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- भाऊ तोरसेकर
अब उसको दस वर्ष की कालावधि बीत चुकी है। वर्ष 2013 के आरम्भ की पूर्वसंध्या पर गुजरात विधानसभा के चुनाव सम्पन्न हो चुके थे और लगातार पांच बार भाजपा ने वहां निर्विवाद बहुमत हासिल किया था। उस समय नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने तीसरा चुनाव जीता था। वास्तव में इस बार मोदी ने गुजरात का राजकीय चेहरा पूरी तरह से बदल दिया था। एक राज्य का चेहरा बदलने का मतलब होता है उसको सामाजिक तथा औद्योगिक समस्याओं से निकालकर राज्य और उसकी अर्थव्यवस्था को विकसित बनाना। अपने दस वर्षों के कार्यकाल में मोदी ने वह मुकाम हासिल किया ही था परन्तु आश्चर्य यह कि केवल गुजरात ही नहीं देश और समूचे विश्व के तथाकथित प्रगतिशील धड़े और बुद्धिजीवी वर्ग ने मोदी को समाप्त करने का जैसे बीड़ा ही उठाया था। इस स्थिति में भी जिस एक व्यक्ति ने सबसे अकेले टक्कर लेते हुए अपनी नेतृत्व क्षमता का निर्विवाद प्रदर्शन किया था, वह मोदी ही थे।
यह मुद्दा केवल एक राज्य के सरकारी कामकाज, अर्थव्यवस्था, सामाजिक सुव्यवस्था और कानून व्यवस्था तक ही सीमित नहीं था। जब भारतीय जनता पार्टी अपनी आतंरिक कलह, फूट और सत्ता संघर्ष से बेजार होकर अगले चुनाव में लगभग हारने की कगार पर थी, उस समय मोदी ने कोई अनुभव न होते हुए गुजरात के मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी अपने कन्धों पर ली और इसके बाद अगले तीन विधानसभा चुनाव निर्विवाद बहुमत से जीतने के साथ अपनी पार्टी की जड़ें राज्य में मजबूत की जो कोई आसान बात नहीं थी। मोदी के लिए इस राह में लगभग प्रत्येक स्तर पर अवरोध ही अवरोध थे और उन पर विजय हासिल करना एक अभूतपूर्व छलांग ही थी। इसलिए ही जब लगातार दो लोकसभा चुनावों में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा की हार हुई तब पार्टी के सामान्य कार्यकर्ताओं का ध्यान भी गुजरात के इस उभरते हुए नेतृत्व की ओर गया और उन्हें लगा कि ये व्यक्ति पार्टी को हार की मानसिकता से निश्चय ही निकाल सकता है।
ऐसी ही आशा भाजपा के समर्थक और संरक्षकों में भी जाग रही थी। भारत और समूचे विश्व को मोदी युग की सही शुरुअात इस आशा की किरण से ही हुई, ऐसा कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुझे भी एक राजनैतिक पत्रकार के रूप में इस बात की आहट इसी दरम्यान लगी, यह कहना गलत नहीं होगा। यदि कोई कहे कि यही समय मेरे मोदी भक्त होने का है तो मुझे बिल्कुल भी गुस्सा नहीं आयेगा क्योंकि यही वस्तुस्थिति है और एक जागरूक राजनैतिक पत्रकार होने के नाते मैं तब से मोदी की राजनीति की और बड़ी सूक्ष्म दृष्टी से देखने लगा हूं।
मोदी नाम के नेतृत्व का अध्ययन भी मैं इसी दौरान करने लगा। बात इतने तक सीमित नहीं है। वर्ष 2012 के अंत में लगातार तीसरी बार विधानसभा चुनावों को बड़े अंतर से जीतने वाले मोदी अल्पावधि में ही ‘व्हाइब्रंट गुजरात’ कार्यक्रम के आयोजन के साथ दुनिया के सामने आये। यद्यपि इसमें कुछ नया नहीं था। इसके कुछ वर्षों पूर्व से ही एक मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने गुजरात को विकास की और अग्रसर करने के लिए घनीभूत प्रयास किये। उन्होंने आर्थिक और औद्योगिक क्षेत्र में एक अग्रगण्य राज्य के रूप में गुजरात को स्थापित करने के लिए दुनिया भर की कंपनियों को बुलाया और नए-नए पूंजी निवेश प्रस्ताव आकर्षित करने के लिए कार्यक्रमों/ समिट जैसे आयोजनों की झड़ी ही लगा दी। इसके परिणाम आगामी छह-सात वर्षों में दिखने भी लगे। अपने पड़ोस के राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, और तमिलनाडु जैसे राज्यों को पछाड़कर गुजरात स्वदेशी और विदेशी निवेश में बहुत आगे निकल गया था। एक बार तो गुजरात दंगों के बहाने से गुजरात में पूंजी निवेश की मुहीम को नुकसान पहुंचाने के प्रयास में शरद पावर के खासमखास एक उद्योगपति राहुल बजाज से मोदी ने खुलेआम पंगा ही ले लिया था। बजाज उस समय एक राष्टीय उद्योग समूह के अध्यक्ष तो थे ही पर साथ ही वे राष्टीय स्तर पर उद्योग-व्यापार का नेतृत्व करने वाले एक महासंघ के नेता भी थे। बजाज को मोदी ने नाक रगड़ने को मजबूर कर यह साबित कर दिया था कि वे कितने मजबूत राजनेता और कठोर प्रशासक हैं।
खुद को समाज के किसी भी घटक के अगुवा कहलाकर राजसत्ता को नाक रगड़ने को मजबूर करने वाले किसी भी व्यक्ति के समक्ष मोदी झुकते नहीं हैं , यह प्रमाण मोदी ने इस प्रकरण में दिया था। इसका देश के पूंजीपतियों और उद्योग जगत पर तत्काल प्रभाव पड़ा। यह प्रकरण इस बात का साक्ष्य था कि यदि देश के तथाकथित महाशक्तियां और स्थापित गुट एक साथ भी मोदी के विरोध में खड़े होते है तो भी मोदी बड़ी मजबूती से उसका सामना करेंगे और विजयी होकर उभरेंगे। नियम-कानूनों और रुकावटों पर विजय पाकर यह नेता भारतीय उद्योग जगत को दुनिया के नक्शे पर भारत की छाप छोड़ने में-पीछे नहीं रहेगा, ऐसा आत्मविश्वास मोदी के कार्यकलापों में मिल रहा था। परन्तु मुद्दा यही समाप्त नहीं होता है। मोदी के एक और साहसिक निर्णय से देश और दुनिया के उद्योगपतियों का विश्वास अर्जित किया था और वह था उनका ‘ ्हाइब्रंट गुजरात।’
देश में भाजपा सहित सभी राजनैतिक दल यानी प्रादेशिक और राष्ट्रीय स्तर पर जो दल सत्ता में थे वे या जो सत्ता हासिल करने के लिए जोड़ -तोड़ में लगे थे,या फिर वे सभी जनहित और विकास से मुंह फेरकर केवल राजनीति ही कर रहे थे। उस समय की परिस्थित्ति में गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी ही इनमें एक अपवाद थे और जो दूसरे नेताओं से भिन्न थे। इसी समय दिल्ली में अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ जो लोकपाल आन्दोलन चल रहा था उसे सत्ता में लालू सहित कांग्रेस की यूपीए सरकार घास नहीं डाल रही थी। इसके विपरीत मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने रामदेव बाबा के आन्दोलन को कुचलने जैसी हिमाकत भी दिखाई थी। परन्तु जनता को अडवाणी और सुषमा स्वराज के नेतृत्व वाली भाजपा भी असहाय सी लग रही थी तो बंगाल में वाम मोर्चे की कमजोर हुई सत्ता को हथियाने के लिए ममता बनर्जी ने सिंगूर-नंदीग्राम जैसे हिंसक आन्दोलन को हवा देकर इस बात का सबूत दिया कि देश में अराजकता का माहौल है। इस पृष्ठभूमि में देश के 28 राज्यों में यदि गुजरात ही एकमात्र स्थिर और सुरक्षित राज्य के रूप में दिख रहा था, तो उसमे आश्चर्य नहीं था। इस कालावधि में ‘व्हाइब्रंट गुजरात’ के एक कार्यक्रम में देश के दो बड़े उद्योगपति रतन टाटा और अनिल अम्बानी उपस्थित थे। इन्हीं ने जनता का ध्यान इस और आकर्षित किया कि इस प्रकार का नेता ही देश को प्रगति और सम्पन्नता की दिशा में ले जा सकता है।
अम्बानी का बड़ा औद्योगिक साम्राज्य पहले से ही महाराष्ट्र और पड़ोस के राज्य गुजरात में था और उसे रतन टाटा ने और मजबूती प्रदान की। इस पूरे प्रकरण में भारत के राजनैतिक इतिहास को एक नया स्वप्नदृष्टा मिला जिसका नरेंद्र मोदी है। उस समय यूपीए सरकार का नाकारापन और निष्िक्रयता देश को रसताल में ले जा रहा था और सामान्य व्यक्ति को अपने व्यापर-उद्योग की सुरक्षा की चिंता सता रही थी तब उद्योगपतियों को मोदी में एक आशाजनक चेहरा नज़र आने लगा। ममता के आन्दोलन और उसके सामने असहाय बने वाम मोर्चे की राज्य सरकार बंगाल के भविष्य को बदलने वाले टाटा के सिंगूर-नंदीग्राम प्रोजेक्ट को संरक्षण नहीं दे सकी और आखिर निराश होकर टाटा ने वह प्रोजक्ट समेटने का निर्णय लिए और तब बिना देरी कि
अब टाटा को मजबूरी में इस प्रोजेक्ट को महाराष्ट्र में लाना पड़ेगा, इस आशा में आराम से बैठे मुंबई के राजनेताओं को पता भी नहीं लगा और मोदी चुपचाप टाटा का नेनो प्रोजेक्ट गुजरात लेकर चले गए। जिस समय टाटा ने बंगाल से अपने प्रोजेक्ट को समेटने का निर्णय लिया उसके एक घंटे के भीतर उनके सोशल मीडिया के ट्विटर पर मोदी ने नपे -तुले शब्दों में सन्देश दिया कि ‘ आपका गुजरात में स्वागत है।’ इसी तो टर्निग पॉइंट कहा जा सकता है। टाटा को गुजरात में अपने प्रोजेक्ट के लिए जमीन उपलब्ध कराई गई और देश के सबसे पुराने उद्योगपति समूह को दुनिया में छा जाने के लिए कैसा प्रधानमंत्री चाहिए, इसका जैसे साक्षात्कार ही हो गया| इसके बाद अम्बानी और टाटा ने ‘ व्हाइब्रंट गुजरात’ कार्यक्रम में इस प्रकार के विचार रखे कि देश को मोदी जैसा प्रधानमंत्री चाहिए और वर्ष 2013 का प्रारंभ भारतीय महाद्वीप में नए भविष्य की नींव बनकर उभरने लगा।
यह संयोग ही है कि उसी कालखंड में अर्थात 2009 से मैं पुण्यनगरी दैनिक जो सभी मराठीभाषी जिलों से प्रकशित होता है, में मैं मराठी में ‘उलट तपासणी’ ( उल्टा निरीक्षण ) नामक दैनिक स्तम्भ लिख रहा था और टाटा-अम्बानी के दिए हुए साक्षात्कार की जानकारी मराठी के पाठकों को हो, इसलिए मैंने 2014 के लोकसभा चुनाव की राजनीति को सामने रखकर मोदी को अपनी लेखमाला में सजाने लगा। जनवरी से अप्रैल, 2014 तक की कालावधि में मेरे 27 लेख छपे और फिर यह सफ़र रुक गया।
अनुवादः जीएल पुणतांबेकर