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आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के युग में बड़ी चुनौती डीपफेक

  • डॉ सत्यवान सौरभ
    डीपफेक ऐसे वीडियो या ऑडियो रिकॉर्डिंग हैं, जिन्हें आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) का उपयोग करके हेरफेर किया जाता है, ताकि यह प्रतीत हो सके कि कोई कुछ ऐसा कह रहा है या कर रहा है जो उन्होंने कभी नहीं किया। यह दूरगामी प्रभावों के साथ एक महत्वपूर्ण तकनीकी खतरे के रूप में उभरा है। कहते हैं इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी के इस युग में डेटा ही तेल सामान है, मतलब उसका महत्त्व बहुत ज्यादा है, और बिना डेटा के कोई भी काम होना बहुत कठिन हो गया है। जैसे-जैसे डेटा का उपयोग बढ़ रहा है, उसके शोधन के तरीके भी बढ़ रहे हैं, वहीं ऐसी टेक्नोलॉजी भी आ गयी हैं जो आपके डेटा का इस्तेमाल कर कई प्रकार के हैरतअंगेज कार्य कर सकती है। ऐसी ही टेक्नोलॉजी है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, जिसने तकनीकी दुनिया को हमेशा के लिए बदल डाला है। गूगल बार्ड जैसे टूल्स आश्चर्जनक जानकारियों का खजाना बन गए हैं, जो रिसर्च, एजुकेशन, प्रोडक्टिविटी को अलग स्तर पर ले गए हैं, वहीं न्यूरल नेटवर्क, डीप लर्निंग, मशीन लर्निंग ने सेल्स, मार्केटिंग, सोशल मीडिया, और एंटरटेनमेंट जैसे क्षेत्रों को बदल डाला है।
    डीपफेक द्वारा उत्पन्न चुनौतियाँ सबसे पहले विश्वास और प्रतिष्ठा का क्षरण करती है। डीपफेक का इस्तेमाल गलत सूचना फैलाने, प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने और सामाजिक अशांति भड़काने के लिए किया जा सकता है। एक बार जब कोई डीपफेक वीडियो वायरल हो जाता है, तो नुकसान को रोकना मुश्किल हो सकता है, क्योंकि लोग वास्तविक और हेरफेर की गई सामग्री के बीच अंतर करने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। व्यक्तियों और समाज के लिए खतरा अब सिर पर आकर खड़ा हो गया है। डीपफेक का इस्तेमाल साइबर बुलिंग, ब्लैकमेल और यहां तक कि चुनावों में हस्तक्षेप करने के लिए भी किया जा सकता है। इसके दुरुपयोग से व्यक्तियों और समाज को नुकसान पहुंचने की संभावना बहुत अधिक है। पता लगाने और जिम्मेदार ठहराने में कठिनाई पहले से ज्यादा बढ़ गयी है। डीपफेक का परिष्कार लगातार विकसित हो रहा है, जिससे उनका पता लगाना और उनका पता लगाना कठिन होता जा रहा है। यह कानून प्रवर्तन और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म के लिए एक चुनौती है। कानूनी और नैतिक विचार कमजोर पड़ते दिखाई दे रहें है।

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