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मतदान से मतदाता का मन भांपना मुश्िकल

  • प्रमोद भार्गव
    लोकसभा चुनाव के दौरान अब तक संपन्न हुए पांच चरणों के मतदान का प्रतिशत 2019 की तुलना में कम ही रहा है। पांचवें चरण में भी मतदान का प्रतिशत 59.14 रहा। जबकि 2019 में यह प्रतिशत 62 रहा था। उत्तर प्रदेश जहां राम-मंदिर निर्माण के मुद्दे को लेकर भाजपा को उम्मीद थी कि यहां मतदान प्रतिशत बढ़ेगा, लेकिन यहां कि 14 लोकसभा सीटों पर हुए चुनाव में 57.79 प्रतिशत मतदान रहा। जबकि 2019 में यह प्रतिशत 58.53 था। लेकिन खुशी की बात है कि जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में मतदान का प्रतिशत उम्मीद से कहीं ज्यादा रहा है। जम्मू-कश्मीर में 59 तो लद्दाख में 67.15 प्रतिशत रहा। इससे पता चलता है कि तीन दशक तक आतंक और अलगाववाद की गिरफ्त में रही इस घाटी में जनता ने धारा-370 के खात्मे को स्वीकार कर लिया है। पश्चिम बंगाल में पांचवें चरण में सबसे ज्यादा 73.14 तो महाराष्ट्र में सबसे कम 53.67 प्रतिशत मतदान रहा। साफ है, राजनीतिक दलों और निर्वाचन आयोग के संयुक्त प्रयासों के बावजूद मतदान का न बढ़ना लोकतंत्र के लिए चिंताजनक पहलू है।
    हालांकि अब तक हुए पांच चरणों में लगभग एक से दो प्रतिशत कम रहा मतदान कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं है। अतएव एकाएक यह नहीं कह सकते कि यह घटा हुआ मतदान राजग को सत्ता से बाहर कर देगा, बल्कि अभी तक जितना मतदान हुआ है, वह सत्तापक्ष का ही समर्थन करता दिख रहा है। खासतौर से पहले दो चरणों में कम मतदान का कारण मतदाता की मतदान से बेफिक्री भी रही थी। दरअसल, भाजपा और उसके सहयोगी संगठनों के समर्थक मतदाता और कार्यकर्ता इस सोच में हैं कि नरेन्द्र मोदी सरकार का फिर से सत्ता में आना तय है। दूसरी तरफ कांग्रेस और आइएनडीआइए गठबंधन का मतदाता इसलिए निराश है, क्योंकि वह जानता है कि इस गठबंधन के पास न तो कोई केंद्रीय नेतृत्व है, न ही राष्ट्रीय दृष्टिकोण और न ही प्रचार के संसाधन, इसलिए इंडी गठबंधन राजग से मुकाबले में बहुत पीछे है। यह सोचकर मतदाता मान बैठा है कि कांग्रेस या इंडी गठबंधन को वोट दे भी दिया जाए तो उससे इच्छित परिणाम निकलने वाला नहीं है। एक ओर कारण है, शुरुआती दो चरणों में हुए मतदान के दौरान बड़ी संख्या में विवाह हो रहे थे, इसलिए लोग बड़ी संख्या में अपने मतदान केंद्रों से दूर किसी शहर या गांव में थे, अतएव मतदान करने से वंचित रह गए।
    बावजूद इसके जिन सीटों पर मतदान कम रहा है, उसका प्रमुख कारण चुनाव का इकतरफा हो जाना भी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने दूसरी बार सत्ता संभालने के बाद अनेक बुनियादी मुद्दों का संवैधानिक निराकरण तो किया ही, देशव्यापी लोक-कल्याणकारी योजनाओं को भी कामयाबी के साथ जमीन पर उतारा। इनके असर के चलते अधिकांश सीटों पर इकतरफा मतदान का रुख देखने को मिल रहा है। यही रुख नरेन्द्र मोदी के संकल्प अर्थात 400 सीटें राजग की झोली में डालता दिखाई दे रहा है। मोदी ने जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35-ए के खात्मे के साथ देश में तीन तलाक कानून खत्म करने जैसे महत्वपूर्ण फैसले लिए। इसका परिणाम रहा कि जम्मू-कश्मीर में मतदान का प्रतिशत उछाल मार रहा है। 10 वर्ष पहले का कश्मीर देखते हुए यह एक चमत्कार ही है।
    अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण का रास्ता भी नरेन्द्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में ही खुला और राम मंदिर में रामलला की मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा वैदिक रीति से गरिमा के साथ संपन्न हुई। इस आयोजन के आमंत्रण को ठुकराकर कांग्रेस ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम किया। इसी के बाद से मतदाता की मानसिकता भाजपा के पक्ष में और अधिक झुकी दिखाई दे रही है। नतीजतन, मतदाता इस भ्रम में उदासीन रहा कि भाजपा तो जीत ही जाएगी, अतएव मेरे एक वोट डालने से कुछ बिगड़ने वाला नहीं है। इसी इकतरफा माहौल के चलते कुलीन मतदाता घरों से बाहर नहीं निकला।
    दो चरणों में मतदान कम रहने से मोदी समर्थक मतदाता सचेत हो गया। एक बड़े वर्ग को लगा कि यदि वह मतदान करने घर से नहीं निकला, तो कम प्रतिशत कहीं मोदी सरकार को सत्ता में लौटने में परेशानी न पैदा कर दे? लोगों को वह कहानी भी याद आ गई होगी कि गांव का अकाल मिटाने के लिए जब ग्रामीणों को कहा गया कि सूखे तालाब में एक-एक लोटा दूध डालने से जब तालाब भर जाएगा, तो गांव का अकाल दूर हो जाएगा। किंतु यह सोचकर प्रत्येक ग्रामीण पानी का भरा लोटा डाल आया कि मेरे अलावा तो शेष मतदाता दूध का भरा लौटा डाल ही रहे हैं। अंततः नतीजा यह रहा कि तालाब दूध से नहीं भर सका और गांव का अकाल न मिट सका।
    शुरुआती दो चरणों के मतदान प्रतिशत के कम रहने पर तीसरे, चौथे और पांचों चरण के मतदाता ने यही सोचा कि यदि मैं अपना मत देने नहीं गया तो गांव के अकाल की तरह देश में स्पष्ट बहुमत वाली सत्ता का अकाल पड़ जाएगा। यह सोच भी मतदान प्रतिशत बढ़ाने का एक कारण रहा। कुछ लोग यह सोचकर भी सिहर गए होंगे कि कहीं स्पष्ट बहुमत न मिलने पर खिचड़ी सरकार का दौर न लौट आए, जिसमें उलझकर भारत ने अपने महत्वपूर्ण दो-तीन दशक बर्बाद कर दिए। मतदान के शेष अगले चरणों में यदि मतदान 70 से 75 फीसदी से ऊपर पहुंचता है, तो यह स्थिति लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत रहेगी। यह वजह कालांतर में अल्पसंख्यक समुदायों व जातीय समूहों को वोट बैंक की लाचारगी से मुक्ति दिलाएगाी। दलों को भी तुष्टिकरण की राजनीति से छुटकारा मिलेगा।

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