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- विवेक शुक्ला
बीती 26 अप्रैल को लोकसभा की देशभर के अलग-अलग राज्यों में फैली 88 सीटों के लिए मतदान हुआ, पर एक खास बात की कमोबेश अनदेखी ही हुई। दूसरे चरण की पोलिंग में मणिपुर में 77.18 फीसद और त्रिपुरा में 78. 53 फीसद तक मतदान हुआ। इन दोनों राज्यों जितना अधिक मतदान देश में कहीं नहीं हुआ। इससे पहले, पहले दौर के मतदान में मेघालय में 70.26 फीसद, मिजोरम में 54.18 फीसद, नगालैंड में 56.77 फीसद, त्रिपुरा और मणिपुर में क्रमश : 89 फीसद से कुछ कम और लगभग 70 फीसद मतदान हुआ। यही नहीं, कहीं कोई हिंसा भी नहीं हुई।
मतदान के ये आंकड़े बहुत कुछ साफ-साफ कहते हैं। ये उन तमाम लोगों को शांत करवाने के लिए काफी हैं जो दावा करते थे कि पूर्वोत्तर राज्यों में शांति अभी दूर की संभावना है। सच तो यह है कि पूर्वोत्तर भारत की सफलता की कहानी बनकर उभरा है। पूर्वोत्तर से देश भर संदेश गया है कि कोशिश हो तो जटिल विवाद हल हो सकते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पिछले दस वर्षों में कई खूंखार उग्रवादी संगठनों के साथ शांति समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए और 9,500 से अधिक उग्रवादी आत्मसमर्पण कर समाज की मुख्यधारा में शामिल हुए। बेहतर सुरक्षा स्थिति के कारण, पूर्वोत्तर के 80 प्रतिशत हिस्से से सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) हटा लिया गया है।
पिछली सरकारों द्वारा वास्तविक समस्याओं का समाधान किए बिना सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (एएफएसपीए) को लगातार बढ़ाया गया। इसे त्रिपुरा और मेघालय से पूरी तरह हटा लिया गया है और मणिपुर, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश के अधिकांश जिलों में इसका अस्तित्व समाप्त हो गया है। बेशक, यह क्षेत्र में कानून-व्यवस्था की सुधरती स्थिति की ओर इशारा करता है। देश के लिए सिरदर्द बनने वाले उल्फा, यूएनएलएफ, डीएनएलएफ, एनएलटीएफ जैसे संगठन शांति स्थापित करने के लिए तैयार हुए और उनके कैडर देश- प्रदेश की मुख्यधारा में शामिल हो गए। इन उग्रवादी संगठनों के हजारों कैडरों ने आत्मसमर्पण कर दिया और उन्हें पुनर्वासित किया जा रहा है।
दरअसल पूर्वोत्तर राज्यों में अशांति का लंबा इतिहास रहा है। यहाँ उग्रवाद, अवैध घुसपैठ और अन्य समस्याओं के कारण पूरा क्षेत्र पक्षाघात की स्थिति मे ला कर खड़ा कर दिया गया था। कहना पड़ेगा कि पिछली सरकारों ने कोई ठोस कदम नहीं उठाए। यही नहीं, पूर्वोत्तर राज्य की पुरानी समस्याओं को हल करने की तरफ ध्यान नहीं दिया गया, जिसका परिणाम यह हुआ की यह सारा क्षेत्र जलने लगा। ऐसा प्रतीत होता हैं जैसे वहां की जनता को मूर्ख बना कर उनका ध्यान भटकाया जाता रहा।
नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल से ही पूर्वोत्तर राज्यों पर विशेष ध्यान दिया है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जो विकास के लिए केंद्र सरकार पर बहुत अधिक निर्भर है। यह सब होने के बावजूद इसकी घोर उपेक्षा की गई। अगर पूर्वोत्तर राज्य अब अमन की तरफ पूरी तरह से बढ़ रहे है तो इसका श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके तेज तर्रार गृह मंत्री अमित शाह को देना होगा। अमित शाह के पास एक रणनीतिक दृष्टिकोण है जो उनके सभी पूर्ववर्तियों को भी मात देता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के “सबका साथ, सबका विकास” मंत्र को अमित शाह ने पूर्वोत्तर में मन से लागू किया। केंद्रीय गृह मंत्रालय की सक्षम मध्यस्थता के कारण अग्रवादी संगठनों को शांति का रास्ता अपनाना पड़ा। इससे यह साबित होता है कि, अगर इरादे हों तो जटिल मुद्दों को भी हल किया जा सकता हैं।
पूर्वोत्तर में उग्रवादी घटनाओं में 89 प्रतिशत की कमी और नागरिकों की मौत के मामलों में 85 प्रतिशत की कमी आई है।सुरक्षाबलों की मृत्यु की घटनाएं 71 प्रतिशत घटकर 458 से 132 रह गईं, नागरिकों की मृत्युमें 86 प्रतिशत की कमी आई है।
शीशे की तरह साफ है कि नरेंद्र मोदी सरकार पूर्वोत्तर भारत में समग्र रूप से विकास करना चाहती है, चाहे वह सड़क कनेक्टिविटी, रेल कनेक्टिविटी, बिजली उत्पादन, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, दूरसंचार,आदिवासी कल्याण आदि हो।