55
- सुरेश हिंदुस्तानी
भारत में एक समय ऐसा भी था ज़ब राजनीति से आम जनमानस का विश्वास समाप्त होता जा रहा था। राजनीतिक दलों से जो अपेक्षा थी, सब जनता की इन अपेक्षाओं पर पानी फेरते दिखाई दे रहे थे। उस समय देश की यह अवधारणा बन गई थी कि अब भारत की राजनीति ऐसे ही चलती रहेगी। लेकिन 2014 के बाद देश ने एक नई राजनीति का साक्षात्कार किया। एक ऐसी राजनीति जिसमें सपने भी थे और एक उम्मीद भी थी।
आज इस समय को दस वर्ष का समय व्यतीत हो गया है। सपने पूरे हुए या नहीं, यह तो परीक्षण का विषय है, लेकिन आज की राजनीति बदली हुई दिखाई देती है, यह अवश्य ही कहा जा सकता है। लेकिन आज भी जिस प्रकार से सत्ता प्राप्त करने की लालसा लेकर राजनीतिक दल राजनीति कर रहे हैं, वह प्रथम दृष्टया यही परिलक्षित कर रहे हैं कि राजनीतिक दलों के पास अपने कोई स्थायी सिद्धांत नहीं हैं। विपक्ष के दल वर्तमान केंद्र सरकार को घेरने के लिए कई प्रकार के राजनीतिक दांव पेच खेल रहे हैं, वहीं सत्ता धारी दल भाजपा भी किसी भी तरीके से पीछे नहीं कही जा सकती।
इस प्रकार की राजनीति के चलते देश का आम जनमानस निश्चित रूप से भ्रम की अवस्था में है। सारे दल अन्य दलों से अपने आपको बेहतर बताने की राजनीति कर रहा है। इसके लिए कुछ राजनीतिक दल अपने हिसाब से तर्क भी दे रहे हैं। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि इस बार विपक्षी दलों के राजनेता सधे हुए क़दमों से अपनी पारी को अंजाम दे रहे हैं। क्योंकि पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान जिस प्रकार से कांग्रेस नेता राहुल गांधी द्वारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सार्वजनिक रूप से चोर कहने का दुस्साहस किया गया, उससे कांग्रेस की फ़जीहत हो गई थी, इतना ही नहीं राहुल गांधी को माफ़ी भी मांगनी पड़ी। इस बार परिदृश्य बदला हुआ है। विपक्ष के नेता सरकार को लक्ष्य करके आलोचना कर रहे हैं। लेकिन ऐसा लगता है कि इन आलोचनाओं में भी वह धार नहीं है कि वह अकेले दम पर सरकार बनाने का सामर्थ्य पैदा कर सकें। वर्तमान लोकसभा के प्रचार में विपक्षी दलों की ओर से जिस प्रकार की सक्रियता दिखाई जा रही है, उससे कमोवेश ऐसा ही लगता है कि विपक्ष ने इस चुनाव को आरपार की लड़ाई बना दिया है। यह सभी जानते हैं कि मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाने वाली कांग्रेस पार्टी लम्बे समय तक सत्ता का सुख भोगा है, इसलिए यह कहा जाना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि कांग्रेस के नेताओं को सत्ता में बने रहने की आदत सी हो गई है। उनके बयानों में भी सत्ता प्राप्त करने की तड़प दिखाई देती है। यही तड़प चुनावी बयानों में पैनापन ला रही है।
देश में अब दो चरणों के मतदान संपन्न हो चुके हैं, बचे हुए पांच चरणों के मतदान के लिए जोर आजमाईश की जा रही है। चुनावी रैलियों में राजनेताओं के बयानों की व्याख्या निकालने का क्रम भी चल रहा है। किसी बड़े मुद्दे पर समाचार चैनलों पर बहस भी होती है। इन बहस में सभी नेता अपने हिसाब से अर्थ निकाल कर बहस करते हैं। कोई किसी के कम नहीं दिखता, लेकिन इन बहस में लगभग विवाद जैसी स्थिति बनती दिखाई देती है। एक दूसरे से लड़ने की मुद्रा में आने वाले यह राजनेता शायद इस बात को भूल जाते हैं कि इसे जनता भी देख रही है और आज की जनता यह भी जानती है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। राजनेताओं द्वारा दावे के साथ कही जाने वाली किस बात को जनता सही माने, आज यह सबसे बड़ी चिंता है।
चैनलों पर जो बहस होती है, उसमें अपनी पार्टी के विचार को कम रखा जाता है, सामने वाले की बात को जोरदार तरीके से नकारने की ही राजनीति की जाती है। विपक्षी नेताओं को इन्हीं बहसों के दौरान एंकरों पर दबाव बनाते हुए भी देखा और सुना जा सकता है। यह बहस का सारा खेल जनता को गुमराह करने वाला होता है। इसमें पूरी तरह से आम जन के मुद्दों का अभाव ही रहता है।