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चुनावी राजनीति पर विदेशी ताकतों और खुफिया तंत्र का असर

  • आलोक मेहता
    भारत के चुनावों पर दुनिया के मित्र अथवा प्रतियोगी या दुश्मन देशों की नजर और खुफिया तंत्र की भूमिका हमेशा रही है। सत्तर अस्सी के दशक में कम्युनिस्ट विचारधारा के मुकाबले के लिए उदार अर्थव्यवस्था वाली शक्तियां सक्रिय रही हैं। फिर पाकिस्तानी और कुछ इस्लामिक देशों ने अपने स्वार्थों के लिए कुछ दलों संगठनों का उपयोग शुरु किया। भारत की आर्थिक और राजनयिक क्षमता बढ़ने पर चीन ने अमेरिकी गुप्तचर एजेंसी सी आई ए और रुसी एजेंसी के जी बी की तरह अपना जाल बिछाने के प्रयास किए हैं। यही कारण है कि नेहरु इंदिरा राजीव युग से मोदी युग के सत्ता काल में चुनावी राजनीति पर प्रभाव डालने वाले संदिग्ध संगठनों और उनकी गतिविधियों, विदेशी फंडिंग पर नजर एवं कार्रवाई की बात उठ रही है। वर्तमान लोक सभा चुनाव और सत्तारूढ़ भाजपा के विरुद्ध कुछ संगठनों, विदेशी फंडिंग और हिंसक गतिविधियों की चर्चा हो रही है। मजेदार बात यह है कि अपने राज के दौरान इसी तरह की विदेशी ताकतों और गतिविधियों की आवाज उठाने वाले कांग्रेस या अन्य दलों के नेता अब मोदी सरकार और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं द्वारा इन खतरों की बातों को गलत बताते हैं। तब सवाल उठता है कि क्या विदेशी ताकतें और जासूसी एजेंसियां अपने स्वार्थों के लिए विभिन्न राजनीतिक दलों या उनसे जुड़े संगठनों को समय-समय पर समर्थन कर रही हैं। चाहे हथियारों के सौदे हों या खनिज सम्पदा वाले राज्यों में माओवादी नक्सल गतिविधियां अथवा किसान आंदोलन के नाम पर भारत विरोधी खालिस्तानी तत्वों की घुसपैठ या भारतीय औद्योगिक बिजनेस समूहों के अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव तथा केंद्र में मजबूत बहुमत वाली सरकार पर विदेशी ‘गिद्ध निगाह लगी रहती है। कमजोर गठबंधन अस्थाई सरकारें विदेशी शक्तियों को अनुकूल लगती हैं, क्योंकि उनके निर्णयों को विभिन्न हथकंडों से प्रभावित किया जा सकता है।
    इस सन्दर्भ में वर्तमान देशी विदेशी संगठनों पर भारतीय गुप्तचर और सुरक्षा एजेंसियों की नजर अवश्य होगी। लेकिन इस मुद्दे पर जन सामान्य और युवा पीढ़ी के लिए हम जैसे पुराने पत्रकार पिछले रिकार्ड्स पर ध्यान दिला सकते हैं। सत्तर अस्सी के दशक में सोवियत रुस की गुप्तचर एजेंसी के जी बी और अमेरिकी जासूसी एजेंसी सी आई ए द्वारा भारत के राजनैतिक दलों पर प्रभाव और फंडिंग की जानकारियां इन देशों के एजेंटों और राजनयिकों ने पुस्तकों के माध्यम से स्वयं उजागर भी की। जैसे केजीबी के एक पूर्व वरिष्ठ अधिकारी और उसके सह-लेखक की एक पुरानी किताब में बताया गया कि रूसी एजेंसी ने भारत को ‘तीसरी दुनिया की सरकार के केजीबी की सफलता का मॉडल’ घोषित किया। उनका कहना था कि ‘भारत सरकार में खुफिया, काउंटर-इंटेलिजेंस, रक्षा और विदेश मंत्रालयों, पुलिस में कई स्रोत हैं तत्कालीन केजीबी प्रमुख यूरी एंड्रोपोव के अनुसार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनकी पार्टी के लिए नकदी के सूटकेस भेजे गए, लेकिन उन्होंने सीपीआई को भारी मात्रा में धन दिए जाने का जिक्र नहीं किया, जबकि सरावधिक सहायता उन्हें मिल रही थी। हालांकि,कांग्रेस और वामपंथियों की ओर से खंडन और विरोध हुआ। जब द मित्रोखिन आर्काइव 1999 में प्रकाशित हुई, तो पुस्तक ने हजारों केजीबी फाइलों से कॉपी की गई आधिकारिक और विस्तृत जानकारी के कारण पश्चिमी खुफिया हलकों में सुनामी पैदा कर दी।
    भारत में यह सवाल उठाया गया कि क्या लेखकों ने जासूसी कहानी को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया है। सीपीआई महासचिव एबी बर्धन ने कहा ‘यह एक बदनामी की कोशिश है।’ लेकिन वाशिंगटन में शीत युद्ध अंतर्राष्ट्रीय इतिहास परियोजना सहित कई स्रोत और पुस्तकें मौजूद हैं, जिनमें भारत में केजीबी की पैठ का विवरण दिया गया है। दिल्ली में रह चुके पूर्व केजीबी अधिकारी शेबरशिन सहित केजीबी अधिकारियों के दो पहले के संस्मरणों में भी भारत में इसके संचालन का विवरण दिया गया है। आईबी के पूर्व निदेशक एमके धर ने अपनी पुस्तक ओपन सीक्रेट्स में लिखा है कि आईबी ‘चार केंद्रीय मंत्रियों (इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में) और दो दर्जन से अधिक सांसदों की पहचान करने में सफल रही थी जो केजीबी पेरोल पर थे’। उन्होंने लिखा है कि ‘केजीबी की पहुंच का सबसे आश्चर्यजनक क्षेत्र रक्षा मंत्रालय और सशस्त्र बलों की वे परतें थीं जो सैन्य खरीद के लिए जिम्मेदार थीं’।
    दूसरी तरफ अमेरिका भी पीछे नहीं था। अनाज देने के लिए बने पीएल 480 फंड का उपयोग भारत में सीआईए द्वारा गुप्त गतिविधियों के लिए जमकर किया गया था। जानकारों के अनुसार, अतीत में कभी-कभी सीआईए गतिविधि के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले प्रमुख ‘मोर्चे’ धर्मार्थ ट्रस्ट, अमेरिकन इंस्टीट्यूट फॉर इंडियन स्टडीज, अमेरिकन एग्रीकल्चर रिसर्च सर्विस और यूएस एजुकेशनल फाउंडेशन ऑफ इंडिया के नाम भी विवादों में रहे। लॉस एंजिल्स टाइम्स के साथ एक इंटरव्यू में, एशिया में सक्रिय पूर्व सीआईए एजेंट थॉमस ब्रैंडन ने खुलासा किया कि सीआईए ने ‘भारतीय बंदरगाहों में नाविक संघों का उपयोग भी किया था।’
    भारत में रहे पूर्व अमेरिकी राजदूत डैनियल पैट्रिक मोयनिहान ने अपनी पुस्तक ए डेंजरस प्लेस में भारत में डॉलर की राजनीति में शामिल होने की बात स्वीकार की। मोयनिहान ने दो उदाहरणों का खुलासा किया जब अमेरिका ने एक राजनीतिक दल को धन मुहैया कराने की हद तक भारत में हस्तक्षेप किया था। यद्यपि कथित तौर पर केरल और पश्चिम बंगाल में संभावित कम्युनिस्ट जीत के मद्देनजर ऐसा किया गया था, मोयनिहान ने कहा कि दोनों मामलों में प्राप्तकर्ता कांग्रेस पार्टी थी।
    वहीं अमेरिकी लेखक थॉमस पॉवर्स ने अपनी पुस्तक में लिखा कि सीआईए ने 1971 में श्रीमती गांधी के मंत्रिमंडल में एक नेता को एजेंट को बना लिया था। पुलित्जर पुरस्कार विजेता पत्रकार पॉवर्स ने अपनी पुस्तक द मैन हू केप्ट द सीक्रेट्स में कहा है कि सी.आई.ए. श्रीमती गांधी के मंत्रिमंडल के एक सदस्य द्वारा 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के एक महत्वपूर्ण चरण के दौरान महत्वपूर्ण जानकारी दी जा रही थी।
    बाद के वर्षों में चीन ने अपनी एजेंसियों और व्यापारिक गतिविधियों के माध्यम से जासूसी और राजनीतिक गतिविधियों को प्रभावित करना शुरु किया। पाकिस्तान की एजेंसी आई एस आई और चीन की एजेंसियों ने पिछले वर्षों के दौरान अपना जाल फैलाया। इनसे जुड़े कुछ जासूस पकड़े भी गए और जेल में हैं। इसलिए जरुरत इस बात की है कि सरकार और समाज ऐसे भारत विरोधी तत्वों से सतर्क रहे और समय रहते उन पर कठोर कानूनी कार्रवाई हो।

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