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- उमेश चतुर्वेदी
जम्मू- कश्मीर भले ही अभी केंद्र शासित प्रदेश हो, लेकिन उसकी विधानसभा चुनावों पर सिर्फ देश ही नहीं, दुनिया की निगाह है। इसकी वजह है, संविधान काबहुचर्चित अनुच्छेद 370, जो अब अतीत बन चुका है। हालांकि राज्य के स्थानीय दल अब भी इसकी याद बनाए रखना चाहते हैं। राज्य की सत्ता संभाल चुकी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी ने तो बाकायदा अपने चुनाव घोषणा पत्र में इस अनुच्छेद को फिर से बहाल करने का वादा कर रखा है। राज्य में बीजेपी के खिलाफ मोर्चा बना चुकी कांग्रेस ने ऐसा कोई वादा तो नहीं किया है, अलबत्ता उसकी पार्टी लाइन इस अनुच्छेद को बनाए रखने की ही रही है। गाहे-बगाहे उसके नेताओं के बयान इस सिलसिले में आते रहते हैं। उसके साथ गठबंधन कर चुकी राज्य की दूसरी स्थानीय पार्टी नेशनल कांफ्रेंस भी इस अनुच्छेद की बहाली की बात करती रही है।
जम्मू-कश्मीर में सीमा पार से जारी आतंकी हस्तक्षेप और आतंकी घटनाओं की वजह से विशेषकर कश्मीर घाटी में चुनाव कराना चुनौतीपूर्ण है। लेकिन सेना और सुरक्षा बलों के सहयोग से चुनाव आयोग ने निष्पक्ष और भयरहित चुनाव कराने की ठान ली है। चुनावी तारीखों का ऐलान करते वक्त मुख्य चुनाव आयुक्त ने वादा किया था कि धरती के स्वर्ग में चुनाव खुशनुमा माहौल में ही होंगे। चुनाव आयोग की घोषणा और राज्य से संबंधित अनुच्छेद 370 के अप्रभावी होने के बाद हो रहे चुनावों को लेकर राज्य के मतदाताओं में उत्साह है। जिस कश्मीर घाटी में आतंकवाद के उभार के बाद से बमुश्किल नौ प्रतिशत तक मतदान होता रहा है। 1989 में आतंकवाद के उभार के बाद से पहली बार पिछले लोकसभा चुनाव के दौरानउत्तरी कश्मीर में नियंत्रण रेखा के पास बारामूला, मध्य कश्मीर में श्रीनगर और दक्षिणी कश्मीर में पीर पंजाल पर्वतों के पास अनंतनाग-राजौरी की तीन सीटों के लिए छठे चरण में संपन्न हुए चुनावों में जहां बारामुल्ला में 59 फीसद मतदान हुआ, वहीं श्रीनगर में 38 तो अनंतनाग-राजौरी में 53 प्रतिशत लोगों ने वोट डाला। चूंकि विधानसभा चुनाव संसदीय चुनावों की तुलना में कहीं ज्यादा स्थानीय मुद्दों पर भी होंगे, इसलिए वोटरों की इस संख्या में और बढ़त ही हो सकती है।
जम्मू-कश्मीर की मौजूदा विधानसभा में अब 114 सीटें हैं, जिनमें से 24 सीटें पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के लिए सुरक्षित रखी गई हैं। यानी चुनाव बाकी 90 सीटों के लिए हो रहा है। इस चुनाव में नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस ने समझौता कर लिया है। जबकि पीडीपी अब भी अकेले चुनाव लड़ने की तैयारी में है। जबकि अनुच्छेद 370 हटाने वाली भारतीय जनता पार्टी भी अकेले मैदान में उतर रही है। बीजेपी का प्रभाव ज्यादातर जम्मू इलाके में है। जहां सिर्फ 43 सीटें हैं। वैसे पार्टी कश्मीर घाटी की 47 सीटों में से अधिकांश पर उतरने की तैयारी में है। चूंकि 370 हटाए जाने के बाद यह पहला चुनाव है, इसलिए यह चुनाव बीजेपी के लिए नाक का सवाल है। शायद यही वजह है कि पार्टी ने अतीत में राज्य में सहयोगी दलों के साथ कमल खिला चुके अपने धुरंधर नेता राम माधव को राज्य का प्रभारी बनाकर मैदान में उतारा है। अनुच्छेद 370 को हटाने के बाद पार्टी की लोकप्रियता विशेषकर जम्मू क्षेत्र में अपने चरम पर थी। जम्मू इलाके के ही लोगों ने प्रजामंडल के बैनर तले कश्मीर के पूर्ण विलय को लेकर आंदोलन चलाया था। लेकिन टिकट बंटवारे को लेकर हाल के दिनों में पार्टी में विवाद सामने आए हैं। राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके निर्मल सिंह को इस बार टिकट तक नहीं मिला है। कई इलाकों में टिकट बंटवारे को लेकर सवाल भी उठे हैं। इसलिए पार्टी के सामने चुनौती बड़ी है। इसलिए बीजेपी राज्य में ताकत हासिल करने के लिए पूरा जोर लगा रही है।
बीजेपी के लिए एक अच्छी बात यह कही जा सकती है कि उसके पास कश्मीर घाटी की मुस्लिम बहुल जनसंख्या से भी लोग टिकट के लिए आए हैं। राज्य की कुल आबादी का 68 फीसदी मुसलमान हैं, जबकि हिंदू आबादी सिर्फ 28 प्रतिशत ही हैं। करीब दो फीसदी सिख भी हैं। माना जा रहा है कि हिंदुओं और सिखों का समर्थन बीजेपी को मिलेगा। वैसे बीजेपी मुस्लिम समुदाय का भी समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रही है। यह बात है कि बीते संसदीय चुनावों में जिस तरह यहां निर्दलीय इंजीनियर राशिद भी चुनाव जीत चुके हैं। माना जा रहा है कि अपने प्रभाव वाले इलाके में वे अपने उम्मीदवारों को जिताने की कोशिश करेंगे। राज्य में बहुमत हासिल करने में कामयाब होगी, तभी अनुच्छेद 370 हटाने का विरोध करने वाली जुबानें शांत हो पाएंगी। अगर बीजेपी को ऐसी कामयाबी नहीं मिलती तो विरोधियों को मौका मिल जाएगा और उनकी आवाज बुलंद होगी। इतना ही नहीं, सीमापार की भारत विरोधी ताकतों को भी बोलने का मौका मिल जाएगा। पीडीपी तो घोषित कर ही चुकी है कि वह अगर सत्ता में आई तो अनुच्छेद 370 को फिर बहाल करेगी। यह बात और है कि अनुच्छेद की बहाली सिर्फ पीडीपी के वश की बात नहीं है। संसद के दोनों सदनों के बहुमत से जिसे निष्प्रभावी बनाया जा चुका हो, उसे बहाल करने का अधिकार किसी विधानसभा को नहीं है।
बीते लोकसभा चुनाव में अपनी सीटें बढ़ा चुकी कांग्रेस, विशेषकर उसके नेता राहुल गांधी केंद्र सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे।इसी सिलसिले में वे उमर अब्दुल्ला को मनाकर चुनावी मैदान में उतारने में कामयाब रहे हैं। राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने चुनाव ना लड़ने का प्रण लिया था। लेकिन कांग्रेस और स्थानीय नेतृत्व के मनाने के बाद उन्होंने अपना प्रण तोड़ दिया है। अब वे अपनी पारंपरिक गांदरबल सीट से चुनावी मैदान में उतरने जा रहे हैं। उमर के इस कदम से एक संकेत तो मिलता है कि नेशनल कांफ्रेंस भी मान चुकी है कि राज्य की अगस्त 2019 से पहले वाली संवैधानिक स्थिति नहीं रहने वाली। वैसे कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस गठबंधन को जीत मिली तो यह तय है कि वे बीजेपी सरकार के अगस्त 2019 के फैसले को सवालों के घेरे में जरूर खड़ा करेंगे। इसके लिए कश्मीरी जनमत को बहाना बनाया जाएगा और यह कहा जाएगा कि वह बीजेपी के फैसले के साथ नहीं है। हालांकि यह छिपी हुई बात नहीं रही है कि जम्मू इलाके की जनता जहां भारत में पूर्ण विलय की हिमायती रही है, वहीं कश्मीरी जनता का रूख किंचित अलग रहा है।
इस चुनाव में एक और बात नजर आ रही है। पहला मौका है, जब हुर्रियत कांफ्रेंस का तनिक भी असर नहीं दिख रहा। बल्कि उसकी चर्चा भी नहीं हो रही। वहीं जम्मू-कश्मीर के कद्दावर नेता रहे गुलाम नबी आजाद और उनकी नवेली प्रगतिशील आजाद पार्टी का कोई वजूद नहीं दिख रहा। जबकि उन्होंने जब कांग्रेस से अलग होकर पार्टी बनाई थी तो उसकी धमक महसूस की जा रही थी। वैसे एक बात हवा में तैर रही है कि अगर विधानसभा चुनावों के बाद हालात ठीक रहे तो धरती का स्वर्ग कहे जाने वाले इस राज्य को अन्य पूर्ण राज्यों की तरह अधिकार दिए जा सकते हैं।