भारत के स्वतंत्र होने के बाद अंग्रेज़ी शिक्षा के चलते स्वाभिमान शून्य बने नेतृत्व ने समाज की अंतर्निहित शक्तियों को केंद्र में रखकर अपने स्वबोध और स्वधर्म पर आधारित तंत्र विकसित करने के स्थान पर औरों का अनुकरण करना स्वीकार किया। समाज तो चिरपुरातन संस्कारों से ही संचालित हो रहा था किंतु शासन ने अपनी व्यवस्थाओं को दासता से मुक्त करने के स्थान पर औपनिवेशिक विचार को ही महत्व दिया। फिर भी भारतबोध पूर्ण मिटा नहीं, समाज में हर स्तर पर व्यक्त होता रहता है। प्रतिकूल वातावरण और नीतियों में भूमिगत रूप से और थोड़ी सी स्वतंत्रता मिलते ही पूर्ण उत्साह से भारतीय उद्यमिता अपना चमत्कार दिखाती रही है। पूर्ण समर्थन और कुछ प्रोत्साहन मिलते ही महामारी के काल में भी सृजन और निर्माण के कीर्तिमान भारतीय प्रतिभा ने कर दिखाए हैं।
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द्वितीय महायुद्ध के बाद विश्व दो भागों में बँटा था। अटलांटिक महासागर से उत्तर दिशा के देश NATO के रूप में अमेरिकी नेतृत्व को स्वीकार कर पूँजी पर आधारित मुक्त बाज़ार की अर्थव्यवस्था पर चल पड़े। अमेरिकी प्रौद्योगिकी के आक्रामक प्रदर्शन से चमत्कृत ये सब देश उसी मार्ग पर चल पड़े। दूसरी ओर सोवियत रशिया के दबाव और प्रभाव में दक्षिणी गुट साम्यवाद और समाजवाद पर आधारित शासनकेंद्रित अर्थव्यवस्था द्वारा विकास के मार्ग पर चल पड़े। विज्ञान, प्रौद्योगिकी, सामरिक शक्ति तथा अन्य सभी जीवन के क्षेत्रों में दोनों गुटों में प्रतिस्पर्धा चल पड़ी। अर्थनीति के साथ ही राजनीतिक व्यवस्था में भी भेद था। उत्तरी गुट लोकतांत्रिक राजतंत्र, मुक्त संचार माध्यम, व्यक्तिगत स्वातंत्र्य आदि सिद्धांतों का प्रतिपादन करते रहे। राजनयिक लाभ के लिए समय समय पर इन तत्वों का उपयोग अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आज भी होता है। दूसरी ओर साम्यवादी व्यवस्था में व्यक्ति अथवा राजनीतिक दल के हाथ में केंद्रित सत्ता, सामूहिक संपदा, शासनकेंद्रित जीवन ऐसे प्रतिमान विकसित हुआ। दोनों ओर से अपनी श्रेष्ठता की प्रतिस्पर्धा होती रही।
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इस प्रतिस्पर्धा से बचते हुए दोनों समूहों के प्रति समान दूरी रखते हुए मित्रता का प्रयत्न करने हेतु निर्गुट सम्मेलन का मार्ग भारत ने स्वीकार किया। लोकतंत्र का सहज स्वीकार भारत ने स्वभावगत किया। संचार तंत्र का स्वातंत्र्य और व्यक्तिगत अधिकारों की रक्षा भी भारत में विनायास प्रफुल्लित हुई। किंतु आर्थिक व्यवस्था में हमने उस समय के नेतृत्व के व्यक्तिगत अनुराग के कारण साम्यवाद का अनुकरण किया। उसके देशानुकरण का प्रयत्न अवश्य हुआ किंतु पंचवार्षिक नियोजन और उद्योगों, विपणन और व्यापार का शासकीय नियंत्रण जैसे सोवियत प्रतिमान के मूल लक्षणों को भारत में कठोरता से लागू किया गया। प्रत्येक गतिविधि पर निरीक्षक राज के कारण हिंदू समाज की आंतरिक उद्यमिता का गला घोंट दिया। चाकरी और उसमें भी सरकारी नौकरी सामाजिक प्रतिष्ठा का केंद्र बन गई।
इस सबके फलस्वरूप 1950CE के दशक से 1980CE के दशक तक भारत का विकास दर केवल 4% रहा। 1978 में एक भारतीय अर्थशास्त्री राज कृष्णा ने इसे ‘हिंदू विकास दर’ (Hindu Growth Rate) का नाम दिया। कुछ अर्थशास्त्रियों ने हिंदू धर्म के कर्म सिद्धांत और भाग्यवादी होना तथा संतोष के आदर्शों के चलते प्रतिस्पर्धा के भाव का अभाव ऐसे कारणों से आर्थिक विकास का दर कम होने की बात कही। इन बातों को गंभीर अर्थशास्त्रियों ने तुरंत नकार दिया किंतु ‘हिंदू विकास दर’ शब्दावली का प्रयोग राजनीतिक स्वार्थ और सनातन द्वेषी विचारधारा से प्रेरित अवसरवादी समय समय पर करते रहते हैं। सत्तावादी और शैक्षिक रूप से प्रामाणिक अध्येता इसे नेहरू प्रतिमान का विकास दर मानते हैं। रुस के अंधानुकरण से उपजे सरकारी अति नियंत्रण के कारण उस कालखंड में भारत का विकास दर पाकिस्तान से भी कम था।
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सोवियत रशिया के 1989 में हुए विखंडन के बाद जब नेहरूवीय प्रतिमान की विफलता स्पष्ट हो गई तब भारतीय मूल के अमेरिकी अर्थशास्त्री जगदीश भगवती के शिष्य डॉ मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारत ने उत्तराभिमुख होते हुए वैश्विक मुक्त बाज़ार की ओर दिशा परिवर्तन किया। उस समय भी अवसर था कि हम हमारी सनातन परंपरा के आधार पर अपना स्वदेशी मार्ग अपनाते। पंडित दीनदयाल उपाध्याय, दत्तोपंत ठेंगड़ी सहित अनेक विचारक कई वर्षों से भारत द्वारा पश्चिम के भौतिक वाद पर आधारित दोनों व्यवस्थाओं के स्थान पर स्वयं के स्वतंत्र तृतीय मार्ग अनुसरण का प्रतिपादन कर रहे थे। विश्व अधिकोश (World Bank), आंतरराष्ट्रीय मुद्रा निधि (IMF) जैसे बहुराष्ट्रीय संगठनों के प्रभाव में बन रही नीतियों में सभी सनातन विचारों और परंपराओं की केवल अनदेखी ही नहीं हुई अपितु उन्हें हेय माना गया। उस कालखंड में भी ‘हिंदू विकास दर’ को भर्त्सना के रूप में प्रयुक्त किया गया। भारतीय ज्ञान परम्परा पर स्वाभिमान का अभाव ही दासता की निरंतरता का कारण है।
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उदारीकरण (Liberalization), निजीकरण (Privatisation) तथा वैश्वीकरण (Globalisation) इस LPG की त्रिसूत्री के नाम पर हुए आर्थिक सुधारों में शासकीय नियंत्रण को कम किया गया। राज्यों के मध्य आपसी व्यापार को खुला किया गया। इसके फलस्वरूप भारत की आंतरिक शक्ति उद्दीप्त हुई। घरेलू पूँजी की नींव पर उद्यमिता की बाढ़ आई। हमारी पारंपरिक गणित और अभियान्त्रिकी प्रतिभा में वैश्विक अवसरों को भुनाते हुए विश्वमंच पर स्थान बनाया। विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ ही भारत में स्थापित स्वदेशी निगम भी बहुराष्ट्रीय सफलता पाने लगे। विशेषकर संगणक के क्षेत्र में भारत का प्रभाव बढ़ता गया। 1998CE में किए पोखरण विस्फोट ने भारत के तकनीकी वर्चस्व का प्रदर्शन किया। निवासी और प्रवासी भारतीयों में स्वाभिमान जागरण के साथ ही विश्व की भारत दृष्टि बदल गई। सहस्राब्दी परिवर्तन से पूर्व भारत उदय में विश्व की रुचि बढ़ती गई। पॉल बैरोच, विलियम डेलरिम्पल जैसे लेखकों ने भारत की इस बढ़ती शक्ति को पुनरुत्थान का नाम दिया। उन्होंने सप्रमाण लिखा कि विदेशी आक्रमणों से पूर्व भारत एक समृद्ध राष्ट्र था जो विश्व भर में व्यापार करता था। उपनिवेश बनने के बाद खोये वैभव को भारत पुनः प्राप्त कर रहा है।
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इस विषय पर विश्व के विकसित देशों में चर्चा चली। चीन और भारत नई शताब्दी की आर्थिक शक्ति बनेंगे यह स्पष्ट होने के बाद इतिहास के इस पक्ष पर अर्थशास्त्रियों का ध्यान गया। प्रामाणिक इतिहासकार तो इस तथ्य को सदा से ही कहते आये हैं। ईसा पूर्व से भारत में आए अनेक विदेशी यात्रियों ने भारत की संपन्नता का परीकथा के समान वर्णन किया है। अनेक उत्खननों में प्राप्त पुरातात्विक साक्ष्य, भारत से यूरोप में ले जायी गई पाण्डुलिपियों में मिले साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर विल ड्यूरैंड जैसे अमेरिकी इतिहासकार कहते रहे हैं कि सदियों की लूट के बाद भी प्रचलित गणना CE की 19वी शताब्दी तक भारत ना केवल स्वयं समृद्ध रहा अपितु पूरे विश्व को संपदा का वितरण करता रहा है। ब्रिटिश राज से पूर्व भारत के ज्ञान, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी में भी सर्वाधिक प्रगत होने के प्रमाण इन इतिहासकारों के वृत्तों में मिलते हैं। सहस्राब्दी परिवर्तन के समय विश्व में गहन मंथन चल पड़ा था। विकास के प्रतिमान पर भी गंभीर पुनर्विचार होने लगा था। पर्यावरण के विनाश, संपन्न और विपन्न के मध्य बढ़ती खाई और टूटते परिवार और बिखरते मानव-मन के कारण विकास की अंधी दौड़ में है इसका साक्षात्कार पश्चिम के संवेदनशील विचारकों के लेखन में भी आने लगा। इस कारण पूर्व के दर्शन, परंपरा और इतिहास में विश्व की रुचि बढ़ गई।
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संपन्न देशों के आर्थिक विकास और सहयोग संगठन (Organisation for Economic cooperation and Development — OECD) ने ब्रिटिश मूल के अर्थशास्त्री एंगस मेडिसन को विश्व का आर्थिक इतिहास लिखने का प्रकल्प दिया। चार वर्ष गहन शोध कर पूरे विश्व से 2000 वर्षों के उत्पादन और व्यापार की जानकारी (Data) एकत्रित कर उन्होंने ग्रंथ लिखा – ‘विश्व का आर्थिक इतिहास – सहस्राब्दी दृष्टिकोण’ (Economic History of the world – Millennial perspective)। इस शोध पर आधारित निष्कर्षों में उन्होंने बताया की प्रचलित युग CE के प्रथम 15 शताब्दी तक भारत निर्विवाद रूप से विश्व का सबसे समृद्ध देश रहा। चीन के आँकड़े ही इसके बाद भारत के समकक्ष दिखाई देते हैं। (चीन के किसी भी जानकारी पर विश्वास नहीं किया जा सकता।) एक अनुमान के अनुसार इस कालखंड में भारत का विश्व उत्पादन में योगदान 30% से 46% तक रहा। प्रति व्यक्ति उत्पाद का अनुमान इतना आकर्षक नहीं है। तथाकथित औद्योगिक क्रांति के बाद भी भारत यूरोप और अमेरिका से अधिक समृद्ध था। मेडिसन के निष्कर्ष के अनुसार अंग्रेज़ी शासन के स्थिर होने के प्रारंभिक समय 18वी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भी भारत का वैश्विक योगदान 23-25% था। यह वास्तविक ‘हिंदू विकास दर’ है।
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जब तक हम सनातन आर्थिक प्रतिमान पर व्यवहार करते रहे तब तक भारत सुसंस्कृत होने के साथ ही समृद्ध भी था। विदेशी शासकों द्वारा भारतीय परंपरा का विध्वंस कर अपने तंत्र को थोपने से ही भारत में अकाल, विपन्नता और भुखमरी की स्थिति बनी। जब अंग्रेजों को खदेड़ कर भारत स्वतंत्र हुआ तब उसका वैश्विक उत्पादन में अवदान केवल 2% बचा था। पश्चिमी शोषण तंत्र से ध्वस्त आर्थिक तंत्र को स्वाधीनता के बाद भी उन्हीं विदेशी प्रतिमानों पर चलाया गया और धृष्टता ऐसी कि ‘हिंदू विकास दर’ के नाम से दोष सनातन सिद्धांतों पर मढ़ने का विमर्श खड़ा किया गया। हेरोडोटस, मेगस्थनीज़ जैसे ईसा पूर्व भारत में आये यात्रियों से लेकर ब्रिटिश शासकों में से कुछ नैष्ठिक अधिकारियों के यात्रा वर्णन पढ़ने से ज्ञात होता है कि जब वास्तविक हिंदू आर्थिक प्रतिमान व्यवहार में थे तब भारत विश्व का सबसे समृद्ध राष्ट्र था और पूरे विश्व में सागरी और भूमार्ग से व्यापार करता था। यह प्रचंड विकास ही सत्य हिंदू विकास दर है।
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आज जब सारा विश्व आर्थिक मंदी की कगार पर है तब भी अपने आंतरिक सनातन सांस्कृतिक सामर्थ्य को फिर से गर्व के साथ स्वीकार करने वाला भारत सबसे सुरक्षित माना जा रहा है। विश्व को मंदी से बचाने के लिए भी अधिक अध्ययन के साथ समझना होगा कि क्या है भविष्य का हिंदू विकास दर।