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जलवायु परिवर्तन: एक अतिरंजित शब्द समूह

  • प्रोफेसर अनिल जैन
    मुझे ऐसे शख्स सख्त नापसंद हैं जो एक लकीर खींच लेते हैं और उस पर चलना शुरू कर देते हैं, फिर वे अगल-बगल देखने की भी जहमत नहीं उठाते। ज्यादातर पर्यावरणविद और मौसमविज्ञानी इसी किस्म लोग हैं। ये लोग शायद ही कभी दुनियावी हकीकत से दो चार होते हैं। इन्होंने इतना ज्यादा शोरगुल वातावरण में तारी कर दिया गया है कि सारा संसार इनकी तहरीरों और खोजों से घबराया हुआ है। सरकारें समझ नहीं पा रही हैं इन खतरों से कैसे पार पाया जाए क्योंकि ये हर दूसरे दिन एक नया नजरिया पेश कर देते हैं। इन्होंने जलवायु परिवर्तन शब्द इतना मकबूल कर दिया है कि यदि मुझे एक दिन भूख नहीं लगती है तो ऐसा लगता है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से ऐसा हो रहा है। यदि कुछ हफ्ते बरसात नहीं होती है तो ये एक नया शब्द या शब्द-समूह इसकी वनिस्पत गढ़ लाते हैं। इन्होंने भीषण गर्मी, ठंड, बरसात, बर्फबारी जैसे कुदरती कहर के लिये नए नए सिद्धांत इजाद कर लिए हैं।
    हम सभी जानते हैं कि मौसम हमेशा गैर यकीनी होता है और इसका पूर्वानुमान खासा दुश्वारी का काम होता है। अकाल और बाढ़ की समस्या सदियों से चली आ रही है। कहते हैं कि दो सौ साल पुराना रिकॉर्ड टूट गया। इसके मानी तो यह हुआ न कि दो सौ साल पहले इस तरह का रिकॉर्ड बना था या ऐसा ही वाकया पेश हुआ था। हमारी धार्मिक और पौराणिक कहानियां अकाल और बाढ़ के अफसानों से लबरेज हैं। महाजल प्लावन का किस्सा ज्यादातर लोगों के जहन में होगा जब केवल मनु बचे थे। ज़दीद तारीख़ में भी सूखे और बाढ़ के वाक्यों का जिक्र होता रहा है। मुझे याद है जब बचपन में मैं रिसाले पलटता था तो तमाम तस्वीरें ऐसे जानवरों की होती थी जो सूखे के चलते अपनी जानें गवा रहे थे। यदि उस वक्त से यह सब हो रहा था जबकि प्रकृति का इतना दोहन नहीं हुआ था तो कैसे इस तरह के कुदरती कहर इस ग्रह पर हो रहे थे।
    मौसमविज्ञानी बताते हैं इतने-से-इतने सालों में धरती का तापमान इतने-से-इतना हो जायेगा। इसमें दो राय नहीं कि उनकी बातें सच हैं और विज्ञान की कसौटी पर खरी हैं किंतु इस सब के लिए इंसान और दूसरे प्राणियों को जिम्मेदार ठहराया जाना कहां तक सही है। धरती पर गर्मी का बढ़ना या घटना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। हमने सबने पढ़ा है कि धरती पहले बहुत गर्म हुआ करती थी। धीरे धीरे इसने इसको काबिल बनाया कि हम और दूसरे जीव जंतु इस पर रह सकें। अपने जीवनकाल में धरती अपने आप को ढालती रहती है जिसके अनुसार हमें खुद को ढालने की जरूरत है न कि इसको लेकर गैर जरूरी ख़ौफ पैदा करने की।
    अब किस्सा कोताह यह है कि आप भाषा विषय को खोलिये और पहला पाठ पर्यावरण होगा, आप विज्ञान विषय खोलिये और पहले सफे पर ही आपको पर्यावरण दिख जाएगा, आप सामाजिक विज्ञान विषय खोलिये और पक्के तौर पर पर्यावरण पर मज़मून दिखना तय है। इन विषयों के मूल सिद्धांत गायब है। तालीमयाफ्ता के पाठ्यक्रम से विषय का बुनियादी ज्ञान दूसरे नम्बर पर जा चुका है।

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