉजी, इंजीनियरिंग, मेडिसिन (STEM) को छोड़कर यदि कला, मानविकी, साहित्य जैसे किसी विषय को लेकर इतनी दूर निकलते हैं तो इतना समझ लीजिए कि वो जबरदस्त ‘वोकिस्म’ के नाम पर विकृत हो चुका है। इसलिए इतना पैसा लगाकर दिमाग को भृष्ट करवाने के लिए माता-पिता को चाहिए कि वो अपने बच्चे को अमेरिका न भेजें तो ही ठीक।

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