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- ओपी रावत
किसी भी निर्वाचन-प्रक्रिया का अंतिम अहम हिस्सा है मतगणना। चुनाव आयोग ने इसके बारे में बहुत विस्तार से दिशा-निर्देश जारी किए हैं, जिनको समयानुकूल अपडेट भी किया जाता रहा है। इस बार नतीजों से एक दिन पहले आयोग ने प्रेस कॉन्फ्रेंस भी की, जिसमें मतदाताओं की संख्या बताने के साथ-साथ सुचारु मतगणना-कार्य को लेकर चर्चा की गई। दो सीख मिलने की बात भी मुख्य चुनाव आयुक्त ने कही, जिनमें पहली है- तेज गरमी में मतदान नहीं कराना चाहिए था, बल्कि इसे एक महीना पहले खत्म किया जा सकता था। और दूसरा सबक, आयोग अपने खिलाफ तैयार किए जा रहे फेक नैरेटिव से अब किस तरह लड़ेगा।
इस संवाददाता सम्मेलन की जरूरत इसलिए भी महसूस हुई, क्योंकि वोटर टर्नआउट, यानी मतदाताओं की असली संख्या को लेकर बार-बार सवाल उठे हैं। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि इस बार चुनाव आयोग ने ‘वोटर टर्नआउट’ नामक एक एप बनाया, जिसके जरिये मतदान के आंकड़े तत्काल मुहैया कराने के दावे किए गए थे। यह फॉर्म 17-सी जैसा था, जिसमें मतों का पूरा लेखा होता। इस एप को लेकर लोगों में शुरू-शुरू में उत्साह तो खूब रहा, लेकिन यह समय पर अपडेट नहीं हो सका, क्योंकि मतदानकर्मियों की पहली प्राथमिकता चुनाव कराने की होती है और उनको बाकी काम तुलनात्मक रूप से कमतर लगते हैं। चूंकि एप में आंकड़े अपडेट नहीं हुए, और आंकड़े भी कभी प्रतिशत, तो कभी अंक में दिए गए, इसलिए मत-प्रतिशत को लेकर कुछ विवाद पैदा हो गया।
निस्संदेह, फॉर्म-17(सी) किसी चुनाव का काफी महत्वपूर्ण दस्तावेज होता है, क्योंकि इसी से तय होता है कि मतदान-केंद्र पर जो ईवीएम इस्तेमाल की गई, वह सही है और उसमें उतने ही वोट पड़े हैं, जितने की गिनती हुई है। यह ‘क्रॉस चेकिंग’ का बड़ा औजार है। चूंकि चुनाव आयोग पर कोई सवाल न उठे, इसलिए यह अनिवार्य किया जाता है कि फॉर्म-17 (सी) और डाले गए वोटों का मिलान हो और सभी काउंटिंग टेबल पर तमाम एजेंट इससे पूरी तरह संतुष्ट हों। हां, यदि ईवीएम सही परिणाम नहीं दिखा पा रही, तो उसे रिटर्निंग ऑफिसर, यानी पीठासीन अधिकारी को वापस सौंप दिया जाता है, लेकिन अन्य टेबलों पर ईवीएम से वोटों की गिनती बदस्तूर जारी रहती है। अंत में, जब प्रत्याशियों की हार-जीत का अंतर उस ईवीएम में पड़े कुल वोटों से अधिक पाया जाता है, तो उसे किनारे कर दिया जाता हैै, अन्यथा उसमें दर्ज आंकड़ों को फिर से जुटाने की कोशिश होती है।
मतगणना का कार्य बहुत ही संवेदनशील होता है। मतगणना-स्थल पर तनाव कम करने के हरसंभव प्रयास किए जाते हैं। गड़बड़ी दिखते ही उसके निराकरण की तत्काल व्यवस्था की जाती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसीलिए सभी निर्वाचन-क्षेत्रों के हर विधानसभा क्षेत्रों के पांच मतदान-केंद्रों पर वीवीपैट के मिलान की व्यवस्था की है। यह काम बहुत मुस्तैदी से किया जाता है। यहां तक कि वीवीपैट पर्चियों को उन स्थानों पर गिना जाता है, जहां तेज हवा का झोंका न आए, क्योंकि छोटी-छोटी पर्चियां हवा में उड़ सकती हैं और संबंधित मतदान केंद्र पर पड़े वोटों की संख्या से मिलान प्रभावित हो सकता है। इससे चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल खडे़ हो सकते हैं, इसलिए आयोग इसको लेकर विशेष संजीदा रहता है।
पहले चुनाव मतपत्रों से होते थे, तो सुबह आठ बजे से शुरू हुई मतगणना अगले दिन सुबह चार बजे तक भी चलती रहती थी। उस समय मतपत्रों की गिनती सीधे नहीं होती थी, बल्कि मतपेटियों से सभी मतपत्रों को एक जगह निकालकर 25-25 का बंडल बनाया जाता था और फिर उसे आपस में मिलाकर हर टेबल पर बांट दिया जाता था। इससे यह पता नहीं चल पाता कि किस मतदान-केंद्र का मतपत्र किस टेबल पर आया है। यह बेशक एक लंबी और थकाऊ प्रक्रिया थी, पर ऐसा करना अनिवार्य समझा गया था, क्योंकि जब टीएन शेषन मुख्य चुनाव आयुक्त थे, तो उन्होंने यह महसूस किया था कि विजेता प्रत्याशी आमतौर पर उन मतदान-केंद्रों के मतदाताओं के प्रति रूखा व्यवहार रखता था, जहां से उसे कम वोट मिले होते हैं। विजेता प्रत्याशियों की इसी दुर्भावना की काट उन्होंने मतपत्रों को आपस में मिलाने और 25-25 के बंडल में हर टेबल पर बांटने के रूप में निकाली थी।
वैसे, मतों की गिनती के इस कार्य में मील का पत्थर सिर्फ यही एक प्रयास नहीं है। पहले के दो आम चुनावों में, यानी 1952 और 1957 के लोकसभा चुनावों में उम्मीदवारों के नाम की मतपेटी रखी जाती थी और मतदाता अपने चुनिंदा प्रत्याशी की मतपेटी में पर्ची गिरा देते थे, जिनकी गिनती करके नतीजे का एलान किया जाता था। बाद में मतपत्रों की व्यवस्था की गई, लेकिन शुरुआती दौर में मतदान-केंद्रों के आधार पर मतपत्रों की गिनती होती थी, जिसे टीएन शेषन ने बदल दिया। ईवीएम ने मतगणना के कार्य को काफी आसान बना दिया। इसमें छह-सात घंटों में ही परिणाम आने लगा। इसके बाद सुब्रमण्यम स्वामी की एक याचिका के बाद वीवीपैट की व्यवस्था शुरू हुई, ताकि मतदाता को पता चल सके कि उसने जिस प्रत्याशी के नाम का बटन दबाया है, वोट उसे ही मिला है। फिर, हरेक विधानसभा क्षेत्र के एक मतदान केंद्र की वीवीपैट पर्ची मिलाने की व्यवस्था की गई, जिसे बढ़ाकर अब प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र के पांच-पांच मतदान केंद्रों तक कर दिया गया है।
जब मुकाबला कड़ा होता है, तब मतों की गिनती काफी चुनौतीपूर्ण कसरत मानी जाती है। आयोग पर इसकी जवाबदेही बढ़ जाती है कि प्रत्याशियों के संदेह का तत्काल निराकरण हो। आयोग इसमें सफल रहा है, इसलिए उसकी साख पूरी दुनिया में है। जितने मत यूरोप व अमेरिका में डाले जाते हैं, उनसे कहीं अधिक भारत में मतदान होता है। यहां पश्चिमी देशों की तरह मतदाताओं में साक्षरता नहीं है, फिर भी हमारेे यहां चुनाव ऐतिहासिक होते हैं और सभी पार्टियां नतीजों को स्वीकार करती हैं। नतीजों के खिलाफ याचिकाएं भी नाममात्र की डाली जाती हैं। इसकी वजह यही है कि आयोग आपत्तियों का निपटारा करने में सक्षम है। इस बार भी यदि किसी प्रत्याशी को आपत्ति हो और वह प्रथम दृष्टया अपने आरोपों का तथ्यात्मक आधार देने में सफल होता है, तो उसकी शिकायत पर पीठासीन अधिकारी तत्काल कार्रवाई करेगा। संतुष्ट न होने पर चुनाव आयोग को प्रतिवेदन भी भेजा जा सकेगा।