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अतिवादी गठजोड़ ने अमेरिका में पढ़ाई संकट में डाली

  • इं. राजेश पाठक
    ‘इटली में बड़े पैमाने पर चल रहे इस्लामिक-शिक्षा केंद्र सऊदी अरबिया के द्वारा भेजे गए पैसे से पोषित हैं , जिसकी मुझे पूरी जानकारी है. स्त्री-पुरुष के मध्य अवैध सम्बन्ध पर पत्थरों की मार ; मजहब त्यागने और समलैंगिकता पर म्रत्यु दंड जैसे मजहबी विधान की इटली समेत यूरोप आदि ईसाई देशों में कोई स्थान नहीं .’ – ये बात पिछले वर्ष इटली के प्रधानमंत्री जॉर्जिया मैलोनी ने एक सभा में कही थी। इस अवसर पर इंग्लैंड के ऋषि सुनक और अमेरिका के एलन मस्क स्वयं मौजूद थे।
    कोई कुछ भी बोलना चाहे लेकिन धरातल पर वही तय होता है जो डेमोग्राफी (विशिष्ट लोगों का समूह) चाहती है।  लन्दन के चुनाव में सादिक खान को पुन: तीसरी बार मेयर चुन लिया गया है। कारण है कि , 40 % से भी कम लोगों ने मतदान किया, जिसमें जाहिर है यमन-सीरिया-पाकिस्तान मूल के लोग झुण्ड के रूप में के मतदान केंद्र पहुंचे और अंग्रेज़ अत्यल्प संख्या में।  नतीजे में बहुसंख्यक होते हुए भी चुनाव गवां बैठे।  यही फिलिस्तीन समर्थक भीड़ अब अमरीका के विश्वविद्यालयों में अपने मन की करवा लेना चाहती है।  पर जो अपने बच्चों को भेज चुके हैं या जो अमेरिका में पढ़ने के लिए भेजना चाहते हैं, ऐसे भारतीय अभिभावकों को ये जान लेना भी जरूरी है कि इस आन्दोलन की आड़ में उनके बच्चों पर भी कोई नजर गढ़ाए बैठा है !
    वामपंथी- मजहबी अतिवादियों पर जरूरत से अधिक विश्वास किस अन्धकार के बंध-छोर पर ले जाकर पटक सकता है। अमेरिका में प्रिन्सटन यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे भारतीय अचिन्त्य सिवालिंगम को तब समझ में आया जब इजराइल विरोध के चक्कर में गिरफ्तार होकर अपनी डिग्री को ही संकट में डाल बैठे. आज छात्र- आन्दोलन का केंद्र कोलंबिया जरूर है , पर बताया जाता है हमास के द्वारा इजराइल पर हुए हमले के समय से ही हार्वर्ड -यूनिवर्सिटी में छात्रों के समूह इजराइल को दोषी बताते हुए खुला पत्र इंटरनेट पर डालकर साथ जुड़ने के लिए दबाब बना रहे थे। लेकिन जो भारतीय और विदेशी छात्र जुड़ गए अब उनके लिए कोई दया नहीं. क्योंकि उनके लिए कानून ज्यादा सख्त उतरता है, इससे वो भी अनजान नहीं। जो नहीं जुड़े वो भी दुष्परिणम से नहीं बच सकते. क्योंकि आन्दोलन लम्बा खिंचने के बीच वर्तमान सेमेस्टर को कोई भी सुरक्षित बाहर निकलकर नहीं ला सकता। सेमेस्टर का निरस्त होना मतलब भरी खर्चे के बीच वही पढ़ाई लम्बी खिंचना! अब दूरी बना चुकी आन्दोलन में कभी सक्रीय एक कानून की पढ़ाई कर रही भारतीय छात्रा कहती है कि वो ये देखकर अचंभित है कि आखिर इन आन्दोलनकारियों तक पहुंचने वाली कानूनी सहयता , दवाई , खान-पान की वस्तुएं इतनी भारी मात्रा में, वो भी अबाधित , आखिर आ कहाँ से रहीं हैं। जाहिर है आन्दोलन की जड़ें गहरी हैं।

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