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- डॉ. दर्शिनी प्रिया
देश की चार महिला मुक्केबाजों ने स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रचा है। नीतू घनघस, निकहत जरीन, लावलीना बोरगोहेन और स्वीटी बोरा जैसी बेटियों ने भारत का सिर गर्व से ऊंचा किया है। निश्चित ही सभी भारतीयों के लिए ये गर्व का विषय है। बेटियां देश बदल रही हैं। हमारे देश की संसदीय कार्यप्रणाली में समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने और उन्हें समान अवसर देने की बात बार बार दोहराई गई है। देश की आधी आबादी को न्यायपालिका‚ कार्यपालिका और विधायिका और समाज के सभी क्षेत्रों में समान अवसर और समान प्रतिनिधित्व मिले इसकी भी समय–समय पर अनुशंसा की जाती रही है‚ लेकिन एक सवाल ये भी है कि क्या केवल किसी एक किसी क्षेत्र विशेष में सफलता अर्जित कर लेने मात्र से आधी आबादी का समेकित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो जाता है। घर हो या दफ्तर अभी भी वहां महिलाओं की दावेदारी प्रबल नहीं दिखती। उन्हें घर में और बाहर वित्तीय नेतृत्व की मुख्य धारा से जोड़ना न केवल समीचीन होगा अपितु प्रजातांत्रिक मूल्यों को मज़बूत करने के लिहाज से भी महत्वपूर्ण होगा। इसके अलावा लिंग आधारित हिंसा, बाल विवाह, मातृत्व पीड़ा और शिशु मृत्यु दर में वृद्धि, शिक्षा और आजीविका के अवसर कम होने तथा यौन और प्रजनन स्वास्थ्य सुविधाओं की सुलभता का संकट जैसी हजारों छोटी बड़ी समस्याएं कहीं न कहीं उनके तेवर ढीले कर रही है। ऐसे में समय रहते इनका निस्तारण भी स्मायनुकूल होगा। खेल के क्षेत्र में भी कई बार महिला खिलाडिÃयों को मानसिक और शारीरिक शोषण से दो चार होना पड़ता है। उनके लिए एक सुरक्षित और संतुलित वातावरण बनाया जाए तो कुछ बात बनें। उन्हें सुरक्षा, सम्मान और संबल मिलेगी तभी असल सफलता की इबारत दर्ज होगी। घर के आर्थिक फैसलों में वे बराबरी का हक रखे और जीवन की किताब में आत्मनिर्भरता का पन्ना जोड़ पाए तो भी राह थोड़ी आसान हो। स्वयं सिद्धा नारी को भेदभाव की आंच में पकाकर कमजोर न किया जाय। मजबूत बनाने की शुरुआत उनके जन्म के साथ हो।