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- डॉ. मयंक चतुर्वेदी
मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने वाली याचिकाओं पर इन दिनों सुनवाई कर रही है। न्यायपालिका के अपने तर्क हैं और समलैंगिक विवाह की दुहाई देने वाले अपने अधिकारों की बात कर रहे हैं किंतु सामाजिक सरोकार जिनके आधार पर भारतीय संविधान का ताना-बाना बुना गया और भारतीय परिवार व्यवस्था के अपने मापदंड हैं। भारतीय संदर्भों में समलैंगिक विवाह के विचार के विरोध में कम से कम एक हजार से अधिक ऐसे तर्क दिए जा सकते हैं जोकि वर्तमान भारतीय सामाजिक व्यवस्था के समर्थन में हैं और समलैंगिक विवाह की बातचीत करने या न्यायालय के समक्ष इसकी मांग कर रहे लोगों के विरोध में जाते हैं। फिर भी आश्चर्य होता है कि कैसे इस विषय पर न्यायालय घंटो -घंटो तक चर्चा के लिए ना केवल समय दे रहा है बल्कि संविधानिक उपाय और उनके लिए व्यवस्था बनाए जाने के लिए रास्ते खोजे जाने का प्रयत्न जारी है।
विचार करें, विवाह क्यों किया जाता है? विवाह निजी मसला है या सामाजिक? विवाह सिर्फ दो व्यक्तियों के यौन संबंधों की स्वीकार्यता भर है या दो परिवारों का जुड़ना और उसके माध्यम से समाज, संस्कृति और सभ्यता को पोषित,पल्लवित और पुष्पित करना भी है? एक विषय यह भी है कि भारत में परिवार व्यवस्था को कमजोर करने के लिए इन दिनों जो लगातार प्रत्यय हो रहे हैं, सोचने वाली बात है कि यह किसके हक में जाएंगे? आखिर इन से किसका भला होने वाला है ? भारतीय परिवार व्यवस्था को ध्वस्त कर हम कौन से समाज निर्माण की ओर अग्रसर होंगे ? और वह भविष्य का कैसा सामाजिक ताना-बाना होगा, यहां पर स्त्री और पुरुषों के संबंधों के अतिरिक्त इस प्रकार के संबंध व्याख्यायित होते आम नजर आएंगे? जहां नैतिकता के कोई मापदंड नहीं होंगे, कोई मर्यादा नहीं होगी।
केंद्र का प्रतिनिधित्व कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता की चिंताएं जायज हैं और यह सिर्फ उनकी चिंता भर नहीं, बल्कि भारत समेत दुनिया भर में परिवार व्यवस्था पर विश्वास करने वाले करोड़ों करोड़ लोगों की चिंता भी है। अगर समलैंगिक विवाहों के लिए याचिकाकर्ताओं की दलीलें स्वीकार की जाती हैं, तो कल को कोई ये भी मांग कर सकता है, एक ही परिवार में रक्त संबंध, रिश्तेदारों के बीच भी शरीरिक संबंध बनाने की अनुमति दी जाय। (शब्दों की मर्यादा है इसलिए यहां बहुत कुछ नहीं लिखा जा रहा) आज हम संविधान के दायरे में मौलिक अधिकारों की परिभाषा करते हैं वैसे कल व्यक्ति के निजी अधिकारों की बात कर इस प्रकार के विषय भी उठाए जाएंगे। फिर सोचिए कि क्या हमारी समाज व्यवस्था होगी? वस्तुतः भारतीय समाज और उसकी मान्यताएं समलैंगिक विवाह को कभी स्वीकार्य नहीं करेंगे। न्यायालय को यह समझना होगा कि समाज का बड़ा हिस्सा क्या चाहता है। सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता सही कह रहे हैं कि समलैंगिक शादी का मसला इतना सरल नहीं है, सिर्फ स्पेशल मैरिज एक्ट में हल्का बदलाव करने से बात नहीं बनेगी। समलैंगिक शादी को मान्यता देना बहुत सारी कानूनी जटिलताओं को जन्म दे देगा। परिवार और पारिवारिक मुद्दों से जुड़े ऐसे कानून जिनमें पति के रूप में पुरुष और पत्नी के रूप में स्त्री को जगह दी गई है, इस प्रकार के इससे 160 दूसरे कानून भी प्रभावित होंगे। इसलिए अच्छा होगा कि इस विषय को यहीं विराम दे दिया जाए और हम यह स्वीकार करें कि भारतीय परिवार व्यवस्था दुनिया की सर्वोच्च सामाजिक व्यवस्था है, जिसमें स्त्री और पुरुष के साथ समाज में मनुष्य गत जितने भी प्रकार के वर्ग, समूह या विविधता हो सकती हैं उनमें समान रूप से परस्पर सहयोग के साथ सभी को उनका स्थान प्राप्त है।
यह परिवार व्यवस्था का ही पुरुषार्थ है कि आज “वर्ल्ड ऑफ स्टैटिक्स” की रिपोर्ट भी दुनिया को यह बता रही है कि कैसे भारतीय परिवार व्यवस्था विश्व की सबसे श्रेष्ठतम सामाजिक व्यवस्था है जिसमें न सिर्फ सभी का स्थान सुरक्षित है बल्कि इसने ममता, दुलार भी समान रूप से सभी को प्राप्त है। यह रिपोर्ट यह समझाने के लिए पर्याप्त है कि भारत में दुनिया के देशों के बीच सबसे कम तलाक या संबंध विच्छेद होते हैं जबकि आज के समय में हम सभी जानते हैं कि भारत जनसंख्या की दृष्टि से दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश है। भारत में तलाक प्रतिशत एक फीसदी है, जबकि वियतनाम में सात, तजाकिस्तान में 10, ईरान में 14, मैक्सिको, मिस्र और साउथ अफ्रीका में 17-17, ब्राजील में 21 और तुक्रिये में 25 प्रतिशत लोग तलाक लेते हैं।
ऐसे में समलैंगिक विवाह की बात करने वाले और उनका समर्थन करने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय संदर्भ में विवाह सिर्फ दो लोगों का साथ रहना, शारीरिक संबंध बनाने तक सीमित रहना भर नहीं है बल्कि इससे आगे विवाह चेतना के स्तर पर परस्पर का मिलन, अनेक परिवारों का आपस में मिलन और सहयोग, विविधताओं के बीच सह अस्तित्व एवं संस्कारों का मिलन है। इसलिए समझदारी इसी में है कि समलैंगिक विवाह जैसे व्यर्थ के विषयों को हम हवा न दें और भारतीय परिवार व्यवस्था के लाभ का अपने जीवन में अधिक से अधिक आनंद उठाएं।