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- बृजनन्दन राजू
किसी भी राष्ट्र का अस्तित्व उसकी संस्कृति के कारण बना रह सकता है। संस्कृति नहीं बचेगी तो राष्ट्र नहीं बचेगा। भारती की रीति नीति हिन्दू संस्कृति के अनुकूल होनी चाहिए। यदि ऐसा न हो सके तो शासननीति या कानून कम से कम ऐसा हो जो हिन्दू संस्कृति के लिए घातक न हो। सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिकता के विषय पर चल रही सुनवाई का कोई औचित्य नहीं है। समलैंगिग विवाह को कानूनी मान्यता देना हिन्दू संस्कृति पर कुठाराघात है। समलैंगिग विवाह प्रकृति व संकृति के पूर्णत: विरूद्ध है। इसलिए सुप्रीम कोर्ट को देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। समलैंगिग विवाह जैसे पापपूर्ण कृत्य को कानूनी मान्यता देकर हिन्दू संस्कृति की पवित्रता को नष्टकर राष्ट्र के पतन का बीज न बोया जाय। क्योंकि यह मुद्दा बेहद संवेदनशील है। देश के 99.9 प्रतिशत से अधिक लोग समलैंगिक विवाह के विचार का विरोध कर रहे हैं। समाज में चौतरफा इसकी आलोचना हो रही है। केन्द्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह को मान्यता देने वाली याचिका पर हलफनामा दाखिल कर इसे मान्यता दिये जाने का विरोध किया है। केन्द्र सरकार ने समलैंगिक विवाह को प्रकृति के विरूद्ध माना है। केन्द्र सरकार का स्पष्ट मत है कि समलैंगिक विवाह को मान्यता नहीं दी जानी चाहिए।
इस मामले में कोर्ट का फैसला आने वाली पीढ़ियों के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। इस मुद्दे पर याचिकाकर्ताओं के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट का फैसला हमारे देश की संस्कृति और सामाजिक धार्मिक ढ़ांचे के खिलाफ माना जायेगा। सुप्रीम कोर्ट में समलैंगिक विवाह पर सुनवाई के दौरान केंद्र का प्रतिनिधित्व कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच जजों की खंडपीठ से कहा कि अगर समलैंगिक विवाहों के लिए याचिकाकर्ताओं की दलीलें स्वीकार की जाती हैं, तो कल को कोई यह भी मांग कर सकता है एक ही परिवार में रिश्तेदारों के बीच भी सेक्स की इजाजत दी जाय।
सभी धर्म विपरीत जेंडर के बीच विवाह को मान्यता देते हैं। इसलिए अदालत के पास एक ही संवैधानिक विकल्प है कि इस मामले को संसद पर छोड़ दे। क्योंकि समलैंगिक विवाह को विधिक मान्यता देने को लेकर चल रही सुनवाई के बीच देशभर में विरोध बढ़ता जा रहा है। इससे सांस्कृतिक मूल्यों का हनन होगा। कानून बनाने का अधिकार सिर्फ संसद को है तो न्यायालय इस मामले में हस्तक्षेप न करे। संसद का काम संसद को ही करने दे। समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका को निपटाने के लिए जिस प्रकार की जल्दबाजी की जा रही है, वह किसी भी तरह से उचित नहीं है। यह नए विवादों को जन्म देगी और भारत की संस्कृति के लिए घातक सिद्ध होगी।
भारत के शीर्षस्थ संत धर्माचार्य और विश्व हिन्दू परिषद ने भी इसका विरोध किया है। विहिप ने कहा है कि इस विषय पर आगे बढ़ने से पहले सर्वोच्च न्यायालय को धर्म गुरुओं, चिकित्सा क्षेत्र, समाज विज्ञानियों और शिक्षाविदों की समितियां बनाकर उनकी राय लेनी चाहिए। विहिप का कहना है कि यदि समलैंगिग विवाह की अनुमति दी गई, तो कई प्रकार के नये विवाद खड़े हो जायेंगे। दत्तक देने के नियम, उत्तराधिकार के नियम, तलाक संबंधी नियम आदि को विवाद के अंतर्गत लाया जाएगा। विहिप ने यह भी चिंता जताई है कि समलैंगिक संबंध वाले अपने आप को लैंगिक अल्पसंख्यक घोषित कर अपने लिए विभिन्न प्रकार के आरक्षण की मांग भी कर सकते हैं। यह ऐसे अंतहीन विवादों को जन्म देगा, जो स्वयं सर्वोच्च न्यायालय के लिए बहुत बड़ी चुनौती बन सकता है। जिनको भारत की रीति नीति से प्रीति नहीं है ऐसे लोग भारत की परिवार व्यवस्था को नष्ट करना चाहते हैं।
अनेक झंझावातों और विधर्मियों के आक्रमणों कोे झेलते हए भारतीय संस्कृति और संस्कार आज भी अक्षुण है तो इसका श्रेय हमारी परिवार व्यवस्था को जाता है। परिवार व्यवस्था ही भारत की आधारशिला है। आज समृद्धि बढ़ रही है लेकिन संस्कृति घट रही है। इस कारण परिवार में तरह —तरह की समस्यायें आ रही हैं। आज विश्व के लिए परिवार की बहुत आवश्यकता है। कई देशों में वहां के राजनीतिक दलों ने अपने चुनावी घोषणापत्र में लिखा है कि हम पारिवारिक मूल्यों को लागू करेंगे लेकिन जब परिवार ही नहीं रहेंगे तो हमें संस्कार कहां से मिलेगा। परिवार ठीक रहेगा तो सब ठीक रहेगा। यदि परिवार नहीं बचेगा तो हमारी संस्कृति भी नहीं बचेगी। परिवार टूटेगा तो राष्ट्र टूटेगा।