रमेश शर्मा
अपने जन्मस्थान अयोध्या में रामलला के विराजमान होने की उमंग पूरे संसार में है । मुस्लिम समाज के अनेक प्रतिनिधि समारोह में उपस्थित थे, उनकी टिप्पणियाँ भी सकारात्मक आईं। लेकिन उमंग से भरी इन समरस अनुभूतियों के वातावरण को बिगाड़ने का षड्यंत्र शुरु हो गया है। हल्दवानी की घटना के बाद न केवल सोशल मीडिया पर भड़काऊ सामग्री बढ़ रही है वहीं बरेली के तौफीक रजा, बंगाल के मंत्री सिद्दीकुल्लाह और आई एम आई एम के नेता उबेसुद्दीन ओबैसी के खुलकर ब्यान आये । अब पूरे देश को उमंग के साथ सावधान रहने की आवश्यकता है । रामलला अपने जन्मस्थान अयोध्या में विराजमान हो गये हैं । वह अवसर साधारण नहीं था । सैकड़ों वर्षों के संघर्ष और लाखों प्राणों के बलिदान के बाद यह संभव हो पाया है । इतिहास का संघर्ष चाहे जैसा रहा हो पर पिछले काफी वर्षों से भारतीय मुस्लिम समाज में एक बड़ा वर्ग अयोध्या के सत्य को स्वीकार करने लगा था कि अयोध्या में जिस स्थान पर बाबरी मस्जिद थी वहाँ पहले भव्य और विशाल मंदिर रहा है । मुस्लिम समाज के कुछ प्रबुद्ध जनों ने सार्वजनिक तौर पर भी इस बात को रखा । इससे देश में एक सकारात्मक वातावरण और समन्वय का भाव बढ़ा। यह ठीक है कि मुस्लिम समाज में कुछ कट्टरपंथी समन्वय के बजाय आक्रामक शैली से समाज अपनी ओर आकर्षित करने की राजनीति करते रहे । फिर भी अयोध्या निवासी अधिकांश मुस्लिम समाड इस मुद्दे से जुड़ा और उनमें एक समन्वय का भाव सदैव बना रहा । इतिहास के पन्नों में ऐसे सकारात्मक भाव की झलक 1857 की क्रांति और बाद में चले मुकदमें के दौरान भी देखने को मिलती है । 1857 की क्रांति के समय महंत बाबा रामचरणदास और मौलवी अमीरअली के बीच सहमति बन गई थी । और मौलवी अमीरअली यह स्थान जन्मस्थान मंदिर केलिये देने को तैयार हो गये थे । इस समझौते पर बादशाह बहादुरशाह जफर की सहमति भी हो गई थी । किन्तु क्रांति असफल हुई और 18 मार्च 1858 को बाबा रामचरणदास एवं मौलवी अमीरअली दोनों को अयोध्या में कुबेर के टीला पर फाँसी दे गई थी । कुबेर के टीला पर इन दोनों बलिदानियों का स्मारक बना है । इनके बलिदान के बाद यह समस्या यथावत रह गई।
बाद की कानूनी लड़ाई में भी समरसता का यह अंकुर बना रहा । न्यायालय में इस स्थल के दावे के लिये कुल चार मुकदमें आये । इनमें तीन मंदार पक्ष के और एक मस्जिद पक्ष का । जिला न्यायालय में चारों की सुनवाई एक साथ होने लगी । मंदिर पक्ष की ओर से प्रमुख पक्षकार रामचंद्र परमहंस थे तो मस्जिद पक्ष की ओर से हाशिम अंसारी । अयोध्या इन दोनों प्रतिद्वन्दियों की आत्मीयता और समन्वय की साक्षी है । अक्सर एक ही रिक्शे या एक ही तांगे में बैठकर दोनों अदालत पहुंचते थे। जिला अदालत से उच्चतम न्यायालय तक विभिन्न स्तरों पर विभिन्न सुनवाई के बाद पुरातात्विक अनुसंधान के आदेश हुये और उच्चतम न्यायालय में पाँच सदस्यीय बैंच भी बनी। पुरातात्विक अनुसंधान टीम में सभी धर्मों के लोग थे । इसके एक सदस्य केके मोहम्मद थे । जिन्होंने मस्जिद के भीतर मंदिर होने के प्रमाण खोजे यही प्रमाण मंदिर पक्ष के दावे का मजबूत आधार बने। श्री के के मोहम्मद ने 2019 में अपने एक साक्षात्कार में कहा था ‘पुरातात्विक रूप से यह कहने के लिए पर्याप्त सबूत हैं कि विवादास्पद बाबरी मस्जिद के नीचे मंदिर के अवशेष थे। वहां एक भव्य मंदिर की संरचना थी।’ पुरातात्विक अनुसंधान टीम ने जो रिपोर्ट अदालत को सौंपी वह सर्व सम्मत थी । उच्चतम न्यायालय की जिस बैंच का अंतिम निर्णय आया, वह भी सर्व सम्मत था । बैंच के पाँच सदस्यों में चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस शरद अरविंद बोबड़े, जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नजीर थे । यह बैंच भी इस निष्कर्ष पर एकमत थी कि उस स्थान पर पहले मंदिर था ।
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