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चुनावी कोलाहल के बीच नए कश्मीर की आस

  • अमिताभ मट्टू
    जम्मू और कश्मीर में चुनाव एक लोकतांत्रिक अनुष्ठान से कहीं अधिक है। प्रचलित कल्पना में, यहां का परिदृश्य तगड़ा प्रतीक रहा है–विश्वास और विश्वासघात का, विरोध और स्वीकार्यता, आशा और मोहभंग, भरोसा और अनिश्चितता का। लेकिन कश्मीर ने शायद ही कभी प्रतिस्पर्धात्मक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का इतना प्रबल उत्सव देखा होगा जितना मौजूदा आम चुनाव में हो गुजरा। समूची नयनाभिराम घाटी में बड़ी-बड़ी चुनावी रैलियां और रोड शो हुए, जिनमें कश्मीर के अनेकानेक निर्भीक, भावुक, रंगीले और ‘घड़ी में तोला घड़ी में माशा’ मिज़ाज रखने वाले नेतागण इस चुनावी संग्राम में शामिल होकर उस व्यवस्था का निर्माण करने में जुट गए, जो वर्तमान में केंद्रशासित प्रदेश और पूर्व में पूर्ण राज्य रहे इस खित्ते के इतिहास में नया मोड़ लाने वाली हो सकती है।
    अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद इस पहले संसदीय चुनाव में प्रचार का मुख्य मुद्दा ‘विशेष प्रावधान’ खत्म होना और सूबे का दर्जा पूर्ण राज्य से घटकर केंद्रशासित प्रदेश रह जाना था। लेकिन इसे संयोग कहें या कुछ और, चुनाव निष्पक्षता के मामले में (अपेक्षाकृत भयमुक्त माहौल में) कश्मीर में शेष भारत में सबसे बेहतरीन नमूना रहा। यदि सच में नया कश्मीर चाहिए और इस माहौल को आगे बढ़ाना और बनाए रखना है तो सही वक्त यही है और इसके लिए विधानसभा चुनाव भी इसी तत्परता से करवाए जाएं।
    जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र की जड़ें विरल रही हैं। वर्ष 1950 और 60 के दशक में, जम्मू में करवाए गए छद्म चुनावों को 1947 में दिए गए भरोसे के ‘विश्वासघात’ की तरह देखा जाता था। वर्ष 1977 के चुनाव में, जो कि आजादी के बाद से, इस भूतपूर्व सूबे का सबसे साफ-सुथरा चुनाव था, विश्वास एवं स्वीकार्यता का प्रतीक बना। वर्ष 1987 में हुआ चुनाव न तो मुक्त था, न ही निष्पक्ष, इसने दशकों तक चलने वाले आतंकवाद की नींव डाली। लोकतांत्रिक प्रक्रिया में वर्ष 2002 में फिर से काफी हद तक भरोसा बना जब केंद्र में प्रधानमंत्री वाजपेयी की सरकार थी और जनता अपने मतपत्र के जरिए सूबे के तत्कालीन सत्ताधारियों को हटा पाई। लेकिन वह दिन सच में लद चुके हैं, जब 1950 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू के बार-बार कहने पर, तत्कालीन ‘वज़ीर-ए-आज़म’ बख्शी गुलाम मोहम्मद कुछ सीटें अपने विरोधियों के लिए छोड़ने पर राज़ी हुए थे, ताकि और कुछ नहीं तो जनता की नजरों में चुनावों की विश्वसनीयता बनी रहे।
    आज, जम्मू-कश्मीर के अधिकांश मतदाता मानते हैं कि चुनाव निष्पक्ष और मुक्त रहे और यह मौजूदा परिस्थिति में अंतर ला सकता है। हालांकि, वे इस भ्रम में भी नहीं हैं कि यह चुनाव उनके बृहद राजनीतिक मुद्दों का हल है, लेकिन उन्हें भान है कि कश्मीर के मुद्दों को सुलझाने के प्रयासों को गैर-निर्वाचित और नकारा प्रशासनिक व्यवस्था का बंधक न बनने दिया जाए। यह मतदाता वह है जिसे विश्वस्तरीय प्रशासन, आधारभूत ढांचा, शिक्षा एवं रोजगार में नए अवसरों के अलावा वर्तमान में लागू कठोर कानूनों के शिकंजे में रहने की मजबूरी से हटकर रोजाना की जिंदगी में इज्जत से विचरने की चाहत है। इससे यह भी सुनिश्चित होगा कि अपनी भूमि में अलगाववाद की भावना न पनपे।
    राजनीतिक इतिहास पर नज़र डालें तो अगस्त, 1953 में शेख अब्दुल्ला जो कि उस वक्त सूबे के सबसे कद्दावर नेता थे, एक दिन जब गुलमर्ग में छुट्टियां मना रहे थे तो पुलिस अधीक्षक लक्ष्मण दास ठाकुर ने सूचित किया उनको यानी जम्मू-कश्मीर के ‘प्रधानमंत्री’ (उस वक्त यही पदनाम था) पद से पदच्युत कर दिया गया है और नज़रबंद करने के हुक्म हैं। पलटकर उन्होंने गरजते हुए कहा यह आदेश किसने दिया है? उस वक्त तक शेख अब्दुल्ला को यकीन था कि तीन मूर्ति भवन में रहने वाले उनके मित्र नेहरू उन्हें कभी धोखा नहीं देंगे।
    अधीक्षक ठाकुर ने ‘सदर-ए-रियासत’ कर्ण सिंह के हस्ताक्षर वाला फ़रमान दिखाया, जो उस वक्त अपने पिता महाराजा हरि सिंह को मुम्बई में जलावतनी दिए जाने के बाद रियासत के किशोरवय ‘राजा’ थे। शेख अब्दुल्ला ने ही कर्ण सिंह को सूबे का मुखिया नियुक्त किया था और आज खुद उनके बनाए इस ‘छोकरे’ ने ही एक चिंदी भेजकर उनकी छुट्टी अलोकतांत्रिक ढंग से कर डाली! यह आदेश स्वीकार करने से पहले शेख ने नमाज़ अदा की। शेख अब्दुल्ला, जो कि सूबे से सबसे लोकप्रिय नेता थे, अगले 22 साल सत्ता से बाहर रहे, जब तक कि उन्होंने 1975 में इंदिरा गांधी के साथ संधि को स्वीकार किया।
    इसमें कोई शक नहीं जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया को अनुमति न देने की बीमारी से खुद शेख अब्दुल्ला की नेशनल काॅन्फ्रेंस पार्टी भी अछूती नहीं थी क्योंकि उन्होंने भी सूबे में किसी विपक्ष को पनपने का मौका शायद ही छोड़ा था। रणजीत सिंह पुरा में भड़काऊ भाषण, अमेरिकी राजनयिकों को डोरे डालना और जनसंघ के सबसे कद्दावर नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी को श्रीनगर में अपनी निगरानी में मरने देना जैसे काम उन्होंने किए। उनके बाद आए बख्शी, जिन्हें दिल्ली का वरदहस्त प्राप्त था।
    शेख अब्दुल्ला के काल के बाद, उनके पुत्र और राजनीतिक जानशीन फ़ारूक अब्दुल्ला को भले ही दिल्ली का आशीर्वाद प्राप्त था, लेकिन भारतीय लोकतंत्र में उनका यकीन ही कम था। वर्ष 1984 में अब्दुल गनी लोन (पीपुल्स काॅन्फ्रेंस नेता सज्जाद लोन के पिता) ने एक दिन सुबह को डॉ. अब्दुल्ला को गहरी नींद से जगाकर बताया कि उनके वफादार विधायकों का एक बड़ा धड़ा टूट चुका है और इस वक्त राजभवन में राज्यपाल जगमोहन के समक्ष हैं।

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