सत्यशोभन दास
आज के समय की मांग कृषि, यह हमारे देश की रीढ है और कृषि में एक मुख्य भूमिका निभाते है बीज| अन्य देशों की तरह हमारे देश में भी पारंपरिक बीज की विविधता को अत्यधिक नुकसान हुआ है| संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) की रिपोर्ट के अनुसार पिछले दो दशकों में, कृषि फसलों की आनुवांशिक विविधता (जेनेटिक डाइवर्सिटी) 75% नष्ट हो गयी है। जेनेटिक डाइवर्सिटी सभी फसलों के लिए सुधार का आधार है। फसल की किस्में, जेनेटिक डाइवर्सिटी के एक अभिन्न अंग के रूप में, मानव चयन और प्रबंधन के साथ-साथ विकास के प्राकृतिक तंत्र का परिणाम हैं। पारंपरिक बीज के संरक्षण , प्रबंधन में सुधार, कृषि में जैव विविधता और सामुदायिक प्रबंधन को बढ़ावा देकर पारंपरिक बीज की लुप्त हो रही किस्मों और स्थानीय ज्ञान को संजो के रख सकते हैं | यह बीज जलवायु परिवर्तन की स्तिथि में भी कृषि उत्पादकता सुनिश्चित करने के साथ साथ प्राकृतिक खेती की तरफ कदम बढाने में मदद करेगा| पारंपरिक बीज के साथ ही हमें खेती और हमारी मिटटी के बारे में भी बात करने की जरुरत है| कुछ वर्षों से हमारे किसान और समुदाय ने मिट्टी को एक सामूहिक संसाधन की नज़र से देखने के नजरिये पर पुनर्विचार करना शुरू कर दिया है , जिसमें उर्वरकों, कीटनाशकों और अन्य रासायनिक माध्यम से मिटटी में हो रहे बदलाव को करीब से देखना और प्राकृतिक/जैविक खेती की तरफ रूचि बढना यह दर्शाता है| यह कदम मिट्टी की गुणवत्ता को खराब होने से और इससे होने वाले परिणाम से बचा सकता हैं और यह हमारी सदियों पुरानी कृषि जैव विविधता को हमेशा कायम रखने के लिए एक पहला बड़ा कदम साबित होगा । हाल के दिनों में, पारंपरिक बीजों के अनूठे गुणों के बारे में बढ़ती जागरूकता और कृषि विविधता के संरक्षण की आवश्यकता के कारण इन बीजों पर चर्चा तेज हो गई है।
पारंपरिक बीज के महत्व को समझने व् जानने हेतु एक पहल के रूप में हर समाज के पास उनकी बनाई हुई व्यवस्था है, उदाहरण के तौर पर बिदरी त्यौहार पारंपरिक बीज के आदान प्रदान के किए मंडला जिला में मनाया जाता है, इसी प्रकार हर जगह की अलग अलग व्यवस्था है, कहीं सामूहिक रूप में है तो कहीं किसान से किसान के रुप में बीज का आदान प्रदान दिखने को मिलता है।
पारंपरिक बीज की गाथा बहुत पुरानी हैं| लगभग 10 हजार साल पहले बीज का अविष्कार हुआ | कुछ विद्वानों मानते हैं बीज की खोज महिलाओं ने की थी | बीज उत्सव ने किसानों के बीच पारंपरिक बीजों के महत्व, स्थानीय किस्मों के लाभ और कृषि जैव विविधता को पुनर्जीवित करने के लिए इसके संरक्षण की आवश्यकता को रेखांकित किया हैं|
जैव विविधता संरक्षण पारंपरिक बीज आनुवांशिक विविधता का खजाना हैं। उन्होंने सदियों से स्थानीय वातावरण के अनुसार स्वयं को अनुकूलित किया है, जिससे बीमारियों, कीटों और बदलती जलवायु परिस्थितियों के बीच फसलों ने उसी प्रकार स्वयं का अनुकूलन किया है। हमारी खाद्य आपूर्ति में जैव विविधता बनाए रखने के लिए पारंपरिक बीजों का संरक्षण महत्वपूर्ण है।
पारंपरिक बीजों की विशाल श्रृंखला जैव विविधता में योगदान करती है, एक विविध आनुवंशिक की पेशकश करती है जो फसलों को कीटों, बीमारियों और बदलती पर्यावरणीय परिस्थितियों का सामना करने में सक्षम बनाती है। विशिष्ट लक्षणों के लिए तैयार किए गए आधुनिक संकर या आनुवंशिक रूप से संशोधित बीजों के विपरीत, पारंपरिक बीज कई प्रकार की विशेषताओं का प्रदर्शन करते हैं, जो उन्हें अनुकूलनीय बनाते हैं। यह विविधता जलवायु परिवर्तन और अनिश्चित कृषि परिदृश्य के सामने एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में कार्य करती है।
सांस्कृतिक विरासत अपने कृषि महत्व से परे, पारंपरिक बीज सांस्कृतिक विरासत का एक अभिन्न अंग भी हैं। वे समुदायों के ज्ञान और प्रथाओं का प्रतीक हैं, जो उनकी अनूठी कृषि परंपराओं को दर्शाते हैं। पारंपरिक बीजों को संरक्षित करना सांस्कृतिक विविधता को सुरक्षित रखने और यह सुनिश्चित करने का एक तरीका है कि खेती की प्रथाएं स्थानीय ज्ञान में निहित हैं। पारंपरिक बीज सिर्फ कृषि आदानों से कहीं अधिक हैं; वे एक समुदाय के सांस्कृतिक इतिहास को मूर्त रूप देने वाले जीवंत खजाने हैं। सदियों से परिवारों और समुदायों से गुजरते हुए, इन बीजों में अनुकूलन और स्थानीय ज्ञान की कहानियां हैं। प्रत्येक बीज किस्म किसी विशेष क्षेत्र या संस्कृति की कृषि पद्धतियों, खाद्य प्राथमिकताओं और परंपराओं का प्रमाण है।
अनुकूलनशीलता पारंपरिक बीजों ने समय के साथ अपनी अनुकूलन क्षमता साबित की है। वे विशिष्ट जलवायु और मिट्टी की स्थितियों में पनपने के लिए विकसित हुए हैं, जिससे वे स्थानीय चुनौतियों के प्रति लचीले बन गए हैं। इसके विपरीत, संकर बीजों के सीमित मानदंडों पर निर्भर आधुनिक मोनोकल्चर प्रथाएं फसलों को बीमारियों और पर्यावरणीय परिवर्तनों के प्रति अधिक संवेदनशील बना सकती हैं।
पौष्टिक गुण हाल ही में टाइम्स ग्रुप में छपे यू.सुधाकर रेड्डी जी के लेख में हैदराबाद स्थित राष्ट्रीय पोषण संस्थान (एनआईएन) के शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन में यह निष्कर्ष निकालकर खतरे की घंटी बजा दी है कि पिछले 50 वर्षों में पैदावार बढ़ाने के लिए चावल और गेहूं की किस्मों के आनुवंशिक प्रजनन ने आवश्यक और लाभकारी पोषक तत्वों को कम कर दिया है जबकि अनाज में विषाक्त तत्वों को बढ़ा दिया है।
वैज्ञानिक ने कहा कि प्रस्तावित खनिज आहार गुणवत्ता सूचकांक में चावल और गेहूं में कथित समय अवधि (1960-2010) में क्रमशः 57% और 36% की कमी आई है, इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।” 2040 तक भारतीय आबादी में संचारी रोग जैसे आयरन की कमी से होने वाला एनीमिया, श्वसन, हृदय और मस्कुलोस्केलेटल समस्याएं शामिल होंगी।” इससे बचाब हेतु पारंपरिक बीजों में प्रायः अद्वितीय पोषण संबंधी विशेषताएं होती हैं। इन बीजों को उनके स्वाद, बनावट और पोषण सामग्री के लिए चुना और उगाया जाता है। स्वस्थ और विविध आहार को बढ़ावा देने के लिए पारंपरिक बीजों की विविध किस्मों तक पहुंच बनाए रखना आवश्यक है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां कुछ फसलें प्राथमिक खाद्य स्रोत हो सकती हैं।
पारंपरिक बीज अक्सर अद्वितीय स्वाद, बनावट और पोषण प्रोफाइल का दावा करते हैं। वे विविध आहार और पाक परंपराओं का समर्थन करते हैं, अपने व्यावसायिक समकक्षों की तुलना में स्वाद और पोषक तत्वों की व्यापक विविधता पेश करते हैं।
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