Home » सरकार ने की सरकारी कर्मचारियों के मौलिक अधिकार की रक्षा

सरकार ने की सरकारी कर्मचारियों के मौलिक अधिकार की रक्षा

  • लोकेन्द्र सिंह
    सरकारी कर्मचारियों के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गतिविधियों में शामिल होने पर कांग्रेस सरकार द्वारा 1966 में लगाए गए संविधान, लोकतंत्र और मौलिक अधिकार विरोध प्रतिबंध को हटाने के आदेश को लेकर देशभर में खूब बहस हो रही है। केंद्र सरकार ने 1966, 1970 और 1980 में तत्कालीन सरकारों द्वारा जारी उन आदेशों में संशोधन किया गया है, जिनमें सरकारी कर्मचारियों के आरएसएस की शाखाओं और उसकी अन्य गतिविधियों में शामिल होने पर रोक लगाया गया था। इस बहस में यह देखना मजेदार है कि जो लोग संविधान, लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित मौलिक अधिकारों के झंडाबरदार बने फिरते हैं, एक तुगलकी फरमान को समाप्त करने का सर्वाधिक विरोध कर रहे हैं। जबकि उन्हें स्वागत करना चाहिए था कि सरकारी कर्मचारियों को 58 वर्षों बाद उनका मौलिक अधिकार वापस मिला है। अब वे भी आम नागरिकों की भाँति सामाजिक एवं रचनात्मक कार्यों हेतु संघ से जुड़ सकेंगे या उसके कार्यक्रमों में भागीदारी कर सकेंगे। राष्ट्रीय विचार और हिन्दुओं के संबंध में जब भी कोई निर्णय आता है, तब अनेक लोगों का पाखंड एवं उनका दोहरा आचरण खुलकर सामने आ जाता है।
    हालांकि, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रमों में शामिल होने से रोकने के लिए लाया गया यह प्रावधान प्रारंभ से ही न्यायालयों में बेदम साबित हुआ है। कई ऐसे उदाहरण हैं, जिनमें संघ गतिविधि में शामिल होने पर सरकारों ने कर्मचारियों के विरुद्ध दंडात्मक कार्रवाई की लेकिन वे सभी मामले न्यायालय में टिक नहीं सके। संघ के स्वयंसेवक न्यायालय से जीतकर आए। संविधान, लोकतंत्र एवं मौलिक अधिकार विरोधी इस प्रतिबंध को 1966 के बाद से ही चुनौती मिलने लगी थी। क्योंकि संघकार्य को बाधित करने और स्वयंसेवकों को प्रताड़ित करने की जिस मंशा से सरकार ने यह प्रतिबंध लगाया था, उसे अंजाम देने का कार्य देशभर में शुरू किया गया। इस प्रतिबंध को हथियार बनाकर सरकारों ने देश के विभिन्न राज्यों में संघ से जुड़े कार्यकर्ताओं की नौकरी छीनना शुरू कर दिया। सरकार की मनमानी को स्वयंसेवकों ने न्यायालयों में चुनौती दी, जहाँ सरकारों को मुंह की खानी पड़ी। मैसूर उच्च न्यायालय ने वर्ष 1966 में रंगनाथचार अग्निहोत्री की याचिका पर निर्णय देते हुए कहा था कि प्रथम दृष्ट्या आरएसएस एक गैर-राजनैतिक एवं सांस्कृतिक संगठन है जो कि गैर-हिंदुओं के प्रति किसी भी द्वेष अथवा घृणा की भावना से मुक्त है। इसी क्रम मे न्यायालय ने आगे कहा कि संघ ने भारत में लोकतान्त्रिक पद्धति को स्वीकार किया है। अतः राज्य सरकार द्वारा याची को सेवा से हटाने का निर्णय गलत है। इसके साथ ही न्यायालय ने उक्त कर्मचारी को सेवा में बहाल करने का निर्णय सुनाया। इसी प्रकार, वर्ष 1967 में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के कर्मचारी रामपाल को पद से हटाने संबंधी आदेश को रद्द करते हुए कहा कि संघ कोई राजनैतिक संगठन नहीं है, अतः इसकी गतिविधियों में भागीदारी करना कानूनी रूप से गलत नहीं है। ज्ञातव्य है कि राज्य सरकार द्वारा रामपाल को पद से इस आधार पर हटाया गया था कि वे आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेते हैं एवं राज्य की दृष्टि में आरएसएस एक राजनैतिक संगठन है।
    ‘भारत प्रसाद त्रिपाठी बनाम मध्यप्रदेश सरकार तथा अन्य’ प्रकरण में तो 1973 में मध्यप्रदेश के उच्च न्यायालय ने यहाँ तक कह दिया कि “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के किसी कार्यक्रम में भाग लेने के आधार पर किसी कर्मचारी की सेवा समाप्त नहीं की जा सकती। किसी अंतरस्थ हेतु जारी किया गया (इस आशय का) कोई आदेश वैध नहीं ठहराया जा सकता”। यानी न्यायालय ने संघ की गतिविधि में शामिल होने से रोकने के लिए लगाए गए किसी भी प्रतिबंध/आदेश को अवैध करार दिया। इसके अलावा ‘मध्यप्रदेश राज्य बनाम राम शंकर रघुवंशी तथा अन्य (1983)’, मामले में उच्च न्यायालय, ‘श्रीमती थाट्‌टुमकर बनाम महाप्रबंधक टेलीकम्यूनिकेशन्स, केरल मंडल (1982)’ मामले में अर्नाकुलम स्थित केरल उच्च न्यायालय और ‘डीबी गोहल बनाम जिला न्यायाधीश, भावनगर तथा अन्य (1970)’ मामले में गुजरात उच्च न्यायालय ने यही निर्णय दिए कि संघ से जुड़े होने या उसके कार्यक्रमों में शामिल होने के आधार पर किसी कर्मचारी पर न तो कार्रवाई की जा सकती है और न ही उन्हें सेवा से हटाया जा सकता है।
    कुछ प्रकरण ऐसे भी हैं, जिनमें संघ के कार्यकर्ताओं को इस प्रतिबंध के लागू होने से पहले ही निशाना बनाया गया। इन मामलों से स्पष्ट है कि तत्कालीन सरकारें शुरू से ही चाहती थीं कि संघ के कार्यक्रमों में शामिल होनेवाले लोगों के मन में भय उत्पन्न किया जाए। ताकि हिन्दुओं के संगठन के कार्य को रोका जा सके। परंतु, न्यायपालिका से लेकर आमजन की कसौटी पर राष्ट्रीय विचार को कमजोर करने के सभी प्रयास विफल रहे। ‘कृष्ण लाल बनाम मध्यभारत राज्य (1955)’ में इंदौर स्थित मध्यभारत उच्च न्यायालय, ‘चिंतामणि नुरगांवकर बनाम पोस्ट मास्टर जनरल, कें.मं., नागपुर (1962)’ में बंबई उच्च न्यायालय की नागपुर न्यायपीठ, ‘जयकिशन महरोत्रा बनाम महालेखाकार (1963)’ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय, ‘केदारलाल अग्रवाल बनाम राजस्थान राज्य तथा अन्य (1964)’ मामले में जोधपुर स्थित राजस्थान उच्च न्यायालय और ‘मनोहर अंबोकर बनाम भारत संघ तथा अन्य (1965)’ प्रकरण में दिल्ली स्थित पंजाब उच्च न्यायालय ने यही कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गैरकानूनी संगठन नहीं है। सरकारी कर्मचारी को संघ के कार्यक्रमों में भाग लेने के आधार पर दंडित नहीं किया जा सकता। यदि कोई सरकारी कर्मचारी संघ का सदस्य है तब भी उसे इस आधार पर अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त नहीं किया जा सकता। स्मरण रखें कि वर्ष 1932 में अंग्रेजों ने भी सरकारी कर्मचारियों के संघ से प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया था। अंग्रेजी हुकुमत की ओर से जारी परिपत्र में आदेश दिया गया कि “सरकार ने निर्णय लिया है कि किसी भी सरकारी कर्मचारी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य बनने अथवा उसके कार्यक्रमों में भाग लेने की अनुमति नहीं रहेगी”। कहा जा सकता है कि सरकारी कर्मचारियों को आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेने से रोकने के लिए जिस प्रकार का प्रतिबंध कांग्रेस सरकार ने लगाया, वह औपनिवेशिक काल की अंग्रेजों की नीति को ही आगे बढ़ाने का कार्य था।
    बाद के वर्षों में जब राज्यों में राष्ट्रीय विचार का पोषण करनेवाली सरकारें आईं तो उन्होंने लोकतंत्र एवं मौलिक अधिकार विरोधी इस प्रतिबंध को राज्यों में समाप्त कर दिया। संघ ने इस प्रतिबंध की कभी चिंता नहीं की क्योंकि न्यायालयों में इस तुगलकी फरमान के घुटने इतने अधिक छिल गए थे कि यह स्वत: ही निष्प्रभावी हो गया था। फिर भी, वर्ष 2000 में जब संघ के तत्कालीन सरसंघचालक प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह ‘रज्जू भैया’ से पूछा गया कि संघ इस प्रतिबंध को लेकर क्या सोचता है? तब उन्होंने कहा था कि संघ की गतिविधियों में सरकारी कर्मचारियों के भाग लेने पर प्रतिबंध लगाने अथवा हटाने की कार्यवाही में हम कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे, इसके निर्णय का अधिकार सरकारों के पास है। उल्लेखनीय है कि गुजरात सरकार ने इस दिशा में सबसे पहला कदम उठाया। बाद में उत्तरप्रदेश, हिमाचल प्रदेश और मध्यप्रदेश की सरकारों ने भी प्रतिबंध को हटा लिया। यह प्रतिबंध केवल केंद्र सरकार में रह गया था, उसे भी वर्तमान केंद्र सरकार ने संघ के हस्तक्षेप के बिना, स्वत: ही समीक्षा करने के बाद हटा लिया है। केंद्र सरकार के निर्णय पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से भी संतुलित टिप्पणी की गई है। अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर ने कहा- “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ गत 99 वर्षों से सतत राष्ट्र के पुनर्निर्माण एवं समाज की सेवा में संलग्न है। राष्ट्रीय सुरक्षा, एकता-अखंडता एवं प्राकृतिक आपदा के समय में समाज को साथ लेकर संघ के योगदान के चलते समय-समय पर देश के विभिन्न प्रकार के नेतृत्व ने संघ की भूमिका की प्रशंसा भी की है। अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते तत्कालीन सरकार द्वारा शासकीय कर्मचारियों को संघ जैसे रचनात्मक संगठन की गतिविधियों में भाग लेने के लिए निराधार ही प्रतिबंधित किया गया था। शासन का वर्तमान निर्णय समुचित है और भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को पुष्ट करने वाला है”। कहना होगा कि वैसे तो इस प्रतिबंध का कोई औचित्य नहीं रह गया था लेकिन फिर भी केंद्र सरकार ने इसे हटाकर अच्छा ही किया। इससे आमजन के ध्यान में यह भी आया कि पूर्ववर्ती सरकारों ने किस प्रकार राष्ट्रीय विचारधारा के दबाने का प्रयास किया। आज जब संविधान और लोकतंत्र की रक्षा की बहस चल रही है, तब भी उन्हें ध्यान आएगा कि किन सरकारों ने संविधान की मूलभावना के विरुद्ध कार्य किया।

Swadesh Bhopal group of newspapers has its editions from Bhopal, Raipur, Bilaspur, Jabalpur and Sagar in madhya pradesh (India). Swadesh.in is news portal and web TV.

@2023 – All Right Reserved. Designed and Developed by Sortd