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- आलोक मेहता
सत्ता का संघर्ष आजकल निरंतर जारी रहता है। कर्नाटक में कांग्रेस को शानदार विजय मिल गई । पिछले दशकों के रिकॉर्ड तोड़ दिए। भाजपा को अपनी कमजोरियों और गलतियों की समीक्षा करनी होगी । अब राज्यों और लोक सभा के लिए अधिक शक्ति और ज़मीनी काम की आवश्यकता होगी। कर्नाटक विधान सभा चुनाव में कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने जितनी ताकत लगाई , उतना धुंआधार चुनाव अभियान मैंने पिछले 50 वर्षों के दौरान नहीं देखा । 1982 के अंत में हुए विधान सभा चुनाव के कवरेज के लिए कर्नाटक जाने पर मुझे भाजपा की सभाओं में प्रारंभिक सफलता देखने को मिली थी और उसे स्वयं सत्ता में आने के लिए करीब तीस साल लगे । उसने कांग्रेस के गढ़ पर कब्ज़ा कर लिया। इस बार कांग्रेस ने इस पुराने किले को वापस जीतने के लिए प्रादेशिक और राष्ट्रीय नेताओं के साथ अधिकाधिक संसाधन लगा दिए। जैसे राजनीतिक जीवन मरण का संघर्ष है। राहुल, प्रियंका और सोनिया गाँधी के साथ कर्नाटक के ही नेता और राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, मुख्यमंत्री पद के दो शीर्ष नेता सिद्धारमैया और डी के शिवकुमार ने हर वर्ग और क्षेत्र को प्रभावित करने के प्रयास किए । वहीँ भाजपा के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं मोर्चे की कमान संभाली थी। उनके साथ गृह मंत्री अमित शाह और कर्नाटक के दिग्गज नेता येदुरप्पा और प्रादेशिक नेताओं ने मतदाताओं की शिकायतें दूर करने तथा उज्जवल भविष्य के वायदे किए। भाजपा ने कुछ कड़वे निर्णय लेकर नए उम्मीदवारों को अधिक महत्व दिया। लेकिन पुराने विधयकों – मंत्रियों के भ्रष्टाचार और अहंकारी छवि , जनता से दूरी ने भाजपा की सत्ता की थाली उलट दी ।
कांग्रेस ने भी नया सामाजिक प्रयोग किया । चुनाव के दौरान ही पार्टी ने जाति जनगणना की मांग के अलावा आरक्षण की सीमा को 50 फीसदी से अधिक करने का वादा किया। राज्य के पूर्व सीएम और पार्टी के सीनियर नेता सिद्धारमैया हर सभा में आरक्षण की सीमा को 75 फीसदी तक करने की बात दोहराते रहे। राहुल गांधी ने भी राज्य में हो रही सभाओं में आक्रामक रूप से आरक्षण कार्ड खेला । दिलचस्प बात है कि राजीव गाँधी सैद्धांतिक रुप से आरक्षण के पक्ष में नहीं थे और मुझे एक इंटरव्यू में तो आरक्षण को लेकर तीखी टिपण्णी कर दी थी । कर्नाटक में जातियों के समीकरण बहुत मायने रखते हैं और इसमें सभी का पहले से ही अपना-अपना हिसाब-किताब रहा है। जहां तक इस चुनाव की बात है, वोक्कालिगा समुदाय इस बार देवेगौड़ा कुमारस्वामी की जे डी एस के साथ दिख रहा था । बीजेपी और कांग्रेस ने उस परंपरा को तोड़ने और उन्हें अपने साथ लाने के हर संभव प्रयास किए । भाजपा ने यह वोट बैंक एक हद तक बचाया , लेकिन जे डी एस के मुस्लिम वोट इस बार पूरी तरह कांग्रेस की झोली में चले गए । कांग्रेस की कोशिश थी कि मुस्लिम और ईसाई वोट उसे एकमुश्त मिले। सिद्धारमैया खुद ओबीसी नेता हैं। अगले लोकसभा चुनाव के लिए मैदान अभी तैयार नहीं हुआ , लेकिन अब कांग्रेस राहुल गाँधी को प्रधान मंत्री पद के लिए सबसे काबिल होने का दावा करने लगेगी और अन्य दलों से अधिकाधिक उम्मीदवार उतरना चाहेगी ।दूसरी तरफ अति आकांक्षा वाली क्षेत्रीय पार्टियों ने गठबंधन के दलदल में प्रधान मंत्री के सपने बुनती रही है । दिलचस्प अति महत्वाकांक्षी तेलंगाना के चंद्र शेखर राव हैं , जिन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अपना डंका बजने के लिए अपनी मूलभुत पहचान ‘तेलंगाना ‘ हटाकर पार्टी का नाम ही ‘ भारत राष्ट्र समिति ‘ करने का फैसला किया और चुनाव आयोग से मान्यता का आवेदन कर रहे हैं । राव तो तेलंगाना के हितों की रक्षा के नाम पर दशकों तक कांग्रेस और तेलुगु देशम पार्टियों में रहकर और बाद में सड़कों पर आंदोलन करते हुए तेलंगाना राष्ट्र समिति पार्टी का गठन किया ।
हाल में भाजपा से नाता तोड़कर विपक्ष की एकता के नाम पर भ्रष्टाचार में वर्षों तक जेल की सजा भुगत कर निकले ओमप्रकाश चौटाला और लालू यादव के नेतृत्व में सभा कर ली । ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए ‘तीसरे मोर्चे’ के गठन की संभावना से इनकार कर दिया है । कुछ नेताओं द्वारा विपक्षी दलों को एक साथ लाने के प्रयासों के बीच मुख्यमंत्री पटनायक, जो दिल्ली में हैं, 2024 के लोकसभा चुनावों में तीसरे मोर्चे की संभावना के बारे में पत्रकारों के सवालों का जवाब दे रहे थे. उन्होंने कहा, “नहीं, जहां तक मेरा संबंध है. अभी नहीं । “ राजधानी के अपने दौरे पर पटनायक ने ओडिशा से जुड़े विकास कार्यों के सिलसिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की । यही हाल ममता बनर्जी का है । वह प्रतिपक्ष एकता के पक्ष में हैं , लेकिन नेता राहुल गाँधी या नीतीश को स्वीकारने के मूड में नहीं हैं । शरद पवार कांग्रेस से समर्थन चाहते हैं , लेकिन महाराष्ट्र में कांग्रेस को अधिक हिस्सा देना नहीं चाहते । अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी भाजपा से कतई समझौता नहीं कर सकती , लेकिन कांग्रेस , बसपा या जनता दल ( यू ) से उसे कोई लाभ नहीं हो सकता है । इस तरह अधिकांश क्षेत्रीय दलों को अपने राज्यों में जब कांग्रेस से भी टक्कर लेनी होगी तो जुबानी समझौतों और गठबंधन की बातों से कितना लाभ उठा सकेंगे ? पहली चुनौती इस बात की है कि क्या 2024 के लोक सभा चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगी दल क्या सरकार का दावा कर सकने लायक सीटें ही नहीं ला पाएंगे ? और ऐसा कुछ होने पर प्रति[पक्ष के नेता आसानी से किसी क्षेत्रीय नेता पर सर्वानुमति बना सकेंगे ? यदि रो धोकर गठबंधन के दलदल में किसीको पतवार थमा दी गई , तो उसकी हालत चरण सिंह या चंद्रशेखर जैसे पूर्व प्रधानमंत्रियों की तरह नहीं हो जाएगी ?