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सती के तेज से विधाता को विधि का विधान भी बदलना पड़ा

  • सुरेश सिंह बैस ‘शाश्वत’
    इस व्रत की असीम महिमा है। इस वृतांत में सतीत्व के प्रताप से कालपुरुष को भी बेबस होते देख सकते हैं ,तो वहीं इसके साथ – साथ पर्यावरण की सुरक्षा और दैवीय शक्ति का प्रमाण भी मिलता है। आज इस प्रदूषित वातावरण में स्वांस लेती दुनिया को जितनी आवश्यकता स्वच्छ वायु और स्वस्थ पर्यावरण की है, उतनी और किसी चीज की नहीं है। इसका संदेश पौराणिक काल से चली आ रही इस सतीसावित्री की वटपूजा से हमें मिलता है। पुरुष प्रभुत्व समाज में स्त्री को अबला बना दिया गया, ऐसी भ्रांतियों पर भी वज्राघात करता, इस पूजा का इतिहास हमें बताता है, कि स्त्री की शक्ति प्रचण्ड है। जिसके वेग से काल चक्र भी अपनी गति भूल जाते हैं।
    वट सावित्री पूजा का प्रारंभ सावित्री नामक महान सती नारी के सतीत्व की कसौटी पर आधारित है। सती सावित्री का पति के प्रति सच्ची निष्ठा, अद्भुत प्रेम और पति परायणता का अन्य दूसरा मिसाल अन्यत्र और कहीं नहीं मिलेगा। सावित्री की सत्यनिष्ठा मृत्यु को और मृत्यु के साक्षात देवता यमराज को भी जीत लेती है। सावित्री जैसी महान स्त्री ने (पुरुष) पति से बढ़कर संसार में और कोई वर नहीं! ऐसे हिंदू और पति प्रणेता की अप्रतिम मिसाल रखी है। ऐसी स्त्री जाति की महानतम त्याग समर्पण और प्रेम की परंपरा डालने वाली सती सावित्री एक स्त्री ही तो थी, जिसने पुरुष के अहं को हमेशा सहा और कभी उसके खिलाफ उफ तक नहीं किया। पर उसी (पुरुष) पति के जीवन बचाने के लिये वह साक्षात रणचंडी का रूप धारण कर सकती है। और मृत्यु (यमराज) को भी अपना निर्णय बदलने पर विवश कर सकने वाली अमोध शक्ति का उदाहरण बनकर दिखा सकती है। स्त्री की उसी त्याग शक्ति और पतिव्रता की परंपरा को बनाये रखने के लिये आज भी हिन्दू स्त्रियाँ अपने पति की लंबी उम्र और कुशलता के लिये वट सावित्री की पूजा ,पूरे मन वचन कर्म से करती हैं।
    वट वृक्ष जिसमें ब्रम्हाजी का वास माना जाता है। उसे ही पति का प्रतीक मानकर इस व्रत में पूजा जाता है। वट वृक्ष की पूजा करने का एक और कारण यह भी है कि सती सावित्री ब्रम्हाजी से वरदान पाकर ही अपने पति सत्यवान को जीवनदान दिला पाती है। सावित्री व्रत पूजा के दिन प्रातः सूर्योदय के समय ही हर सुहागन स्त्री नित्यकर्म से होकर एवं निराहार रहकर वह व्रत रखती हैं। इसकी पूजा पूरे दिन की जा सकती है, पर दोपहर की संधि बेला सबसे अत्युत्तम मानी गई हैं। नववधु पूर्ण श्रृंगार का पूजा करती है।
    वट सावित्री पूजा की सामग्री में कच्चा धागा, कच्चे धागे का ही बनाया हुआ माला, बांस निर्मित पंखा चंदन सुहाग की पूरी सामग्री, फेरे लगाने (वृक्ष) की बड़ी, फल, चना भीगा हुआ, नारियल, पूड़ी और मीठे आटे का बरगद फल भी बनाकर रखी जाती है।
    पूजा विधि: सबसे पहले वट वृक्ष में जल चढ़ाते हैं। फिर चंदन व प्रसाद, फल आदि चढ़ाकर वट वृक्ष की परिक्रमा की जाती है। परिक्रमा अपनी श्रद्धा और शक्ति अनुसार ग्यारह, इक्कीस, इंक्यावन या एक सौ एक बार की जा सकती है। परिक्रमा के दौरान चना, मूँगफली, इलायची आदि अपनी इच्छानुसार कच्चे धागे को भी लपेटकर अर्पित किया जाता है।

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