Home » ज्ञानवापी मामले का गांधीवादी समाधान

ज्ञानवापी मामले का गांधीवादी समाधान

  • बलबीर पुंज
    काशी स्थित ज्ञानवापी मामले ने महत्वपूर्ण मोड़ ले लिया है। तीन हिंदू पक्षों ने वाराणसी स्थित जिला अदालत में विवादित परिसर के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) से सर्वे कराने हेतु याचिका दी है, जिसे स्वीकार कर लिया गया और 22 मई को इस पर सुनवाई होगी। हिंदू पक्षाकारों की मांग है कि खसरा संख्या 9130 (ज्ञानवापी परिसर) के जीपीआर सर्वे के साथ कलाकृतियों-खंबों की आयु निर्धारण आदि की वैज्ञानिक तकनीक से विस्तृत जांच की जाए। इससे पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 12 मई को एएसआई को परिसर में मिले शिवलिंग की ‘कार्बन डेटिंग’ अर्थात्ा— वैज्ञानिक जांच का निर्देश दिया था। गत वर्ष 16 मई को ज्ञानवापी परिसर के अदालत निर्देशित सर्वे में हिंदू पक्ष की ओर से वजूखाने में शिवलिंग मिलने का दावा किया गया था।
    यह विडंबना है कि जहां 1919-47 के बीच तत्कालीन भारतीय मुस्लिमों के एक बड़े हिस्से को हिंसक मजहबी आंदोलन के माध्यम से पाकिस्तान के रूप अलग देश मिल गया, वही हिंदू समाज को लगभग 500 वर्ष पश्चात न्यायालय द्वारा सुनाए गए निर्णय के बाद श्रीरामजन्मभूमि अयोध्या में राम मंदिर प्राप्त हुआ, तो ज्ञानवापी और मथुरा मामले में भी न्याय हेतु अदालत की शरण में है।
    सच तो यह है कि महादेव की नगरी स्थित पुरातन ज्ञानवापी परिसर, ‘सत्य को साक्ष्य की आवश्यकता नहीं होती’ वाक्यांश के सबसे जीवंत उदाहरणों में से एक है। संस्कृत शब्द ‘ज्ञानवापी’ के साथ विवादित स्थल पर हिंदू प्रधान आकृतियों की भरमार, वर्तमान मंदिर संरचना में नंदी महाराज का मुख बीते साढ़े तीन शताब्दियों से विपरीत दिशा में विवादग्रस्त वजूखाने की ओर होना-इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। हिंदू मान्यता/आस्था के अनुसार, किसी भी शिवालय में शिवलिंग/शिवमूर्ति की ओर देखते हुए ही नंदी की प्रतिमा होती है। काशी का प्राचीन मंदिर वर्ष 1194 से 1669 के बीच कई बार इस्लामी आक्रमण का शिकार हुआ, तो हर बार वह हिंदू प्रतिकार का साक्षी भी बना। क्रूर इस्लामी आक्रांता औरंगजेब ने जिहादी फरमान जारी करके प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करके उसके अवशेषों से मस्जिद बनाने का आदेश दिया था, जिसका उद्देश्य मुस्लिमों द्वारा इबादत के लिए न होकर केवल पराजितों को अपमानित करना था। इस्लामी आक्रमणकारियों द्वारा मंदिरों/मूर्तियों को तोड़ने की मजहबी मानसिकता का सटीक उल्लेख ‘तारीख-ए-सुल्तान महमूद-ए-गजनवी’ पुस्तक में मिलता है, जिसे वर्ष 1908 में जी. रुस-केपेल, काजी अब्दुल गनी खान द्वारा अनुवादित किया था। इसके अनुसार, जब गजनवी (971-1030) को एक पराजित हिंदू राजा ने मंदिर ध्वस्त नहीं करने के बदले अकूत धन देने की पेशकश की, तब उसने कहा, ‘हमारे मजहब में जो कोई मूर्तिपूजकों के पूजास्थल को नष्ट करेगा, वह कयामत के दिन बहुत बड़ा इनाम पाएगा और मेरा इरादा हिंदुस्तान के हर नगर से मूर्तियों को पूरी तरह से हटाना है…।’ इस प्रकार के रोमहर्षक वृतांतों का उल्लेख इस्लामी आक्रांताओं के समकालीन इतिहासकारों या उनके दरबारियों द्वारा लिखे विवरण में सहज मिल जाता है। औरंगजेब के खूनी इतिहास पर लिखी ‘मासिर-ए-आलमगीरी’ ऐसी ही एक पुस्तक है, जिसमें अन्य कई मंदिरों के साथ मथुरा स्थित प्राचीन केशव मंदिर को ध्वस्त करने और मथुरा-वृंदावन के नाम बदलने का भी प्रमाणिक वर्णन है।
    ज्ञानवापी मामले की अदालती सुनवाई का समाज के एक वर्ग द्वारा विरोध किया जा रहा है। क्या किसी को लंबित न्याय से केवल इसलिए वंचित कर दिया जाए, क्योंकि उससे संबंधित समुदायों में विवाद उत्पन्न होगा? भारतीय समाज शताब्दियों तक अस्पृश्यता सहित कई कुरीतियों से अभिशप्त रहा है, जो समाज के भीतर उत्पन्न हुई कई जनजागृतियों के कारण आज बौद्धिक तौर पर शत-प्रतिशत समाप्त, तो व्यवहारिक रूप से कम अवश्य हुआ है। शेष भारतीय समाज ने ऐतिहासिक अन्यायों-गलतियों को सुधारने और उस पर पश्चाताप करने हेतु दलित-वंचितों के लिए आरक्षण व्यवस्था को आज भी बरकरार रखा है, तो दहेज, कन्या भ्रूण-हत्या आदि के संदर्भ में कई प्रभावी कानून बनाए है।
    वृहद हिंदू समाज ने विदेशी इस्लामी राज में जो असंख्य अन्यायपूर्ण कृत्यों को झेला है, उसके परिमार्जन में आखिर कहां समस्या आ रही है है? सच तो यह है कि अतीत में इस्लाम के नाम पर विदेशी आततायियों द्वारा किए गए अत्याचारों के लिए वर्तमान भारतीय मुसलमानों को कोई भी दोष नहीं दे सकता है। किंतु जब इसी समाज का एक वर्ग स्वयं को कासिम, गजनवी, गोरी, बाबर, जहांगीर, औरंगजेब, टीपू सुल्तान, सर सैयद, जिन्नाह, इकबाल आदि से जोड़ते है और उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानते है, तो वे भी तब स्वाभाविक रूप से जिम्मेदार हो जाते है। यह स्थिति मार्क्स-मैकॉले मानसबंधुओं के कारण है, जो दशकों से मुस्लिम समाज को उनकी मूल सांस्कृतिक जड़ों के स्थान पर इस्लामी आक्रांताओं से चिपकाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे है।
    वास्तव में, ऐसे ऐतिहासिक अन्याय का समाधान किस प्रकार से किया जाना चाहिए, इसका परामर्श गांधीजी 98 वर्ष पहले दे चुके थे। इस संबंध में गांधीजी ‘यंग इंडिया’ के 5 फरवरी 1925 में एक पाठक द्वारा मुसलमान-मस्जिद संबंधित प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखा था- ‘…दूसरे की जमीन में बिना इजाजत के मस्जिद खड़ी करना का सवाल हलके लिहाज से निहायत ही आसान सवाल है। अगर ‘अ’ (हिंदू) का कब्जा अपनी जमीन पर है और कोई शख्स उस पर कोई इमारत बनाता है, चाहे वह मस्जिद ही हो, तो ‘अ’ को यह अख्तियार है कि वह उसे गिरा दे। मस्जिद की शक्ल में खड़ी की गई हर एक इमारत मस्जिद नहीं हो सकती। वह मस्जिद तभी कही जाएगी, जब उसके मस्जिद होने का धर्म-संस्कार कर लिया जाए। बिना पूछे किसी की जमीन पर इमारत खड़ी करना सरासर डाकेजनी है। डाकेजनी पवित्र नहीं हो सकती। अगर उस इमारत को जिसका नाम झूठ-मूठ मस्जिद रख दिया गया हो, उखाड़ डालने की इच्छा या ताकत ‘अ’ में न हो, तो उसे यह हक बराबर है कि वह अदालत में जाए और उसे अदालत द्वारा गिरवा दें… जब तक मेरी मिल्कियत है, तब तक मुझे उसकी हिफाजत जरुर करनी होगी— वह चाहे अदालत के द्वारा हो या अपने भुजबल द्वारा।’ (सम्पूर्ण गांधी वांग्मय, खंड 26, जनवरी-अप्रैल 1925, पृष्ठ 65-66, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय)

Swadesh Bhopal group of newspapers has its editions from Bhopal, Raipur, Bilaspur, Jabalpur and Sagar in madhya pradesh (India). Swadesh.in is news portal and web TV.

@2023 – All Right Reserved. Designed and Developed by Sortd