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देश, धर्म और प्रजा के लिए था देवी अहिल्याबाई का जीवन

  • निखिलेश महेश्वरी
    भारत में जन्मे हजारों-हजार महापुरुषों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व ने दुनिया में भारत को विशेष पहचान दिलाई है। उन महापुरुषों में एक चमकता सूर्य देवी अहिल्याबाई होल्कर हैं। उनकी अद्भुत प्रशासनिक क्षमता, राजनीतिक कौशल, आधुनिक सोच, कुरीतियों को दूर करने का साहस, धार्मिक-सांस्कृतिक गौरव, न्याय प्रियता एवं प्रजा के प्रति मातृत्व भाव ने उन्हें इतिहास के पन्नों में अमर कर दिया है ।
    महाराष्ट्र के अहमदनगर के पास चौंड़ी ग्राम में एक सामान्य कृषक मणकोजी शिन्दे एवं सुशीलाबाई के घर दो पुत्रों के पश्चात 31 मई 1725 को अहिल्या का जन्म हुआ था। अहिल्या बचपन से चंचल, जिज्ञासु और नई-नई बातों को सीखने को उत्सुक रहने वाली थी। माता-पिता के संस्कारों के कारण बचपन से ही उनका मन शिवभक्ति और धार्मिक कार्यों में लगने लगा था। भाइयों के साथ वह भी पढ़ना-लिखना चाहती थी लेकिन उस समय समाज में महिला शिक्षा प्रतिबंधित होने के कारण उनका पाठशाला जाना संभव न हो सका, लेकिन अहिल्या की पढ़ाई के प्रति लगन देखकर मणकोजी शिन्दे ने अपनी बेटी को घर पर ही पढ़ना-लिखना सिखाया।
    किसी ज्योतिष ने अहिल्या के जन्म के समय कहा था कि यह बालिका महारानी बनेगी, लेकिन एक सामान्य किसान की बेटी के लिए यह कैसे संभव था। एक बार मालवा नरेश मल्हारराव होल्कर चौंडी ग्राम के पास ही रुके थे तभी उनका मिलना अहिल्या से हुआ, उससे बात करने पर वे बहुत प्रभावित हुए। तभी मल्हारराव ने मन ने तय कर लिया कि अहिल्या न उनके पुत्र खण्डेराव की पत्नी और होल्कर घराने की बहू बनने के योग्य हैं। मल्हाररावजी, मणकोजी से मिले और अहिल्या और अपने पुत्र खण्डेराव के विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे ज्योतिष की भविष्यवाणी मानते हुए मणकोजी ने आनंदपूर्वक स्वीकार कर लिया। सन 1733 में दस वर्ष की आयु में विवाह के बाद अहिल्या इंदौर आ गईं। अपने ससुर मल्हारराव के संरक्षण में हाथी-घोड़े की सवारी, शस्त्रों संचालन एवं युद्ध कला का प्रशिक्षण प्राप्त किया और अपनी सास गौतमीबाई के मार्गदर्शन में प्रशासनिक, वित्त और राजनीति के गुर सीखे। धीरे-धीरे उनके मन में राष्ट्रीय सोच का विस्तार होता चला गया। अपनी विनयशीलता, सेवा-भावना, शांत स्वभाव से उन्होंने पति खण्डेराव का मन भी जीत लिया था। अहिल्याबाई और खण्डेराव के यहां 1745 में पुत्र मालेराव और 1748 में पुत्री मुक्ताबाई का जन्म हुआ।
    अहिल्याबाई का जीवन आसान नहीं रहा उन्हें कई प्रकार के संघर्ष से गुजरना पड़ा। सन 1754 में कुम्हेर के युद्ध में पति खण्डेराव वीरगति को प्राप्त हुए, उनकी मृत्यु से गहरे आघात में आई अहिल्याबाई पति के साथ ही सती होना चाहती थी परंतु ससुर के निवेदन पर उन्होंने अपना शेष जीवन ईश्वर को सौंप निर्णय बदल दिया। धीरे-धीरे अहिल्याबाई राजकाज में भाग लेने के साथ ही, अपने ससुर के साथ मिलकर प्रशासनिक निर्णय में सहभाग करने लगी। बहुत जल्द वे अपने व्यवहार और धार्मिक कार्यों से प्रजा में बहुत लोकप्रिय हो गई थीं लेकिन भाग्य को कुछ ओर ही मंजूर था। 1766 में ससुर मल्हाररावजी की भी मृत्यु हो गई। अहिल्या अपने पुत्र मालेराव को राजगद्दी पर बैठाकर स्वयं राज्य का संचालन करने लगीं। लेकिन आघात अभी कम न हुए, 1767 में पुत्र मालेराव को भी मृत्यु देवता ने अपनी शरण में ले लिया। हे ईश्वर पहले पति, फिर ससुर, फिर पुत्र कितनी परीक्षा लेंगे। इसके पश्चात भी अहिल्याबाई ने हिम्मत नहीं हारी। अहिल्याबाई की लोकप्रियता और प्रजा के प्रति उनके लगाव को देखकर पेशवा ने 11 दिसंबर 1767 को मालवा के सिंहासन पर अहिल्याबाई का राजतिलक कर दिया। अहिल्याबाई ने लगभग 30 वर्षों तक अपनी कुशल प्रशासनिक क्षमता के बल पर एक समृद्ध राज्य अपने सेनापति तुकोजीराव को सौंप, 13 अगस्त 1795 को इस संसार रुपी देह को पूर्ण कर इतिहास के पन्नों में सदा-सदा के लिए अमर हो गई।
    अहिल्याबाई ने शासन कैसे चलाया होगा यह महेश्वर के किले में लिखे उनके इन शब्दों से पता चलता हैं ‘ईश्वर ने मुझ पर जो उत्तरदायित्व रखा है, उसे मुझे निभाना है। मेरा काम प्रजा को सुखी रखना है। मैं अपने प्रत्येक काम के लिये जिम्मेदार हूं। सामर्थ्य व सत्ता के बल पर मैं यहां जो कुछ भी कर रही हूं, उसका ईश्वर के यहां मुझे जवाब देना होगा, मेरा यहां कुछ भी नहीं है, जिसका है उसी के पास भेजती हूं, जो कुछ लेती हूं, वह मेरे ऊपर ऋ ण(कर्जा) है, न जाने कैसे चुका पाऊंगी।’
    अहिल्या बाई के न्याय से प्रभावित होकर जनता कहती थी कि उनके राज्य में बकरी और शेर एक घाट पर पानी पीते हैं। अहिल्याबाई शिव का न्याय मानकर ही प्रतिदिन लोगों की समस्याएं सुनने के लिए दरबार लगाती थी। ‘श्री शंकर आज्ञेवरुन’ (श्री शंकरजी की आज्ञानुसार) इस राजमुद्रा से चलने वाला उनका शासन भगवान शंकर के प्रतिनिधि के रूप में ही काम करता था। उन्होंने समाज में व्याप्त हो चुकी कुरीतियों को दूर करने का प्रयास भी किया जिनमें नारी शिक्षा और विधवा विवाह प्रमुख हैं। उनके इन्हीं कार्यों के कारण लोग उन्हें देवी कहने लगे थे।
    इंदौर को एक छोटे से गांव से एक समृद्ध नगर में बदलने का श्रेय अहिल्याबाई को ही जाता है। उन्होंने अपनी राजधानी को इंदौर से महेश्वर स्थापित किया। जहां सुंदर अहिल्याघाट, काशी विश्वनाथ मंदिर और कई महत्वपूर्ण इमारतें बनवाईं। देवी अहिल्याबाई ने अपने राज्य के भीलों और किसानों को खेती के प्रशिक्षण और संसाधन उपलब्ध कराये, पानी के लिए तालाब बनाए जिससे किसान समृद्ध हुए। उन्होंने महेश्वर में साड़ी बनाने के हैंडलूम स्थापित कराए जिससे महेश्वर की साड़ी पूरे भारत में प्रसिद्ध हुई। इंदौर और महेश्वर को केंद्र बनाकर उद्योग-व्यापार को बढ़ावा दिया। अपनी सामान्य जागीर को अहिल्याबाई ने एक समृद्ध राज्य में परिवर्तित कर दिया।
    स्वतन्त्र भारत में अहिल्याबाई को एक ऐसी महारानी के रूप में जाना जाता है, जिन्होंने भारत के अलग-अलग राज्यों में मानवता की सेवा के लिये अनेक कार्य किये थे। उनके इन कार्यों को ध्यान रखकर भारत सरकार तथा विभिन्न राज्यों की सरकारों ने उनकी प्रतिमाएं स्थापित की हैं, उनके नाम से कई जन कल्यााणकारी योजनाएं एवं संस्थानों के नाम रखे हैं। प्रतिवर्ष इन्दौर और महेश्वर में भाद्रपद कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी के दिन अहिल्योत्सव मनाया जाता है। भारत सरकार ने 1996 में अहिल्याबाई के नाम पर एक डाक टिकट जारी किया था। 31 मई 2024 को अहिल्याबाई का 300वां जन्म वर्ष हैं। यह हमारे लिए एक अवसर है कि हम पूरे वर्ष अनेक प्रकार के आयोजन जैसे गोष्ठी, प्रबोधन, प्रतियोताओं एवं विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में उनके जीवन के विविध पहलुओं पर आलेख लिखकर उनका जीवन एवं उनके कार्यों को जन-जन तक पहुंचाए। यही देवी अहिल्याबाई के प्रति हमारी श्रद्धांजली होगी।

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