कैलाशचन्द्र पन्त
22 जनवरी 2024। अर्थात्ा पौष शुक्ल द्वादशी संवत्ा् 2080। कालचक्र कैसे बदलता है, इसे देखने वाले करोड़ों लोग सौभाग्यशाली हैं। श्रीराम के बाल विग्रह की प्रतिष्ठा उसी स्थल पर हो रही थी जहां त्रेता में प्रभु श्रीराम का अवतरण हुआ था। आज कल्पना की जा सकती है कि उस दिन अयोध्या के लोगों ने जन्मोत्सव को कैसे मनाया होगा। प्राण प्रतिष्ठा का मुहूर्त आते-आते करोड़ों रामभक्त सब कुछ छोड़कर टी.वी. पर या स्क्रीन पर सिमट गये थे। स्वयं को भूलकर प्रभु श्रीराम का चिन्तन एकाग्र चित्त होकर कर रहे थे। जैसे ही मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई और भगवान का विग्रह दिखाई दिया लोगों ने श्रीराम की जय जयकार की। उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली। हाथ जोड़े एकटक विग्रह के दर्शन करने वालों ने समझ लिया कि हिन्दू क्यों दिव्य प्राणोंपासक हैं। वे मूर्ति की नहीं, साक्षात्ा प्रभु की अनुभूति से जीवन को धन्य कर रहे थे। धन्यता का यह बोध ही भगवान के साक्षात्ा साकार स्वरूप का दर्शन है। इसीलिए आज की पीढ़ी सौभाग्यशाली कही जा रही है। भाव-विभोरता का यही सागर निर्गुण निराकार ब्रह्म का सगुण साकार जवतरण है। यही अवतारवाद है। यही महाचेतना है, ब्रह्म है।
विश्व भर में ईश्वर को लेकर अनेक धारणाएं बनी और मिट गई। यह धारणाएं विवाद का विषय बनी रहीं। अब्राहिमिक सभी मतवाद इस्लाम एक ही स्थान में जन्मे और परस्पर संघर्ष में उलझ गए। आज जिस सभ्यताओं के संघर्ष पर दुनिया भर में विमर्श चल रहा है उसका आधार मुख्यतः इन तीनों मतवादों की उस अवधारणा पर केंद्रित है जो जिद करती है कि जो हम कह रहे हैं, उसे ही मानो। असहमत या विरोध है तो तुम्हें जीने का अधिकार नहीं है। भारत में भी अनेक दार्शनिक सिद्धान्त सामने आए, शास्त्रार्थ भी हुआ पर कटुता या हिंसा को स्थान नहीं दिया गया। इसीलिये सभ्यताओं के संघर्ष की चर्चा के बीच मानवता भारत की ओर आशाभरी दृष्टि से देख रही है। 22 जनवरी को उसने प्रत्यक्ष प्रमाण भी देख लिया कि विभिन्न पंथों, सम्प्रदायों के आचार्यों, सन्तों और विद्वानों ने श्रीराम मंदिर के भव्य निर्माण और प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर समवेत स्वर से न केवल भागीदारी की, प्रत्युत राम मंदिर के दीर्घकालीन संघर्ष की सफलता पर उल्लास प्रकट किया,श्रीराम का अभिषेक भी किया और उन्हें भारत की आत्मा बताया। अब दुनिया को समझ आ गया होगा कि क्यों भारतीय संस्कृति एक हजार वर्षों से ज्यादा समय तक विदेशी आक्रमणों, क्रूरताओं, प्रलोभनों से टकराते हुए अपना अस्तित्व सुरक्षित रख सकी। उन्हें यह भी पता चल गया होगा कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने क्यों कहा था-
यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानं धर्मस्य,
तदात्मानं सृजाक्यज्म्ा्।।
श्रीकृष्ण द्वापर में हुए थे। पर श्रीराम तो त्रेता में अवतार ले चुके थे। उन्हें धर्म का साक्षात विग्रह माना गया। उनकी सत्यनिष्ठा ने सिद्ध किया कि सत्य पर आरूढ़ रहना ही धर्म है। राक्षसों द्वारा ऋषियों के यज्ञ में बाधा पहुंचाना, तपस्वियों की साधना में विघ्न डालना, उनके प्रति हिंसा करना अधर्म है। असुरों से पृथ्वी को मुक्त कराने की प्रतिज्ञा वनवासी राम लेते हैं। अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए अयोध्या से सेना नहीं बुलाते। असुरों से पीड़ित जनों को संगठित करते हैं और उस समय के सर्वाधिक शक्तिशाली राक्षसराज रावण को पराजित करते हैं। श्रीराम ने लंका विजय करने के बाद स्वर्णपुरी की सत्ता विभीषण को सौंपी। उनका वनवासी जीवन संघर्ष में ही बीता था। लेकिन उन्हें जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ का विस्मरण नहीं होता। इस पूरे काल में वे देश प्रेम की संगठित रहने को, धैर्यपूर्वक निर्णय लेने को, और सबको स्नेह देने को महत्व देते रहे तथा सत्य और धर्म संस्थापना की मर्यादा स्थापित करते रहे। तभी तो उन्हें मर्यादा पुरूषोत्तम कहा जाता है। राम का अवतार ही जीवन को मर्यादित कर मानव-मानव के बीच समरसता बढ़ाने का संदेश देने के लिए हुआ। मर्यादा का पालन करना भारतीय संस्कृति की विशिष्ट पहचान है। इसी संस्कृति के सहारे भारत ने क्रूरता और हिंसा के कठिन समय में भी अपनी संस्कृति और संस्कारों को संरक्षित रखा। आज विश्व हमारी आन्तरिक शक्ति से परिचित हो रहा है।
जो लोग पश्चिम की भोगवादी भौतिक सभ्यता के वशीभूत होकर भारत की विशिष्ट अवधारणाओं को अंध विश्वास कहते रहते हैं यदि वे अंधे नहीं हैं, उन्हें प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर करोड़ों भारतीयों के मन में उदित हुए श्रीराम के प्रति अनन्य भाव से परिपूर्ण भक्ति को देखकर समझ आ जाना चाहिये कि गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में निर्गुण-सगुन नहिं कछु भेदा’ क्यों लिखा का। निर्गुण निराकार ब्रह्म के अवतार श्रीराम हिन्दू मन में अवतरित हो गए। अयोध्या में बालकराम नहीं विराजे थे, करोड़ों भक्तों को भी केवल रामत्व की अनुभूति से आल्हादित कर रहे थे। भाव-विभोर उन भक्तों की अनुभूति को समझकर ही नए भारत को नए कालचक्र की गति को समझना होगा।
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