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- मनोज कुमार
कश्मीर से लौटा हूँ। दो दिन हुए। मैंने सोचा कि लोग कश्मीर के बारे में भिन्न-भिन्न बातें करते हैं तो स्वयं ही जाकर देख लिया जाये। कश्मीर में पहले भी हम गये थे पर इस बार वह हमें ज़्यादा खुला खुला लगा। पिछले बार तो जब हम गये थे तो हमारे ठहरने के दौरान ही वहाँ लाल चौक पर बम विस्फोट हुआ था पर इस बार तो श्रीनगर में ज़बरदस्त ट्रेफ़िक था। कई इलाक़ों में तो जाम से निकलते निकलते एक घंटा लग गया। पर किसी के मन में कोई तनाव न था। हम लोग पुलवामा, पहलगाम और गुलमर्ग भी गये और रात को देर होटल लौटे। लेकिन सब कुछ सामान्य था। ऐसे जाम तो दिल्ली में भी लगते देखे हैं।
तो धारा 370 वाले निर्णय ने इस राज्य पर चढ़ा जूड़ी का बुख़ार उतार-सा दिया है। व्यापार बहुत बढ़ गया है। बाज़ारों में खूब गहमागहमी है। श्रीनगर का विकास भी खूब तेजी से हो रहा है। हालाँकि एक नागरिक ने यह कहा कि यह तो जी-20 के कारण हुआ और वही एरिया विकसित हुए और वहीं सड़कें बनी जहाँ जी-20 के मेहमान आने थे।पर अन्य किसी ने ऐसे पक्षपात की बात न की।
एक जो बात खास हमने नोट की कि पिछली बार की तरह किसी ने इस बार हमसे नहीं कहा कि आप इंडिया से आए हैं। बल्कि बात बात में जिस तरह से वे कश्मीर की अच्छाइयों की पुष्टि हम लोगों से माँग रहे थे, उससे लगा कि वे चाहते हैं कि हम लोग फिर फिर आएँ। लड़कियाँ ज़्यादातर हिजाब पहने थीं। पर बहुत-सी न भी पहनी थीं। और कोई इस पर बहुत अलग से उनका नोट नहीं ले रहा था।
किसी ने भूलकर भी वहाँ के राजनीतिक परिवारों की चर्चा नहीं की। कि यदि उनमें से कुछ इतिहास के कूड़ेदान में चले भी गए तो आम जनता को कोई फर्क ही नहीं पड़ा। हमने कहा कि हम तो शाकाहारी हैं, या एक बार कहा कि व्रत है या शंकराचार्य का मंदिर जाने की इच्छा प्रकट की तो उत्साहपूर्वक हमारी रुचियों के अनुसार व्यवस्था भी की गई। न हमें अपनी पहचान बताने में कोई असहजता लगी न वह बताने में उन्हें।
कश्मीर बदल रहा है। अब लोग शिक्षा और व्यापार के लाभ प्राप्त करने में ज़्यादा दिलचस्पी दिखाते हैं।
पहलगाम को भेड़ से जोड़ना ज़्यादा उचित है या बैल से? इसे village of shepherds कह कर क्या किसी प्राचीन स्मृति को मिटाया जा रहा है। या हो सकता है कि किसी समय यहाँ भेड़ चराने वाले ही रहे हों। भेड़ चराने वाले किसी बूटा मलिक ने ही अमरनाथ गुफा ढूँढी थी, यह बताया जाता है। किन्तु आधुनिक इतिहासकार इस पर भरोसा नहीं करते। जब राजतरंगिणी, बृंगेशसंहिता आदि में इसका उल्लेख है, तब इसे 19 वीं सदी की खोज बताने की अलग चतुराइयाँ हैं। पर क्या पता कि यह बैलगाँव हो। और यह बैल वह महान नंदी हों जो शिव-वाहन थे।
परिस्थितिजन्य साक्ष्य तो ऐसे ही हैं। जैसे पहलगाम में बैसारन नामक एक जगह है जिसे अब मिनी स्विट्ज़रलैंड कहने लगे हैं। पर बैसारन नाम वृषारण्य का ही देसीकरण है। वृष यह वृषध्वज का ही रहा था। एक स्थानीय कथा के अनुसार शिव अमरनाथ जाते समय अपने वृष को यहाँ छोड़ गये थे। शिव ने अपने चंद्र को जहाँ छोड़ा था, वह स्थान चंदरवाड़ी के नाम से आज भी है। कुछ लोग कहते हैं कि वह शिव के मस्तक का चंदन था, जो यहाँ अर्पित हुआ और इसी से यह चंदनवाड़ी है। जिस स्थान पर उन्होंने अपने साँप को उतारा, वह शेषनाग नामक स्थान भी यहाँ है। और भी छोटे छोटे उनके शरीर पर जो नाग थे, वे अनंतनाग में छूटे।
एक एक कर शिव निर्भार हुए। तब वे अमरनाथ पहुँचे। कहते हैं कि वे अमरत्व की कथा एकदम एकान्त में पार्वती जी को सुनाने जा रहे थे।
उस कथा से यह पता लगता है कि अमरत्व के पहले समस्त भारों से मुक्त होना पड़ता है। Free from all encumbrances.
पर हम भी क्या लोग हैं। राह में एक मटन नामक स्थान पड़ा जहाँ एक मटन मंदिर था। यह नाम ही विस्मित करता था। मटन और मंदिर। दोनों विपरीतताएँ। हमारा संभ्रम दूर किया मटन में अकेले बचे पंडित परिवार की मुक्ति शर्मा ने। वे लेखिका हैं और उनका और मेरी पत्नी का नाम एक-सा -मुक्ति- होने से दोनों instant सहेलियाँ बन गईं। वे हमें मंदिर ले गईं और बताया कि यह असल में मार्तण्ड मंदिर था और है। सूर्य मंदिर। यह आठवीं शती का बताया जाता है।हालाँकि मंदिर की नींव चौथी शती ईसा पूर्व की है।
कल्हण कहते हैं कि मंदिर ललितादित्य मुक्तापीड ने बनाया था। सिकंदर बुतशिकन के द्वारा इसे भारी क्षति पहुँचाई गई बताया जाता है।
इस मंदिर में जो कुंड है, उसमें जो मछलियाँ हैं वे भी कुछ अलग प्रकार की हैं। कहते हैं कि उनमें पितरों की आत्माएँ हैं और यहाँ पितृ-तर्पण के लिए लोग दूर दूर से चलकर आते भी हैं।
यह मटन या मट्टन लिद्दर नदी के किनारे बसा है पर मुझे तो संस्कृति से छूटने पर या लोक-प्रवाह में चीजों के नाम बिगड़कर क्या हो जाते हैं, यही देखकर आश्चर्य होता है। यह नदी लंबोदरी नदी थी। अब लिद्दर हो गई।