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- ललित गर्ग
भारत की भूमि पर अनेक महापुरुषों ने जन्म लेकर इस धरा का गौरव बढ़ाया, उसी आलोकधर्मी परंपरा का विस्तार है आचार्य महाश्रमण। महावीर, बुद्ध, गांधी, आचार्य भिक्षु, आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ की इस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने स्वयं को ऊपर उठाया, महनीय एवं कठोर साधना की, अनुभव प्राप्त किया और अपने अनुभव वैभव के आधार पर दुनिया को शांति, अहिंसा, प्रेम, सौहार्द, अयुद्ध एवं वसुधैव कुटुम्बकम् का सन्देश दिया। अतीत की धुंधली होती आध्यात्मिक परंपरा को आचार्य महाश्रमण एक नई दृष्टि प्रदान की हैं। यह नई दृष्टि एक नए मनुष्य का, एक नए जगत का, एक नए युग का सूत्रपात कही जा सकती है। विशेषतः उनकी विनम्रता और समर्पणभाव उनकी आध्यात्मिकता को ऊंचाई प्रदत्त रह रहे हैं। भगवान राम के प्रति हनुमान की जैसी भक्ति और समर्पण रहा है, वैसा ही समर्पण आचार्य महाश्रमण का अपने गुरु आचार्य तुलसी और आचार्य महाप्रज्ञ के प्रति रहा है। 22 मई 2024 यानी वैशाख शुक्ला चौदस को आचार्य श्री महाश्रमण की दीक्षा का स्वर्ण जयन्ती समारोह राष्ट्रव्यापी स्तर पर मनाया जा रहा है।
आचार्य महाश्रमण निरुपाधिक व्यक्तित्व का परिचायक बन गया और इस वैशिष्ट्य का राज है उनका प्रबल पुरुषार्थ, उनका समर्पण, अटल संकल्प, अखंड विश्वास और ध्येय निष्ठा। एमर्सन ने सटीक कहा है कि जब प्रकृति को कोई महान कार्य सम्पन्न कराना होता है तो वह उसको करने के लिये एक प्रतिभा का निर्माण करती है।’ निश्चित ही आचार्य महाश्रमण भी किसी महान् कार्य की निष्पत्ति के लिये ही बने हैं। ऐसे ही अनेकानेक महान् कार्यों उनके जीवन से जुड़े हैं, उनमें एक विशिष्ट उपक्रम बना था अहिंसा यात्रा।
आचार्य महाश्रमण ने अपनी आठ वर्षीय इस ऐतिहासिक, अविस्मरणीय एवं विलक्षण यात्रा में उन्नीस राज्यों एवं भारत सहित तीन पड़ोसी देशों की करीब सत्तर हजार किलोमीटर की पदयात्रा करते हुए अहिंसा और शांति का पैगाम फैलाया। करीब एक करोड़ लोगों को नशामुक्ति का संकल्प दिलाया। नेपाल में भूकम्प, कोरोना की विषम परिस्थितियों में इस यात्रा का नक्सलवादी एवं माओवादी क्षेत्रों में पहुंचना आचार्य महाश्रमण के दृढ़ संकल्प, मजबूत मनोबल एवं आत्मबल का परिचायक बना था। आचार्य महाश्रमण का देश के सुदूर क्षेत्रों-नेपाल एवं भूटान जैसे पडौसी राष्ट्रों सहित आसाम, बंगाल, बिहार, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, कर्नाटक, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि में अहिंसा यात्रा करना और उसमें अहिंसा पर विशेष जोर दिया जाना अहिंसा की स्थापना के लिये सार्थक सिद्ध हुआ है। क्योंकि आज देश एवं दुनिया हिंसा एवं युद्ध के महाप्रलय से भयभीत और आतंकित है।
जातीय उन्माद, सांप्रदायिक विद्वेष और जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं का अभाव- ऐसे कारण हैं जो हिंसा को बढ़ावा दे रहे हैं और इन्हीं कारणों को नियंत्रित करने के लिए आचार्य महाश्रमण अहिंसा यात्रा के विशिष्ट अभियान के माध्यम से प्रयत्नशील बने थे।
भारत की माटी में पदयात्राओं का अनूठा इतिहास रहा है। असत्य पर सत्य की विजय हेतु मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा की हुई लंका की ऐतिहासिक यात्रा हो अथवा एक मुट्ठी भर नमक से पूरा ब्रिटिश साम्राज्य हिला देने वाला 1930 का डाण्डी कूच, बाबा आमटे की भारत जोड़ो यात्रा हो अथवा राष्ट्रीय अखण्डता, साम्प्रदायिक सद्भाव और अन्तर्राष्ट्रीय भ्रातृत्व भाव से समर्पित एकता यात्रा, यात्रा के महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। भारतीय जीवन में पैदल यात्रा को जन-सम्पर्क का सशक्त माध्यम स्वीकारा गया है। ये पैदल यात्राएं सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक यथार्थ से सीधा साक्षात्कार करती हैं। लोक चेतना को उद्बुद्ध कर उसे युगानुकूल मोड़ देती हैं। भगवान् महावीर ने अपने जीवनकाल में अनेक प्रदेशों में विहार कर वहां के जनमानस में अध्यात्म के बीज बोये थे।