बलबीर पुंज
क्या भारत, चीन पर विश्वास कर सकता है? जब देश आगामी लोकसभा चुनाव की तैयारियों में व्यस्त है, तब चीन सीमा पर अपनी साम्राज्यवादी नीति को गति देने देने लगा है। हॉन्गकॉन्ग के समाचारपत्र ‘साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि चीनी सरकार भूटान सीमा में उन गांवों के निकट का निर्माण/विस्तार कर रही है, जो सुरक्षा की दृष्टि से भारतीय सीमा के लिए महत्वपूर्ण है। चीन यह दुस्साह तब कर रहा है, जब सीमा विवाद को लेकर दोनों देशों के प्रतिनिधिमंडलों के बीच वार्ता भी हो रही है। आखिर पूरा मामला क्या है?
रिपोर्ट के अनुसार, चीन-भूटान की सीमा से लगे क्षेत्र स्थित सुदूर गांव में 18 नए घर चीनी निवासियों के रहने हेतु तैयार किए गए है। प्रत्येक घर में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के चित्र लगे हैं, तो चीनी-तिब्बती भाषा में लाल रंग की तख्ती पर ‘स्वागत’ लिखा हुआ है। गत वर्ष 28 दिसंबर को 38 चीनी परिवारों के पहले समूह को तिब्बती नगर शिगस्ते से नए विस्तारित गांव तामालुंग में भेजा गया था। इन गांवों में 235 चीनी परिवारों को बसाने की तैयारी है, जहां 2022 के अंत तक केवल 70 घरों में 200 लोग ही रहते थे। अमेरिकी सैटेलाइट तस्वीरों से सीमावर्ती गांवों में चीन के अवैध विस्तार की जानकारी मिली हैं। सीमावर्ती गांव पूर्वी तामालुंग और ग्यालाफुग का फैलाव इस हद तक हो गया है कि उसमें 150 से अधिक नए घर शामिल हो गए हैं। ग्यालाफुग गांव जो 2007 में बिना बिजली-पानी केवल दो घरों के साथ बसाया गया था, वह 2016-18 में बतौर मॉडल विलेज विकसित हो गया था।
आखिर चीन की मंशा क्या है? वास्तव में, वह भारत को लक्षित करके अपनी साम्राज्यवादी योजना के अनुरूप, भूटान में गांवों का विस्तार करके सीमा को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रहा है। चीन-भूटान के बीच कूटनीतिक संबंध नहीं हैं, परंतु विवादों को सुलझाने के लिए दोनों देशों के अधिकारी अक्सर दौरा करते रहते हैं। यह विचारणीय है कि जून 2017 में भूटानी सीमा से लगे डोकलाम पठार में चीन द्वारा एक सड़क निर्माण के प्रयास का भारत ने न केवल मुखर विरोध किया था, अपितु वहां अपनी सेना की एक टुकड़ी को हथियारों और बुलडोजर के साथ भी तैनात कर दिया था। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि डोकलाम तिराहे पर सड़क निर्माण से चीन सीधा भारतीय सुरक्षा को चुनौती दे रहा था। वह क्षेत्र सिलीगुड़ी के एकदम निकट है, जो पूर्वोत्तर क्षेत्र को शेष भारत से जोड़ता है।
यह ठीक है कि कोरोनाकाल से चीन आर्थिक संकट से जूझ रहा है। परंतु वह अब भी वैश्विक विनिर्माण में अग्रणी है और आने वाले वर्षों में भी एक बड़ी वैश्विक रणनीतिक शक्ति बना रहेगा। ऐसे में जब इस वर्ष स्वतंत्र भारत में मई में नई सरकार का गठन होना है, तो चीन की वस्तुस्थिति और उसकी साम्राज्यवादी मानसिकता को टटोलना आवश्यक है।
वर्तमान समय में चीनी अर्थव्यवस्था कई ढांचागत समस्याओं का सामना कर रही है। वृद्धों की जनसंख्या अत्याधिक बढ़ने और युवाओं की आबादी घटने से भी चीन श्रमबल के संकट से दो चार है। भारी जनविरोध के बाद अपनी अमानवीय कोविड नीति में बदलाव करने और चीनी सेना के उच्चतम स्तर पर भ्रष्टाचार के मामले सामने आने से स्थापित होता है कि व्यवस्था पर साम्यवादी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का नियंत्रण डगमगाने लगा है।
प्रतिकूल स्थिति होने के बाद भी भारत के प्रति चीनी आक्रामकता का कारण क्या है? वास्तव में, यह उग्रता एकाएक पैदा नहीं हुई। इस चिंतन की जड़े चीन के सभ्यतागत लोकाचार में निहित है। वर्तमान चीन में एक अस्वाभाविक मिश्रित प्रणाली है, जहां रूग्ण पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है, जो साम्यवादी तानाशाह और साम्राज्यवादी मानसिकता द्वारा संचालित है। दशकों पहले चीन में मार्क्स, लेनिन और माओ के मानसबंधु अपने पूर्वजों द्वारा प्रदत्त वाम-सिद्धांतों और उनके अमानवीय समाजवादी व्यवस्था का गला घोंट चुके है। इससे स्थापित होता है कि साम्यवाद की तुलना में चीन को उसका राष्ट्रवाद अधिक आक्रामक बनाता है। वास्तव में, साम्राज्यवादी चीन का अंतिम लक्ष्य अगले कुछ दशकों में अपने प्रमुख प्रतिद्वंदी— अमेरिका से दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र होने का तमगा छीनना है।
वर्ष 2024 में चीन किस रास्ते पर चलेगा, यह बहुत कुछ इस वर्ष नवंबर में होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के निर्णय पर निर्भर करता है। विश्व की दो बड़ी आर्थिक शक्तियों- अमेरिका और चीन में चल रहा तनाव किसी से छिपा नहीं है। चाहे वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन हो या फिर उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदी और पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप, दोनों ने ही व्यापक रूप से चीन की साम्राज्यवादी नीतियों के विरोधी है। कई यूरोपीय देश भी तुलनात्मक रूप से चीन में कम दिलचस्पी ले रहे है। अमेरिका का अगला राष्ट्रपति कौन होगा, इससे भारत-अमेरिका संबंधों में कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि बाइडेन और ट्रंप, दोनों ही भारत के साथ संबंधों को और अधिक प्रगाढ़ करने के पक्षधर है।
यक्ष प्रश्न यह है कि क्या चीन, विश्व में भारत के बढ़ते कद को पचा पा रहा है? मोदी शासनकाल में चीन के खिलाफ भारत ‘जैसे को तैसा’ वाली नीति को अपना रहा है— वर्ष 2020-21 का गलवान प्रकरण उसका एक उदाहरण है। जहां चीनी दुस्साहस या इससे संबंधित किसी भी आपातकाल स्थिति से निपटने हेतु भारत ने सीमा पर आधुनिक हथियारों के साथ बड़ी सैन्य टुकड़ी तैनात की है, तो सीमावर्ती क्षेत्रों में वांछनीय आधारभूत संरचना का विकास कर रहा है। चीन खुलकर यह स्वीकार करने को तैयार नहीं कि परमाणु संपन्न भारत 1962 की पराजित मानसिकता से मीलों बाहर निकल चुका है।
क्या भारत, चीन के साम्राज्यवादी इरादों का सामना कर सकता है? निश्चित रूप से। चीनी अर्थव्यवस्था का आकार भारतीय आर्थिकी से पांच गुना बड़ा है। इस अंतर को जल्द से जल्द कम करना होगा। विगत 10 वर्षों में जिस प्रकार भारत ने चीनी आक्रमकता का उत्तर दिया है, उस बरकरार रखना होगा। देश का एक छोटा वर्ग, जो प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से चीन और उसकी भारत-विरोधी नीतियों का समर्थन करता है— उनसे सावधान रहना होगा।
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