ललित गर्ग
पर्यावरण-संरक्षण, स्वास्थ्य, आर्थिक विकास एवं खाद्य सुरक्षा को प्रोत्साहन देने के लिये हर साल 10 फरवरी का दिन दुनियाभर में विश्व दलहन दिवस के रूप में मनाया जाता है। जिसका मकसद लोगों को दालों के फायदे और महत्व के बारे में बताना होता है। दालें, जिनमें दाल, छोले, बीन्स और मटर शामिल हैं, जो प्रोटीन से लेकर फाइबर, आयरन जैसे कई जरूरी पोषक तत्वों के साथ विटामिन्स और मिनरल्स का भी खजाना होती हैं। दालें सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि दुनियाभर में भी खानपान का जरूरी हिस्सा हैं। शाकाहारी जीवनशैली के लिए तो दालें ही प्रोटीन का सबसे बड़ा स्त्रोत हैं। कम वसा वाले और कम सोडियम वाले इस ऑप्शन को डाइट में शामिल कर न केवल असाध्य बीमारियों से लड़ा जा सकता है बल्कि जलवायु परिवर्तन एवं पर्यावरण के संकट से भी बचा जा सकता है। इस साल 2024 में विश्व दलहन दिवस की थीम “दालेंः पौष्टिक मिट्टी और लोगों” रखी गई है। इस थीम का मतलब स्वस्थ मिट्टी और स्वस्थ लोगों की कुंजी के रूप में दालों के बारे में जागरूकता बढ़ाना है।
विश्व स्तर पर दलहन की उपयोगिता एवं प्रासंगिता को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र की महासभा द्वारा 20 दिसंबर 2013 को अंतर्राष्ट्रीय दलहन दिवस मानने का निर्णय लिया गया, जो पहली बार साल 2016 में मनाया गया था। बाद में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 10 फरवरी 2019 को विश्व दाल दिवस के रूप में मनाने के लिए प्रस्ताव पारित किया था। संयुक्त राष्ट्र संघ के सामने इस दिवस को मनाने का उद्देश्य दालों का उत्पादन बढ़ाकर दुनिया में गरीब कुपोषित देशों को पोषक तत्वों से भरपूर खाना उपलब्ध करवाना था क्योंकि दालों में भरपूर मात्रा में पोषक तत्व पाए जाते हैं। दालें न केवल पोषक हैं, वे विश्व की भूख और गरीबी को मिटाने की दिशा में स्थायी खाद्य प्रणालियों के विकास में भी योगभूत हैं। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, यह सतत विकास के लिए अपने 2030 एजेंडा को हासिल करने के लिए एक प्रभावी रणनीति है, जिसका उद्देश्य वैश्विक शांति को मजबूत करना और खाद्य सुरक्षा को बढ़ाना है। मांसाहार पर्यावरण के सम्मुख एक गंभीर चुनौती बनता जा रहा है, क्योंकि एक किलो दाल के उत्पादन के लिए 1250 लीटर पानी की जरूरत होती है, जबकि एक किलो बीफ के लिए 13,000 लीटर की जरूरत होती है। देश-विदेश में भी दालों का प्रचलन एवं महत्व कम नहीं है, लेकिन परम्परागत भारतीय भोजन में पौष्टिकता के कारण दालों का विशेष महत्व है। 2014 में प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते ही नरेंद्र मोदी ने दलहन क्रांति की कवायद शुरू कर दी। सरकार ने दालों के घरेलू उत्पादन बढ़ाने के उपाय सुझाने हेतु सुब्रमण्यम समिति का गठन किया। समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि लंबे समय से भारतीय खेती में अन्य अनाजों की तुलना में दालों के साथ सौतेला व्यवहार किया जाता रहा है। महंगी दालों ने आम आदमी की थाली से दाल को तकरीबन दूर ही कर दिया था, लेकिन मोदी की कोशिशों से अब आम आदमी की थाली में दालें भरपूर मात्रा आ गई हैं। मोदी सरकार द्वारा दलहनी फसलों के घरेलू उत्पादन को बढ़ाने के प्रयासों का ही नतीजा है कि 2015-16 में जहां 163 लाख टन दालों का उत्पादन हुआ था, वहीं दो साल बाद 2017-18 में यह बढ़कर 239.5 लाख टन हो गया। इससे दालों का आयात तेजी से कम हुआ।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दालों के महत्व को देखते हुए इसके उपयोग को प्रोत्साहन देने के लिये अभियान चला रखा है। ‘दाल रोटी खाओ-प्रभु के गुण गाओ’ लोकोक्ति से स्पष्ट है कि दालें सम्पूर्ण भोजन के रूप में हमारी जीवन संस्कृति एवं समृद्ध खानपान में शामिल रही हैं। इतना ही नहीं, देश के अलग-अलग भू-भागों में दालों की विभिन्नताओं के साथ-साथ उनके उपयोग की भी विशिष्ट प्रकृति रही है। जबकि भारतीय खेती की बदहाली की एक बड़ी वजह एकांगी कृषि विकास नीतियां रही हैं।
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