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तप, त्याग और ज्ञान की प्रतिमूर्ति आचार्य श्रेष्ठ विद्यासागर जी

डॉ. आनंद सिंह राणा
संत कमल के पुष्प के समान लोकजीवन रूपी वारिधि में रहता है, संचरण करता है, डुबकियाँ लगाता है, किंतु डूबता नहीं। यही भारत भूमि के प्रखर तपस्वी, चिंतक, कठोर साधक, लेखक, राष्ट्रसंत आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज के जीवन का मंत्रघोष है। विद्यासागरजी का जन्म कर्नाटक के बेलगाँव जिले के गाँव चिक्कोड़ी में आश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा), संवत्‌ २००३ को हुआ था। श्री मल्लप्पाजी अष्टगे तथा श्रीमती अष्टगे के आँगन में जन्मे विद्याधर (घर का नाम पीलू) को आचार्य श्रेष्ठ ज्ञानसागरजी महाराज का शिष्यत्व पाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। राजस्थान की ऐतिहासिक नगरी अजमेर में आषाढ़ सुदी पंचमी विक्रम संवत्‌ २०२५ को लगभग २२ वर्ष की आयु में संयम धर्म के परिपालन हेतु उन्होंने पिच्छी कमंडल धारण करके मुनि दीक्षा धारण की थी। नसीराबाद (अजमेर) में गुरुवर ज्ञानसागरजी ने शिष्य विद्यासागर को अपने करकमलों से मृगसर कृष्णा द्वितीय संवत्‌ २०२९ को संस्कारित करके अपने आचार्य पद से विभूषित कर दिया और फिर आचार्यश्री विद्यासागरजी के निर्देशन में समाधिमरण हेतु सल्लेखना ग्रहण कर ली। विद्यासागरजी में अपने शिष्यों का संवर्धन करने का अभूतपूर्व सामर्थ्य है। उनका बाह्य व्यक्तित्व सरल, सहज, मनोरम है किंतु अंतरंग तपस्या में वे वज्र से कठोर साधक हैं। कन्नड़ भाषी होते हुए भी विद्यासागरजी ने हिन्दी, संस्कृत, कन्नड़, प्राकृत, बंगला और अँग्रेजी में लेखन किया है। उन्होंने ‘निरंजन-शतकं’, ‘भावना-शतकं’, ‘परीषह-जय-शतकं’, ‘सुनीति-शतकं’ व ‘श्रमण-शतकं’ नाम से पाँच शतकों की रचना संस्कृत में की है तथा स्वयं ही इनका पद्यानुवाद भी किया है। उनके द्वारा रचित संसार में सर्वाधिक चर्चित, काव्य प्रतिभा की चरम प्रस्तुति है- ‘मूकमाटी’ महाकाव्य। यह रूपक कथा काव्य, अध्यात्म, दर्शन व युग चेतना का संगम है। संस्कृति, जन और भूमि की महत्ता को स्थापित करते हुए आचार्यश्री ने इस महाकाव्य के माध्यम से राष्ट्रीय अस्मिता को पुनर्जीवित किया है। उनकी रचनाएँ मात्र कृतियाँ ही नहीं हैं, वे तो अकृत्रिम चैत्यालय हैं। उनके उपदेश, प्रवचन, प्रेरणा और आशीर्वाद से चैत्यालय, जिनालय, स्वाध्याय शाला, औषधालय, यात्री निवास, त्रिकाल चौबीसी आदि की स्थापना कई स्थानों पर हुई है और अनेक जगहों पर निर्माण जारी है। कितने ही विकलांग शिविरों में कृत्रिम अंग, श्रवण यंत्र, बैसाखियाँ, तीन पहिए की साइकलें वितरित की गई हैं। शिविरों के माध्यम से आँख के ऑपरेशन, दवाइयों, चश्मों का निःशुल्क वितरण हुआ है। ‘सर्वोदय तीर्थ’ अमरकंटक में विकलांग निःशुल्क सहायता केंद्र चल रहा है। जीव व पशु दया की भावना से देश के विभिन्न राज्यों में दयोदय गौशालाएँ स्थापित हुई हैं, जहाँ कत्लखाने जा रहे हजारों पशुओं को लाकर संरक्षण दिया जा रहा है। आचार्यजी की भावना है कि पशु मांस निर्यात निरोध का जनजागरण अभियान किसी दल, मजहब या समाज तक सीमित न रहे अपितु इसमें सभी राजनीतिक दल, समाज, धर्माचार्य और व्यक्तियों की सामूहिक भागीदारी रहे। आचार्यश्री प्रतिदिन प्रातःकाल ‘जयधवला’ पुस्तक सातवीं संघस्थ साधुओं के लिए एवं अपरान्ह काल ‘प्रवचनसार’ का स्वाध्याय श्रावकजनों को कराते हैं। प्रत्येक रविवार एवं विशिष्ट पर्व के दिनों में आचार्यश्री का सार्वजनिक प्रवचन मध्याह्न ३ बजे से होता है। ‘जिन’ उपासना की ओर उन्मुख विद्यासागरजी महाराज तो सांसारिक आडंबरों से विरक्त हैं। जहाँ वे विराजते हैं, वहाँ तथा जहाँ उनके शिष्य होते हैं, वहाँ भी उनका जन्म दिवस नहीं मनाया जाता। तपस्या उनकी जीवन पद्धति, अध्यात्म उनका साध्य, विश्व मंगल उनकी पुनीत कामना तथा सम्यक दृष्टि एवं संयम उनका संदेश है।

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