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दादा साहेब फाल्के ने ही रखी थी भारतीय सिनेमा की नींव

  • योगेश कुमार गोयल
    नासिक के एक संस्कृत विद्वान गोविंद सदाशिव फाल्के उर्फ दाजीशास्त्री के घर जन्मे धुन्धी राज गोविन्द फाल्के, जिन्हें बाद में दादा साहेब फाल्के के नाम से जाना गया, एक डायरेक्टर के साथ-साथ जाने-माने प्रोड्यूसर और स्क्रीनराइटर भी थे।
    महाराष्ट्र में नासिक के निकट त्रयंबकेश्वर में 30 अप्रैल 1870 को जन्मे दादा साहेब फाल्के को भारतीय सिनेमा का जनक माना जाता है, जो केवल एक फिल्म निर्देशक ही नहीं थे बल्कि ऑलराउंडर थे। हालांकि फिल्मों के क्षेत्र में स्थापित होने से पहले फाल्के साहब ने कई अन्य क्षेत्रों में भी किस्मत आजमाई। 1895 में उन्होंने एक पेशेवर फोटोग्राफर बनने का निर्णय लिया। वह ऐसा दौर था, जब यह मिथक फैला हुआ था कि कैमरा किसी व्यक्ति के शरीर से सारी ऊर्जा खींच लेता है, जिससे उसकी मृत्यु हो जाती है।
    इसी धारणा के कारण उन्हें फोटोग्राफी के कैरियर में लोगों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। उसके बाद उन्होंने नाटक कम्पनियों के लिए मंच के पर्दों को रंगने का व्यवसाय शुरू किया, जिससे उन्हें नाटक निर्माण में कुछ बुनियादी प्रशिक्षण मिला और नाटकों में कुछ छोटी भूमिकाएं भी मिली। उन्होंने एक जर्मन जादूगर से जादू के कुछ करतब सीखे, जिससे उन्हें फिल्म निर्माण में ट्रिक फोटोग्राफी का उपयोग करने में मदद मिली।
    दादा साहेब फाल्के की पहली फिल्म थी ‘राजा हरिश्चन्द्र’, जिसे ‘भारत की पहली फुल लेंथ फीचर फिल्म’ का दर्जा हासिल है। उस बहुत पुराने दौर में भी फाल्के साहब की फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ का बजट 15 हजार रुपये था। 3 मई 1913 को रिलीज हुई वह फिल्म भारतीय दर्शकों में बहुत लोकप्रिय हुई थी और उसकी सफलता के बाद से ही दादा साहेब फाल्के को भारतीय सिनेमा का जनक कहा जाने लगा।
    ‘राजा हरिश्चन्द्र’ की जबरदस्त सफलता के बाद फाल्के साहेब का हौंसला इतना बढ़ा कि उन्होंने अपने 19 वर्ष लंबे कैरियर में एक के बाद एक 100 से भी ज्यादा फिल्मों का निर्माण किया, जिनमें 95 फीचर फिल्में और 27 लघु फिल्में शामिल थी। उनकी बनाई धार्मिक फिल्में तो दर्शकों द्वारा बेहद पसंद की गई। दादा साहेब की जिंदगी में वह दिन उनके कैरियर का टर्निंग प्वाइंट माना जाता है, जब उन्होंने ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ नामक एक मूक फिल्म देखी थी, जिसे देखने के बाद उनके मन में कई विचार आए। वह फिल्म देखने के पश्चात् उन्होंने दो महीने तक शहर में प्रदर्शित सारी फिल्में देखी और तय किया कि वे फिल्में ही बनाएंगे। आखिरकार उन्होंने अपनी पत्नी से कुछ पैसे उधार लेकर अपनी पहली मूक फिल्म बनाई।
    फाल्के साहेब अक्सर कहा करते थे कि फिल्में मनोरंजन का सबसे उत्तम माध्यम हैं, साथ ही ज्ञानवर्द्धन के लिए भी बेहतरीन माध्यम हैं। उनका मानना था कि मनोरंजन और ज्ञानवर्द्धन पर ही कोई भी फिल्म टिकी होती है। उनकी इसी सोच ने उन्हें एक ऊंचे दर्जे के फिल्मकार के रूप में स्थापित किया। उनकी फिल्में निर्माण व तकनीकी दृष्टि से बेहतरीन थी, जिसकी वजह यही थी कि फिल्मों की पटकथा, लेखन, चित्रांकन, कला निर्देशन, सम्पादन, प्रोसेसिंग, डवलपिंग, प्रिंटिंग इत्यादि सभी काम वे स्वयं देखते थे और कलाकारों की वेशभूषा का चयन भी अपने हिसाब से ही किया करते थे। फिल्म निर्माण के बाद फिल्मों के वितरण और प्रदर्शन की व्यवस्था भी वे स्वयं संभालते थे। उन्होंने अपनी कुछ फिल्मों में महिलाओं को भी कार्य करने का अवसर दिया। उनकी एक फिल्म ‘भस्मासुर मोहिनी’ में दुर्गा और कमला नामक दो अभिनेत्रियों ने कार्य किया था। दादा साहेब की आखिरी मूक फिल्म ‘सेतुबंधन’ थी और उन्होंने कोल्हापुर नरेश के आग्रह पर 1937 में अपनी पहली और अंतिम बोलती फिल्म ‘गंगावतरण’ बनाई थी।
    दादा साहेब द्वारा बनाई गई फिल्मों में राजा हरिश्चंद्र, मोहिनी भस्मासुर, सत्यवान सावित्री, लंका दहन, श्रीकृष्ण जन्म, कालिया मर्दन, बुद्धदेव, बालाजी निम्बारकर, भक्त प्रहलाद, भक्त सुदामा, रूक्मिणी हरण, रुक्मांगदा मोहिनी, द्रौपदी वस्त्रहरण, हनुमान जन्म, नल दमयंती, भक्त दामाजी, परशुराम, श्रीकृष्ण शिष्टई, काचा देवयानी, चन्द्रहास, मालती माधव, मालविकाग्निमित्र, वसंत सेना, बोलती तपेली, संत मीराबाई, कबीर कमल, सेतु बंधन, गंगावतरण इत्यादि प्रमुख थी। 16 फरवरी 1944 को यह महान शख्सियत दुनिनंत शून्य में विलीन हो गई लेकिन भारतीय सिनेमा को शानदार फिल्मों की ऐसी सौगात सौंप गई, जिनकी महत्ता आने वाली सदियों में भी कम नहीं होगी। 1971 में भारतीय डाक विभाग ने दादा फाल्के के सम्मान में डाक टिकट भी जारी किया था।

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