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जमानत से कितना बदलेगा चुनावी माहौल!

  • उमेश चतुर्वेदी
    कानून और राजनीति विज्ञान में पढ़ाया जाता है कि कानून और संविधान के उपबंधों आदि की व्याख्या का अधिकार सिर्फ सुप्रीम कोर्ट को ही है। इसी के साथ ही यह स्थापित अवधारणा है कि सर्वोच्च न्यायपालिका के फैसले कानून के समान ही प्रभावी होते हैं। शराब नीति मामले में एक अप्रैल से जेल में बंद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिलने के दूरगामी असर होंगे। कानूनी नजरिए से यह जमानत आने वाले दिनों में ऐसे ही मामलों के लिए दबाव बनेगा। दूसरा मामला राजनीतिक होगा। इस जमानत के बाद केजरीवाल और उनकी पार्टी आक्रामक होगी।
    वह नैरेटिव स्थापित करने की कोशिश करेगी कि भारतीय जनता पार्टी और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार चूंकि राजनीतिक रूप से कमजोर पड़ रही है, उसकी वजह से वह अपने राजनीतिक दुश्मनों को जेल में डाल रही है। केजरीवाल की जमानत का कानूनी प्रभाव आने वाले दिनों में दो तरह की वैचारिकी को स्थापित करेगा। भारतीय कानून और संवैधानिक व्यवस्था यह जताने का कोई मौका नहीं छोड़ती कि कानून के सामने सभी बराबर हैं, चाहे कोई विशिष्ट हो या आम। लेकिन महज चुनाव प्रचार के लिए किसी को जमानत मिलने का आधार मोटे तौर पर यही स्थापित करता है कि देश में कानून के सामने बराबरी का दावा कमजोर है। सवाल यह है कि क्या कोई चुनाव लड़ रहा सामान्य आरोपी या व्यक्ति महज चुनाव प्रचार के लिए जमानत पा सकेगा।
    अगर भविष्य में ऐसा होता है तो कानून के सामने बराबरी की अवधारणा सही साबित होगी। अपने यहां पंचायत से लेकर देश की पंचायत तक के चुनाव होते रहते हैं। इन चुनावों में तमाम तरह के अपराधी भी शामिल होते रहे हैं। आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग अपने अपराधों की कालिख को राजनीतिक हैसियत हासिल करके मिटाने की कोशिश करते रहे हैं। ये लोग आपराधिक छवि को राजनीतिक हैसियत और चुनावी जीत से धुंधली बनाते रहे हैं। यही वजह है कि हर चुनाव में आपराधिक पृष्ठभूमि के लोग अपनी सियासी किस्मत आजमाते रहते हैं। उनमें से कई जेलों में होते हैं तो कई पर जेल की तलवार लटकी होती है। चूंकि बड़ी अदालत के फैसले कानून की तरह ही प्रभावी होते हैं, वे कानूनी और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा भी होते हैं, इस लिहाज से अब आने वाले दिनों में ऐसे अपराधी भी केजरीवाल को मिली अंतरिम जमानत के आधार पर जमानत मांगेंगे। सवाल यह है कि क्या अदालतें उनके साथ भी केजरीवाल जैसा ही व्यवहार करेंगी या उनकी मांग को खारिज करेंगी।
    अगर उन अपराधियों को जमानत मिलेगी तो निश्चित तौर पर वे चुनावी प्रक्रिया को प्रभावित करेंगे और नहीं मिली तो इस नैरेटिव को बल मिलेगा कि कानून के सामने विशिष्ट और सामान्य के बराबर होने का दावा खोखला है। केजरीवाल को चुनाव प्रचार के आधार पर जमानत वाली सुनवाई के दौरान खालिस्तानी आतंकवादी अमृतपाल सिंह का भी मामला उठा। अमृतपाल पंजाब में बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ने की तैयारी में है। अगर वह चुनाव लड़ता है तो वह भी इस आधार पर जमानत मांग सकेगा कि चुनाव पांच साल में होते हैं। तब देखना होगा कि देश की अदालतों का क्या रूख रहता है। बहरहाल इतना तय है कि ऐसे मामले से निबटना अदालतों के लिए आसान नहीं रहेगा। वैसे प्रवर्तन निदेशालय ने केजरीवाल की जमानत का विरोध करते हुए अमृतपाल का भी मामला उठाया। यह बात और है कि सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की है।
    वैसे शराब नीति मामले में केजरीवाल के सबसे निकट सहयोगी मनीष सिसोदिया जेल में हैं। अब हो सकता है कि आम आदमी पार्टी मनीष के लिए भी चुनाव प्रचार के लिए जमानत की मांग करे। चूंकि मनीष भी केजरीवाल जैसे ही आम आदमी पार्टी के महत्वपूर्ण नेता हैं, इसलिए वे भी केजरीवाल को मिली जमानत के आधार पर जमानत की मांग कर सकती है। सवाल यह हो सकता है कि जब पांच साल में एक बार आने वाले चुनाव के प्रचार के लिए केजरीवाल को जमानत मिल सकती है तो मनीष को क्यों नहीं? अब देखना होगा कि मनीष को लेकर अदालत का रूख कैसा रहता है? इस आधार पर झारखंड के मुख्यमंत्री रहे हेमंत सोरेन के लिए भी अदालत में जमानत की मांग की जा सकती है। वैसे केजरीवाल भले ही ज्यादा चर्चित हों, लेकिन वे केंद्र शासित प्रदेश के मुखिया हैं। जबकि हेमंत सोरेन आम आदमी पार्टी से कहीं ज्यादा पुरानी पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा के वरिष्ठ नेता हैं, झारखंड जैसे पूर्ण राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं।
    इस लिहाज से वे भी चुनाव प्रचार को आधार बनाकर जमानत मांग सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो अदालत का रूख क्या होगा, यह देखने वाली बात होगी। यहां ध्यान देने की बात यह है कि चारा घोटाले में सजा काट रहे राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव को सुप्रीम कोर्ट पहले से ही जमानत दे चुका है। बेशक उनकी जमानत का आधार चुनाव प्रचार की बजाय उनका स्वास्थ्य रहा है। लालू चूंकि कानूनन ऐसे सजायाफ्ता हैं, जो चुनाव नहीं लड़ सकता। लेकिन उनके चुनाव प्रचार पर रोक नहीं है। लिहाजा वे सीमित तरीके से ही राजनीतिक हस्तक्षेप कर ही रहे हैं। अपने बयानों के जरिए कम से कम बिहार की राजनीति के लिए लालू केंद्रबिंदु बने ही हुए हैं।
    केजरीवाल का मामला अलग है। चूंकि उन्हें जमानत चुनाव प्रचार के ही आधार पर मिली है तो यह तय है कि वे ना सिर्फ चुनाव प्रचार करेंगे, बल्कि अपने ढंग से नरेंद्र मोदी की अगुआई वाले एनडीए पर राजनीतिक सवालों की बौछार भी करेंगे। केजरीवाल को बेशक अंतरिम जमानत ही मिली है, लेकिन यह तय है कि चुनाव मैदान में उनकी उपस्थिति ना सिर्फ उनकी पार्टी, बल्कि इंडिया गठबंधन के लिए भी मददगार होगी। लिहाजा अब समूचे इंडिया गठबंधन के आक्रामक होने के आसार बढ़ गए हैं। भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और गृहमंत्री अपने आक्रामक चुनावी प्रचार और राजनीतिक रणनीति बनाने के उस्ताद माने जाते हैं। ऐसे में देखना यह होगा कि केजरीवाल के जेल से बाहर आने के बाद बदले राजनीतिक अंदाज और समीकरण की चुनौती से किस तरह जूझते हैं।

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