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आपातकाल और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

  • सुनील आम्बेकर
    स्वतंत्र भारत में संघ द्वारा मानवीय स्वतंत्रता के लिए सबसे बड़ा लोकतांत्रिक आंदोलन चलाया गया। प्रधानमंत्री के रूप में इंदिरा गांधी ने, जो कि एक तानाशाह जैसा शासन चला रही थीं, लोकतंत्र को समाप्त कर 1975 से आपातकाल घोषित कर दिया। यह 1977 तक इक्कीस माह चला। भारत के संविधान के भाग अठारह में अनुच्छेद 352 से 360 तक आपातकाल संबंधी उपबंध हैं, जिनमें उन असाधारण परिस्थितियों से निपटने के उपायों का उल्लेख है, जिनमें संविधान के अनुरूप सरकार चलाना संभव न हो। श्रीमती गांधी ने ‘आंतरिक उपद्रव’ के आधार पर आपातकाल की घोषणा की।
    आपातकाल की घोषणा से संबंधित प्रेस विज्ञप्ति में उल्लेख है कि ‘कुछ लोगों ने पुलिस और सशस्त्र बलों को उनकी ड्यूटी के विरुद्ध भड़काया और उन्हें ठीक प्रकार से अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं करने दिया। 25 जून, 1975 को अनुच्छेद 352 के अधीन आपातकाल की यह उद्घोषणा वास्तव में सरकार के विरुद्ध देशभर में भ्रष्टाचार तथा बढ़ती कीमतों के विरोध में होनेवाले आंदोलनों के कारण की गई थी। श्रीमती गांधी अपना एकच्छत्र आधिपत्य चाहती थीं, फलतः उन्होंने आपातकाल की आड़ में संविधान की मूल आत्मा को ही समाप्त कर 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 की घोषणा कर दी। आगे चलकर 1980 में मिनर्वा मिल्स मामले के निर्णय द्वारा संशोधन के इस प्रकार के प्रावधान समाप्त किए गए।
    1978 में 44वें संशोधन दुवारा ‘आंतरिक उपद्रव के स्थान पर ‘सशस्त्र विद्रोह’ कर दिया गया। 1978 के बाद से केवल ‘आंतरिक उपद्रव’, जो कि ‘सशस्त्र विद्रोह’ की परिभाषा के अधीन नहीं आता, के आधार पर आपातकाल की घोषणा करना संभव नहीं रह गया। आज भी देश में यही संवैधानिक स्थिति है। आपातकाल की घोषणा के तुरंत बाद श्रीमती गांधी और कांग्रेस पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष देव कांत बरुआ ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समाप्त करने के अपने मंतव्य को स्पष्ट कर दिया। 27 जून, 1975 को केंद्रीय सचिवालय के अधिकारियों की एक बैठक में श्रीमती गांधी ने आंतरिक उपद्रव के लिए संघ को मूल रूप से दोषी ठहराया। लगभग उसी समय, युवा कांग्रेस के नेताओं के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए बरुआ ने कहा, हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पूर्ण रूप से नष्ट करना चाहते हैं। उन्हें पुनर्संगठन का अवसर नहीं मिलना चाहिए।
    इंदिरा गांधी शासन ने 4 जुलाई, 1975 को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया। आपातकाल के दौरान सभी मूलभूत अधिकार स्थगित कर दिए गए, यहाँ तक कि अधिकारों की प्राप्ति के लिए न्यायालय में याचिका दायर करने का अधिकार भी स्थगित कर दिया गया। इसलिए केवल जन-आंदोलन तथा संघर्ष ही एकमात्र विकल्प बचा था। आपातकाल के विरोध में आंदोलन खड़ा करने के लिए सभी पार्टियों ने अनुभवी व कद्दावर गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी,जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में एकजुट होकर ‘लोक संघर्ष समिति’ का गठन किया।
    1975 में 15 से 25 जुलाई तक राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह की योजना तैयार की गई। इस सत्याग्रह की योजना के क्रियान्वयन की जिम्मेवारी उस समय के संघ के प्रमुख कायकर्ता नानाजी देशमुख को सौंपी गई। स्वयंसेवकों के लिए कांग्रेस सरकार के दमनचक्र तथा अत्याचारों का विरोध करना प्राथमिक काम था। इस प्रतिबंध ने किसी के मन में भय नहीं उत्पन्न किया, अपितु साहस को और बढ़ा दिया। इस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने असाधारण शक्ति के साथ आपातकाल विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया। पचास वर्ष के सतत कार्य के फलस्वरूप देशभर में बड़ी संख्या में निष्ठावान स्वयंसेवक खड़े हो चुके थे। उस समय भारत में 1,356 प्रचारक थे। इनमें से 189 जेल के अंदर थे तथा शेष भूमिगत होकर सक्रिय रूप से काम में लगे थे।
    बेशक शाखाओं पर प्रतिबंध था, किंतु शाखा पद्धति प्रभावी रूप से काम कर रही थी। शाखा केवल कुछ शारीरिक गतिविधियों में भाग लेने का ही नाम नहीं है, बल्कि संघ का कार्यरूप आचारशास्त्र है, जो चट्टान की तरह दृढ़ रहती है और आज्ञापालन तथा अपने दायित्वों की पूर्ति का स्मरण कराती है। आपातकाल विरोधी आंदोलन के दौरान इस सबका भरपूर उपयोग किया गया। स्वयंसेवकों ने एक-दूसरे के साथ सहयोग करते हुए घोर अत्याचारी शासन के विरुद्ध संघर्ष किया और भारत में लोकतंत्र एवं स्वतंत्रता को पुनःस्थापित किया।
    अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने इस आंदोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। विद्यार्थी समुदाय द्वारा भी सामाजिक आक्रोश की अभिव्यक्ति हुई। यह एक तरह से स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विद्यार्थी-सक्रियता की पुनरावृत्ति थी।
    गुजरात में विद्यार्थी आंदोलन प्रारंभ हुआ, उसके पश्चात बिहार आंदोलन शुरू हुआ, जिसमें लोकतंत्र के संबंध में युवा-वर्ग ने अपने संकल्प की घोषणा की। गुजरात में छात्रावासों में भोजनालय के बड़े बिलों (अनावश्यक शुल्क वृद्धि) के विरोध के साथ यह सब प्रारंभ हुआ। शीघ्र ही यह बिहार तथा अन्य राज्यों में कांग्रेस सरकार तथा इसकी दमनकारी नीतियों के विरुद्ध महँगाई एवं भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के रूप में फैल गया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने गुजरात और बिहार के आंदोलनों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
    संघ से संबद्ध होने के कारण इसका चरित्र एक विद्यार्थी संगठन के रूप में ही बना रहा एवं किसी दलगत राजनीति के साथ यह नहीं जुड़ा, जबकि उस समय चलनेवाले अधिकांश विद्यार्थी संगठनों के लिए यह बहुत बड़े आकर्षण का विषय था। आपातकाल विरोधी आंदोलन ने भविष्य के लिए हमें बहुत महत्त्वपूर्ण सीख दी। इसने सिद्ध किया कि परिस्थितियाँ चाहे कितनी ही कष्टपूर्ण क्यों न हों, संघ अपने सामाजिक उद्देश्य से कभी भटका नहीं।
    संघ के मूल्यों ने भारतीय राजनीति की प्रकृति को भी प्रभावित किया है। राजनीति तथा अच्छे राजनीतिक दलों के संबंध में संघ की एक संकल्पना है, किंतु यह स्वयं को राजनीति से दूर रखता है। संघ अनुभव करता है कि यहाँ बहुत से राजनीतिक दल होंगे, किंतु वे सब प्राचीन भारतीय परंपरा एवं श्रद्धा-बिंदुओं का सम्मान करेंगे। वे आधारभूत मूल्य तथा हिंदू सांस्कृतिक परंपरा के संदर्भ में एकमत होंगे। मतभेद तो होंगे, किंतु वे केवल विचारों तथा देश के विकास के प्रारूपों के संदर्भ में ही होंगे।
    (सौजन्यः‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघः ,स्वर्णिम भारत के दिशा सूत्र’)

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