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एक महिला आईपीएस और घरेलू हिंसा

  • ऋतु सारस्वत
    बीते दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय ने घरेलू हिंसा से जुड़े एक मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि ‘किसी महिला के सशक्त पद पर होने का मतलब यह नहीं है कि वह घरेलू हिंसा का शिकार नहीं हो सकती।’ यह टिप्पणी सत्र न्यायालय के उस फैसले की सुनवाई करते हुए दी गई, जिसमें सत्र न्यायालय ने कहा था कि ‘एक महिला पुलिस अधिकारी के साथ घरेलू हिंसा नहीं हो सकती।’अमूमन माना जाता है कि घरेलू हिंसा का शिकार वे महिलाएं होती हैं, जो आर्थिक रूप से पति पर निर्भर हों। इसके पीछे वे तमाम अध्ययन हैं, जो बताते हैं कि घरेलू हिंसा का सामना ज्यादातर निम्न आर्थिक एवं सामाजिक स्तर की महिलाओं को करना पड़ता है। परंतु आज तक कोई भी शोध यह दावा नहीं कर पाया है कि कामकाजी व सशक्त महिलाएं घरेलू प्रताड़नाओं से मुक्त हैं। एबिगेल बीट्जमैन का अध्ययन ‘विमेन ऐंड मेन्स रिलेटिव स्टेट्स ऐंड इंटिमेट पार्टनर वायलेंस इन इंडिया’ बताता है कि जिन परिवारों में महिलाएं कामकाजी और पति से अधिक कमाने वाली हैं, उन्हें भी घरेलू हिंसा सहनी पड़ती है। बीट्जमैन कहती हैं कि घर की शक्ति-नियंत्रण की गतिशीलता पितृसत्तात्मक ढांचे में कुछ इस तरह आत्मसात हो चुकी है कि नियंत्रण रखने की मानसिकता इससे जरा भी प्रभावित नहीं होती है कि महिला आर्थिक रूप से सक्षम है या नहीं। अंतर सिर्फ इतना है कि आर्थिक रूप से सक्षम महिलाएं कई बार प्रताड़नाओं का विरोध कर पाती हैं।
    दुनिया भर के विभिन्न समाजों में महिलाओं को उनकी लैंगिक भूमिकाओं के अनुरूप समाजीकृत किया जाता है और यह प्रक्रिया आधुनिकीकरण के तमाम दावों के बीच भी सफल वैवाहिक जीवन के निर्वहन का समस्त दायित्व स्त्री के कंधों पर डालती है और बड़ी ही निष्ठुरता से यह स्वीकार करती है कि वैवाहिक जीवन के उतार-चढ़ावों के बीच महिला का धैर्य और त्याग विवाह के स्थायित्व की नींव बनता है। इस ‘धैर्य’ की परिभाषा में मौखिक और मनोवैज्ञानिक दुर्व्यवहार को सहजता से स्वीकारना भी शामिल है। स्पष्ट है कि यह नियम कामकाजी महिलाओं पर भी लागू होता है।
    अल्बर्ट बंडूरा की ‘सोशल लर्निंग थ्योरी’ परिवार के भीतर हिंसा के कई पीढ़ियों तक संचरण की चर्चा करती हैं। इसके अनुसार बच्चे अंतरंग साथी के बीच हिंसा को पारिवारिक वातावरण में देखने और नकल करने की प्रक्रिया के जरिये ‘हिंसक व्यवहार’ को आत्मसात कर लेते हैं। घरेलू हिंसा राष्ट्र के विकास को प्रभावित करती है तथा समाज के आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक कल्याण को बाधित करती है। शोधों से पता चलता है कि महिलाओं के विरुद्ध हिंसा की लागत वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद का लगभग दो प्रतिशत हो सकती है। घरेलू हिंसा से संरक्षण अधिनियम पर प्रतिक्रियाएं ध्रुवीकृत हैं। एक धड़ा जहां महानगरों में रहने वाले कुलीन वर्ग द्वारा इसके दुरुपयोग की शिकायत कर रहा है, वहीं दूसरा धड़ा पित्तृसत्ता के कठोर ढांचे में दबी ग्रामीण महिलाओं के लिए इसकी निरर्थकता पर ठप्पा लगा चुका है। इसलिए घरेलू हिंसा से निपटने के लिए कानून से अधिक, ठोस एवं समन्वित प्रयास आवश्यक हैं।

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