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- अवधेश कुमार
मतदान संपन्न होने के बावजूद आम विश्लेषकों की प्रतिक्रिया है कि परिणाम की स्पष्ट भविष्यवाणी कठिन है। इसका अर्थ क्या है? इन तीनों राज्यों में भाजपा और कांग्रेस के बीच ही मुख्य मुकाबला रहा है और वही प्रवृत्ति इस बार भी है। अगर मुख्यतः दो पार्टियों के मुकाबले के बीच परिणाम का आकलन करने से हम बच रहे हैं तो इससे कई कारण सामने आते हैं। किसी भी चुनाव के परिणाम कई कारकों पर निर्भर करते हैं जिनमें मतदाताओं की आकांक्षा पार्टियों द्वारा उठाए गए मुद्दे, उम्मीदवार राज्य स्तर पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के समर्थन या विरोध में पहले से निर्मित माहौल , नेतृत्व तथा राष्ट्रीय व प्रादेशिक वातावरण। हम आम मतदाता तक नहीं पहुंच पाए या पहुंच कर भी उनकी अभिप्सा भांप नहीं पाए। चुनावों में जो मुद्दे पार्टियों ने उठाये वो जनता के अंतर्मन में कितने गए, उनके पक्ष और विपक्ष में कैसा माहौल बना इन्हें भी पकड़ने में हम सफल नहीं हैं। तो क्यों? क्या वाकई चुनावी प्रवृत्तियों को समझना हमारे देश में कठिन हो गया है?
इन चुनावों की पहली मुख्य प्रवृत्ति रही है पहले की तरह ही लोगों का भारी संख्या में निकलकर मतदान करना। छत्तीसगढ़ में मतदान थोड़ा कम हुआ लेकिन इतना नहीं जिससे मान लिया जाए कि लोगों में मतदान के प्रति अभिरुचि घटी है। लोगों का मतदान के लिए लगातार निकलना एक दृष्टि से वर्तमान चुनाव व्यवस्था की सफलता तथा लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है। अगर एक समय की सीमा रेखा बनाएं तो मोटा-मोटी 2010 के पहले मतदान ज्यादा होने पर माना जाता था कि सत्तारुढ पार्टी जाने वाली है और कम होने पर यह कि किसी के पक्ष में भी परिणाम जा सकता है। 2018 के बाद यह प्रवृत्ति बदली है।
सबसे पहले नेतृत्व को देखें तो भाजपा ने किसी को भी तीनों जगह मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम ही प्रमुखता से लिया गया। प्रधानमंत्री मोदी ने कई भाषणों में स्वयं कहा कि मोदी का नाम ही आपकी गारंटी है। यानी जो घोषणायें कईं गईं उन्हें पूरा करने की जिम्मेदारी नरेंद्र मोदी की है। इसके लिए वे पूर्व में किए गए वायदे और उनको पूरा किए जाने की सूची जनता के सामने रखते रहे। इसके विपरीत कांग्रेस के चेहरे सामने थे। राजस्थान में यद्यपि अशोक गहलोत को फिर से मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा नहीं की गई थी किंतु हाव-भाव और व्यवहार से उन्होंने यही संदेश दिया कि आपको मुझे ही मुख्यमंत्री बनाने के लिए कांग्रेस को वोट देना है। मध्यप्रदेश में कमलनाथ और छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल को लेकर कोई संदेह नहीं था। सार्वजनिक रूप से न बोलते हुए भी कुछ बड़े विश्लेषक अपनी टिप्पणियों में संकेत दे रहे हैं कि छत्तीसगढ़ में बघेल वापसी करेंगे तो मध्यप्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार बनेगी।
दो बातें ध्यान रखने की है। पिछले 30 वर्षों में कांग्रेस जब भी सत्ता में आई, हर बार बहुमत के आंकड़े से पीछे रही। दूसरी ओर 1993 को छोड़कर भाजपा ने 2003 और 2013 में सरकार बनाई तो पूर्ण बहुमत के साथ। 2013 में उसे दो तिहाई से ज्यादा बहुमत प्राप्त हुआ था। 2018 के परिणाम को ध्यान से देखें तो दोनों पार्टियों में केवल 1 लाख 74 हजार 699 मतों का ही अंतर था। प्रदेश में सत्ता विरोधी रुझान के होते भाजपा का प्रदर्शन इतना संतोषजनक था तो इस बार सत्ता से बाहर होने के बावजूद मतदाता उसे फिर से अस्वीकार कर देंगे यह असाधारण स्थिति होगी। इसी तरह मध्यप्रदेश में कांग्रेस ने सरकार अवश्य बनाई लेकिन वह बहुमत से दो सिट पीछे थी। भाजपा और उसके बीच केवल पांच सीटों का अंतर था। भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा मत आए थे। हां, छत्तीसगढ़ में अवश्य कांग्रेस के लिए एकपक्षिय परिणाम थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम ऐसा है जिसके पक्ष और विरोध दोनों में आलोड़न होता है। भाजपा ने किसी एक को नेता घोषित करने की बजाय ऐसे कई सांसदों, मंत्रियों को लड़ाया जो मुख्यमंत्री बनने की हैसियत रखते हैं। प्रदेश में नेताओं की एक श्रृंखला पैदा करने की यह नई राजनीतिक पहल है। चुनाव में इसका कितना असर हुआ होगा देखना होगा। हालांकि इसकी शुरुआत चुनाव से हुई है पर लक्ष्य दुरगामी है । निश्चित रूप से वे सब भी मतदान के लिए एकजुटता से निकले होंगे जो हर हाल में मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को हराना चाहते हैं। उनके समानांतर वह सब भी बाहर आए होंगे जो भाजपा की विजय चाहते हैं। राजस्थान में आजाद भारत के इतिहास की पहली सिर तन से जुदा करने की घटना कन्हैयालाल की मौत के रूप में सामने आई। यही नहीं हिंदू धर्म की शोभा यात्राओं पर हमले के नए दौर की शुरुआत भी वहीं से हुई। 2008 के भयानक जयपुर आतंकवादी हमले के आरोपियों का न्यायालय से मुक्त हो जाना सबको धक्का पहुंचाने वाला था। भाजपा द्वारा इन सबको उठाना स्वाभाविक था। इसका संदेश किसी न किसी सीमा तक गया होगा। अगर तीनों राज्यों में भाजपा के विरुद्ध इतना ही माहौल होता तो कांग्रेस हिंदुत्व से जुड़े मुद्दों पर इतना जोर नहीं देती। अशोक गहलोत से लेकर कमलनाथ और भूपेश बघेल ने स्वयं को निष्ठावान हिंदू साबित करने तथा हिंदू धर्म से जुड़ी योजनाओं की घोषणा में एक दूसरे से ही जबरदस्त प्रतिस्पर्धा की। उनके विस्तार से उल्लेख के लिए एक पूरी पुस्तिका बन जाएगी। मंदिरों के निर्माण, जीर्णोद्धार, पुनर्निर्माण तीर्थ यात्राएं, पुजारी का वेतन बढ़ाना आदि इतनी घोषणाएं थीं कि कांग्रेस में वामपंथी सोच वालों व समर्थकों के लिए उनका बचाव करना कठिन हो गया।