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वे शासन की दृष्टि में नहीं समाज की दृष्टि में राष्ट्रकवि..

  • रमेश शर्मा
    ुप्रसिद्ध राष्ट्र कवि श्रीकृष्ण सरल का पूरा जीवन भारत के क्रातिकारियों की गाथा लिखने में बीता । उनका जन्म 1 जनवरी 1919 को मध्यप्रदेश के अशोकनगर में हुआ । इनका परिवार क्षेत्र में प्रतिष्ठित परिवार था । पिता भगवती प्रसाद विरथरे और माता यमुना देवी भारतीय संस्कारो और परंपराओ के लिये समर्पित रहे। घर में माता यदि पूजन पाठ में नियमित थीं तो पिता देश और समाज की समस्याओं पर चर्चा करते थे। उनके पिता सुप्रसिद्ध क्राँतिकारीचंद्रशेखर आजाद के संपर्क में आ गये थे और उन्होंने आजाद जी के अज्ञातवास में सहयोग भी किया था । स्वाधीनता आंदोलन में सहयोग और चर्चा के बीच सरल जी ने जन्म लिया होश संभाला। पर उन्हें माता का सुख अधिक न मिल पाया । वे अभी पाँच वर्ष के थे कि माताजी का निधन हो गया। पिता के सानिध्य बड़े हुये और स्वयं भी राष्ट्र सेवा में लग गये। स्वयं भी स्वाधीनता सेनानी रहे । उन्होनंे 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया था। अपनी पढ़ाई पूरी करने वे शासकीय महाविद्यालय उज्जैन में प्रोफेसर हो गये । लेखन कार्य उन्होंने वायवय से ही आरंभ कर दिया था । जब वे दस वर्ष के थे तब उन्होंने अपनी पहली स्वरचित रचना विद्यालय में सुनाई थी। वे विद्यार्थी रहे हों या महाविद्यालय के शिक्षक उन्होंने लेखन कभी न छोड़ा । उनका लेखन सतत जारी रहा। जीवन के अंतिम क्षणों तक उन्होंने लिखा था ।
    क्राँतिकारियों पर उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं जिनमें पन्द्रह महाकाव्य हैं। उनका संपूर्ण लेखन क्रांतिकारियों पर ही केन्िद्रत रहा है। उन्होने लेखन में कई विश्व कीर्तिमान स्थापित किए हैं। सर्वाधिक क्रांति-लेखन और सर्वाधिक पन्द्रह महाकाव्य लिखने का श्रेय सरलजी को ही जाता है। उनके द्वारा भारतीय सैनिकों की बलिदानी परंपराओं का स्मरण कराते राष्ट्रवादी काव्य के लिए उन्हें कहा उन्हें युग चारण कहा जाता है। उनके द्वारा रचित ‘मैं अमर शहीदों का चारण हिन्दी साहित्य की एक अद्भुत और कालजयी रचना है । मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी ने श्रीकृष्ण सरल जी के नाम पर कविता के लिए प्रति वर्षश्रीकृष्ण सरल पुरस्कार’ आरंभ किया है । उन्हें विभिन्न संस्थाओं द्वारा ‘भारत गौरव’, ‘राष्ट्र कवि’, ‘क्रांति-कवि’, ‘क्रांति-रत्न’, ‘अभिनव-भूषण’, ‘मानव-रत्न’, ‘श्रेष्ठ कला-आचार्य’ आदि अलंकरणों से विभूषित किया गया। उन्होने सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी राजर्षि पुरुषोत्तमदास टण्डन जी से प्रेरित होकर अमर बलिदानी भगत सिंह की माता श्रीमती विद्यावती जी के सानिध्य में राष्ट्र के प्राण दानियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को अपने साहित्य का विषय बनाया। वे चाहते थे कि आने वाली पीढियाँ इन हुतात्माओं से परिचित हो सकें। वे स्वयं को अमर ‘शहीदों का चारण कहते थे। सुप्रसिद्ध साहित्यकार पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने कहा- ‘भारतीय शहीदों का समुचित श्राद्ध श्री सरल ने किया है।’ महान क्रान्तिकारी पं. परमानन्द का कथन है— ‘सरल जीवित शहीद हैं।’
    जीवन के उत्तरार्ध में सरल जी आध्यात्मिक चिन्तन से प्रभावित होकर तीन महाकाव्य लिखे— तुलसी मानस, सरल रामायण एवं सीतायन। प्रो. सरल ने व्यक्तिगत प्रयत्नों से 15 महाकाव्यों सहित 124 ग्रन्थ लिखे स्वयं ही उनका प्रकाशन कराया और स्वयं अपनी पुस्तकों की 5 लाख प्रतियाँ बेच लीं। क्रान्ति कथाओं का शोधपूर्ण लेखन करने के सन्दर्भ में स्वयं के खर्च पर 10 देशों की यात्रा की। पुस्तकों के लिखने और उन्हें प्रकाशित कराने में सरल जी की अचल सम्पत्ति से लेकर पत्नी के आभूषण तक बिक गये । उनकी सर्वाधिक अमर कृति ‘क्रांति गंगा’ को लिखने में 27 वर्षों का समय लगा । बलिदानी भगतसिंह पर लिखे महाकाव्य का विमोचन करने हेतु भगतसिंह की माताजी स्वयं श्रीकृष्ण सरलजी के आमंत्रण पर उपस्थित हुई थीं।
    का कहना था कि मैं क्रांतिकारियों पर इसलिए लिखता हूं जिससे कि आने वाली पीिढ़यों को कृतघ्न न कहा जाए। ‍‘जीवित-शहीद’ की उपाधि से अलंकृत श्रीकृष्ण ‘सरल’ सिर्फ नाम के ही सरल नहीं थे, सरलता उनका स्वभाव था। उन्होंने 2 सितंबर 2000 को अपने जीवन की अंतिम श्वांस ली । कोटिशः नमन

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