86
- शंभूनाथ शुक्ल
भारतीय नागरिकों को विदेश मंत्रालय ने चेताया है, कि वे फिलहाल ईरान अथवा इजराइल की यात्रा न करें। यह संकेत है कि मध्यपूर्व और पश्चिम एशिया की तरफ हालात बहुत खराब होते जा रहे हैं। अभी तक तो हमास और इजराइल के बीच गाजा पट्टी पर ही लड़ाई चल रही थी। किंतु अब ईरान भी इस युद्ध में कूद पड़ा है। इस क्षेत्र में स्थितियां हाथ से निकलती जा रही हैं, हमास तोफिलिस्तीन का एक उग्रवादी गुट है मगर ईरान संयुक्त राष्ट्र का सदस्य और संप्रभु देश है। ईरान के पास हर तरह के हथियार हैं, कहा तो यह भी जा रहा है कि ईरान के पास परमाणु हथियार भी हैं। इजराइल को ईरान के हमले से तगड़ा झटका लगा है। जाहिर है, वह इसका बदला जरूर लेगा। ऐसी स्थिति में अमेरिका और रूस भी चुप नहीं बैठेगा, अमेरिका इजराइल की तरफ से युद्ध में कूद सकता है तो रूस ईरान की तरफ से, इसका नुकसान एशिया की दो बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं- चीन और भारत पर गंभीर रूप से पड़ेगा।
फिलिस्तीन के सशस्त्र अतिवादी गुट हमास का पड़ोसी है ईरान, इसलिए हमास को ईरान का मूक समर्थन भी रहा है। दोनों मुस्लिमबहुल हैं, इजराइल जिस तरह हमास को तबाह करने में जुटा है, इसके विरोध में ईरान अक्सर अपने सुर तेज करता रहा है। इजराइली प्रधानमंत्री नेतन्याहु ने ईरान को धमकियां भी दीं, एक अप्रैल को सीरिया में ईरानी दूतावास पर जो हमला हुआ था, उसमें इजराइल का हाथ बताया गया था। ईरान लगातार यह आरोप लगा रहा था। पर कुछ न होते देख ईरान ने 13 अप्रैल को ड्रोन और मिसाइलों के जरिए इजराइल पर जबर्दस्त धावा बोल दिया। कहा जा रहा है, इजराइल इसका बदला जरूर लेगा। परंतु बिना अमेरिकी मदद के वह ईरान पर प्रत्यक्ष हमला नहीं कर सकता। अगर ऐसा हुआ तो तीसरे विश्व युद्ध को रोकना मुश्किल हो जाएगा। एशिया में अमेरिका की सीधी दखल को रोकने के लिए रूस ईरान की तरफ से मैदान में आ जाएगा।
युद्ध शुरू हो गया तो चीन और भारत के लिए बड़ी मुसीबत आने वाली है। इन दोनों देशों की अर्थ व्यवस्था जिस तरह बढ़ रही है, वह योरोप और अमेरिका के लिए चुनौती है। इसलिए ये दोनों देश अगर युद्ध में किसी का पक्ष लेते हैं तो इनकी GDP पर असर जरूर पड़ेगा। इसलिए इनके लिए यह बड़ा धर्मसंकट होगा। हथियारों के मामले में रूस और अमेरिका जिस जगह खड़े हैं, बाकी देश उनसे बहुत पीछे हैं, चीन और भारत की समृद्धि की बड़ी वजह इनकी बढ़ती आबादी है। खासतौर पर भारत में युवा आबादी इतनी अधिक है, कि सबसे सस्ता श्रम भी यहीं है। मध्य पूर्व के देश यदि तीसरे विश्व युद्ध का मैदान बनते हैं तो इस सस्ते श्रम की आवाजाही भी बंद होगी। यह अरब देशों और यूरोप दोनों के लिए मुश्किल में डालने वाला होगा।
पिछले दो विश्वयुद्धों में रणभूमि योरोप रहा, इसलिए बर्बादी उसके मत्थे गई थी। सेकंड वर्ल्ड वार में पूर्वी एशिया का एक देश जापान था। उसके हमलावर तेवरों का नतीजा अमेरिका के पर्ल हार्बर को ध्वस्त करने के रूप में दिखा था। अमेरिका ने इसका बदला हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बम गिरा कर लिया। इसके बाद जापान की जो दुर्गति हुई कि उसे वर्षों तक भुलाया नहीं जा सका। इसलिए इजराइल द्वारा ईरान से बदला लेने का इरादा पश्चिम एशिया की बर्बादी का कारण बनेगा। ईरान मुस्लिम देशों के बीच थोड़ा अलग-थलग रहता है, इसकी एक वजह तो ईरान का शिया देश होना है, दूसरे अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते उसकी बिगड़ती अर्थ व्यवस्था है। कच्चे तेल से वह समृद्ध भले हो लेकिन आर्थिक रूप से वह पश्चिम एशिया के अन्य मुस्लिम देशों की तुलना में पिछड़ा हुआ है।
1979 में अयातुल्लाह खोमैनी द्वारा वहां की गई इस्लामिक क्रांति के बाद से ईरान मुख्य धारा से दूर होता गया। हालांकि भारत उससे कच्चे तेल का आयात करता रहा था। 2019 में अमेरिकी प्रतिबंध फिर लागू हुए तो भारत ने ईरान से तेल लेना बंद कर दिया था। इससे भारत को तगड़ा झटका लगा क्योंकि ईरान भारत को रुपयों में तेल भेजता था। वह डॉलर में व्यापार नहीं करता था। ईराक, सउदी अरब और यूएई के बाद भारत को सबसे अधिक तेल ईरान से मिलता था। अमेरिका, कोलंबिया और ब्राजील से तेल मंगवाना महंगा पड़ता है। यूक्रेन युद्ध के चलते अमेरिका ने जब रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाये तो भारत ने इन प्रतिबंधों को तोड़ कर रूस से तेल का आयात जारी रखा। इसका लाभ भी उसे मिला, लेकिन अब यदि इजराइल-ईरान में युद्ध हुआ तो भारत के लिए मुश्किलें खड़ी होंगी।
आज के समय में विश्व युद्ध सिर्फ हथियारों से ही नहीं लड़ा जाता बल्कि आर्थिक प्रतिबंधों से भी विरोधी देशों को संकट में डाला जा सकता है। ईरान ने अपने इलाके से गुजर रही स्वेज नहर को बंद करने की धमकी दी है। उधर लाल सागर से निकल रहे माल वाहक जहाजों पर हूती आतंकवादी रोज हमले कर देते हैं। ये सब संकेत हैं, कि हर देश दूसरे देश की आर्थिक रूप से कमर तोड़ना चाहता है। चूंकि अमेरिका आज भी आर्थिक रूप से नम्बर एक है और परमाणु हथियार भी उसके पास रूस से थोड़े ही कम हैं। इसलिए वह हर देश को अपनी सुविधा से अर्दब में लेता रहता है। यद्यपि अब संयुक्त राष्ट्र पर उसकी पकड़ ढीली पड़ रही है इसलिए पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र ने इजराइल को गाजा पट्टी पर हमला बंद करने को कहा था। इसलिए अभी तक अमेरिका खुल कर इजराइल कोसपोर्ट नहीं कर रहा।
योरोप के कई देश और अमेरिका खुल कर इजराइल के समर्थन में है। 1948 में इजराइल जब देश बना तब अमेरिका ने सबसे पहले उसे मान्यता दी थी। लेकिन जिस तरह से सप्लाई चेन को प्रभावित करने की कोशिश मध्य पूर्व में हो रही है, उससे अमेरिका भी परेशान है। यही कारण है कि उसने पिछले दिनों इजराइल को संयम बरतने की सलाह दी थी। सप्लाई चेन बाधित होने से अमेरिकी मालवाहक बेड़ों को सबसे अधिक परेशानी होती है, व्यापार ही अमेरिका की ताकत है। इसलिए वह नहीं चाहता कि इजराइल के साथ उसे इस अनचाहे युद्ध का सामना करना पड़े। दूसरी तरफ ईरान के निशाने पर अमेरिका सदैव रहा है। इसकी वजह रही 1953 में अमेरिका द्वारा चुनाव जीत कर आए प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसद्दिक का तख्ता पलट कर उनकी जगह सत्ता शाह रजा पहलवी को सौंप देना।
1979 में ईरान में जब अयातुल्लाह खुमैनी की अगुआई में क्रांति हुई तो पूरे ईरान में खुशियां मनाई गईं, दरअसल अमेरिका तेल पर नियंत्रण चाहता था किंतु मोहम्मद मोसद्दिक ने तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण कर दिया। दूसरे मोसद्दिक मुस्लिम देशों में पहले ऐसे राष्ट्राध्यक्ष थे जो ईरान को अन्य देशों से अलग धर्म निरपेक्ष राष्ट्र बनना चाहते थे। अमेरिका की यह खुन्नस अक्सर दिखती है। अभी 2020 में अमेरिका ने एक हवाई हमला कर ईरान के सैन्य कमांडर जनरल कासिम सुलेमानी को मार दिया था। इसलिए ईरान और अमेरिका के बीच संबंध कभी सामान्य नहीं रहे। इसलिए ईरान के विरोध में अमेरिका इजराइल के पक्ष में अवश्य खड़ा होगा। इन सब वजहों से इस आशंका के बादल मंडरा रहे हैं कि क्या मध्य पूर्व वर्ल्ड वार-3 का कारण बनेगा।