लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मुस्लिम आरक्षण के विषय को उठाकर कांग्रेस सहित अन्य राजनीतिक दलों के संविधान विरोध कृत्य को उजागर कर दिया है। मुस्लिम आरक्षण पर मचे हो-हल्ला के बीच न्यायालय से एक बहुत महत्वपूर्ण निर्णय आया है। उच्च न्यायालय ने ममता बनर्जी की सरकार को झटका देते हुए उन्हें द्वारा 2011 से जारी अन्य पिछड़ा वर्ग के सभी प्रमाण पत्रों को अमान्य करार दिया है। न्यायालय के निर्णय पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जिस प्रकार की प्रतिक्रिया दी है, वह किसी भी प्रकार से उचित नहीं कही जा सकती। एक प्रकार से उन्होंने संवैधानिक पद पर बैठकर न्यायालय की अवमानना की है। कोई मुख्यमंत्री यह कैसे कह सकता है कि वह न्यायालय के निर्णय को नहीं मानेगा। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने यहाँ तक कह दिया है कि न्यायालय का यह निर्णय भाजपा का निर्णय लगता है। ममता बनर्जी को न्यायालय के आदेश से इसलिए चिढ़ हो रही है क्योंकि इससे उनके वोटबैंक को भारी नुकसान हो सकता है। दरअसल, ममता बनर्जी सरकार ने मुस्लिम समुदाय को साधने के लिए बड़ी संख्या में मुसलमानों को भी पिछड़ा वर्ग में शामिल करके उनके प्रमाण-पत्र जारी किए थे। कांग्रेस की सरकारों ने भी यह कारनामा किया है, जिस पर आजकर भाजपा हमलावर है। धर्म के आधार पर आरक्षण देना, वास्तव में संविधान विरोधी कृत्य है। हमारे संविधान में कहीं भी आरक्षण के लिए धर्म को आधार नहीं बनाया गया है। हिन्दू धर्म के वंचित वर्ग के उत्थान के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। वहीं, राजनीतिक दल अपने राजनीतिक उत्थान के लिए मुस्लिमों को तुष्टीकरण करते हुए आरक्षण की व्यवस्था से छेड़छाड़ कर रहे हैं। मुसलमानों को आरक्षण देना केवल संविधान विरोधी कार्य नहीं है अपितु यह पिछड़ा वर्ग विरोध कृत्य भी है। एक तरह से पिछड़ा वर्ग के विभिन्न वर्गों का अधिकार छीनकर संप्रदाय विशेष को आरक्षण दिया जा रहा है। याद रखें कि संप्रदाय के आधार पर आरक्षण देने की भूमिका कांग्रेस के समय में ही बनायी गई थी। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में गठित सच्चर कमेटी की रिपोर्ट ने इसका आधार तैयार किया है। उस रिपोर्ट में देश में मुस्लिम समुदाय की स्थिति के बारे में विस्तृत बातें की गई थीं। रिपोर्ट में कहा गया था कि पश्चिम बंगाल सरकार के कर्मचारियों में केवल 3.5 प्रतिशत ही मुस्लिम थे। इसी को आधार बनाकर 2010 में पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार ने 53 जातियों को ओबीसी की श्रेणी में डाल दिया। इस तरह उस समय लगभग 87.1 प्रतिशत मुस्लिम आबादी आरक्षण के दायरे में आ गई। लेकिन, 2011 में वाम मोर्चा की सरकार सत्ता से बाहर हो गई और उसका यह फैसला कानून नहीं बन सका। बाद में, ममता सरकार ने इस सूची को बढ़ाकर 77 कर दिया। 35 नई जातियों को इस सूची में जोड़ा गया, जिसमें से 33 मुस्लिम समुदाय की जातियां थीं। ममता सरकार के इस कानून की वजह से राज्य की 92 फीसदी मुस्लिम आबादी को आरक्षण का लाभ मिलने लगा। कुलमिलाकर वाम दल हों या कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस, सबने अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण में मुसलमानों को घुसाने का प्रयास किया है, जो कि विधि सम्मत नहीं है। इसलिए ही न्यायालय ने ममता सरकार की व्यवस्था को अवैध बताया है। जो भी राजनीतिक दल संविधान से छेड़छाड़ करके अपनी सांप्रदायिक राजनीति को चलाना चाहते हैं, न्यायालय का यह निर्णय उनके लिए सबक है।
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