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- डॉ. सदानन्द दामोदर सप्रे
दलित उद्धारक-सभी महापुरुष राष्ट्रवादी होते हैं, लेकिन उनके जीवन में राष्ट्रवाद के किसी विशिष्ट पहलू पर (वैश्विक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक, कलात्मक इत्यादि) अधिक जोर होता है। उदाहरण के लिए स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द का राष्ट्रवाद के वैश्विक और सांस्कृतिक पहलू पर, लोकमान्य तिलक और महात्मा गांधी का राष्ट्रवाद के राजनीतिक पहलू पर, बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय और सुभद्राकुमारी चौहान का राष्ट्रवाद के साहित्यिक पहलू पर और होमी भाभा और डॉ. अब्दुल कलाम का राष्ट्रवाद के वैज्ञानिक पहलू पर अधिक जोर था । इसी तरह डॉ. आंबेडकर का राष्ट्रवाद के सामाजिक पहलू पर अधिक जोर था। इसी कारण ‘दलित उद्धारक’ इस रूप में बाबासाहब ने सर्वाधिक काम किया ।
राष्ट्रवाद के सामाजिक पहलू के अंतर्गत समाज के दलित-वंचित – उपेक्षित लोगों के उत्थान की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है ताकि वे भी समाज के अन्य लोगों के समकक्ष होकर राष्ट्र के विकास में अपना योगदान कर सकें। इस दिशा में भारत का दृश्य बदलने लगा है। समाज के इसी वर्ग में से अब प्रशासनिक अधिकारी, इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, स्थापत्य शास्त्री, उद्योजक, राजनेता, साहित्यकार, कलाकार इत्यादि लोग खड़े होने लगे हैं और राष्ट्र के विकास में अपना योगदान करने लगे हैं जबकि पहले ऐसा बहुत कम होता था ।
अस्पृश्य मानी जाने वाली महार जाति में जन्म होने के कारण बालक भीमराव को पग-पग पर ऐसे अनुभव आते थे कि वो तिलमिला उठता था । उसे कक्षा में सब लडकों के साथ नहीं बैठने दिया जाता था। सब लड़के उसे अपने साथ नहीं खेलने देते थे। जो नाई भैंसों के भी बाल काटता था वह भीमराव के बाल काटने से मना कर देता था। किराया देकर बैलगाड़ी या तांगे में बैठे भीमराव को गालियाँ देकर तब नीचे उतार दिया जाता था जब चलाने वाले को उसकी महार जाति के बारे में पता चलता था।
परंतु इतने सब अपमान – अत्याचार सहने के बाद भी भीमराव ने विद्यालय में जाना नहीं छोड़ा। उसके पिताजी के समझाने के कारण उसे यह बात समझ में आ गई थी कि पढ़े-लिखे बिना उसके साथ और अछूत माने जाने वाले उसके समाज के साथ होने वाले दुर्व्यवहार और अत्याचार को समाप्त नहीं किया जा सकता ।
यदि बाबासाहब चाहते तो अपनी उच्च शिक्षा के आधार पर बहुत पैसा कमाकर अपने पूरे परिवार के साथ ऐशो-आराम के साथ जीवन बिता सकते थे। परंतु ऐसा न करते हुए उन्होंने अपने अछूत माने जाने वाले समाज पर होने वाले सामाजिक अत्याचारों को समाप्त करने को ही अपना जीवन लक्ष्य बना लिया था । इसलिए उनका सारा जीवन अत्यंत कठिन परिस्थितियों में गुजरा ।
बड़ी से बड़ी उपाधियाँ प्राप्त करने के बाद भी उनके साथ तथाकथित सवर्ण माने जाने वाले समाज के व्यवहार में कोई भी परिवर्तन नहीं हुआ था । तब बाबासाहब को ध्यान में आया कि दलित उद्धार के लिये केवल विद्याध्ययन ही पर्याप्त नहीं, उसके अलावा संघर्ष का रास्ता भी अपनाना पड़ेगा।
परंतु बाबासाहब का यह संघर्ष एक प्रकार से वैचारिक संघर्ष था, समाज की मानसिकता बदलने के लिए था। इसलिए इसमें हिंसा को कोई स्थान नहीं था। उनका संघर्ष समाज को तोड़ने के लिए नहीं, समाज के गलत व्यवहार को बदलने के लिए था।
बाबासाहब के ‘दलित उद्धारक’ इस पहलू को समझने के लिए यह ध्यान में रखना होगा कि वे ‘ब्राह्मणवाद’ के विरोधी थे, ब्राह्मणों के नहीं । वे ‘सर्वणवाद’ के विरोधी थे, सवर्णों के नहीं। उनका जीवन तो संघर्षमय था लेकिन वे किसी को शत्रु नहीं मानते थे। उनकी ऐसी सोच बनने के पीछे निम्नलिखित कारण हैं।
- उनके घर का संस्कारी वातावरण | माता – पिता (भीमाबाई – राम जी) कबीर पंथी होने के कारण भीमराव का स्वभाव प्रेम, दया, करुणा, सर्वकल्याण की भावना, शांति, अहिंसा इत्यादि सद्गुणों से युक्त था। उन के मन में द्वेष, घृणा, केवल खुद के भले की कामना, प्रतिशोध, हिंसा इत्यादि कि लिए कोई स्थान नहीं था ।
- उनके शालेय जीवन में जहाँ एक ओर अनेक ब्राह्मण-सवर्ण शिक्षकों का उनके प्रति निर्दय व्यवहार हुआ करता था, वहीं दूसरी ओर आंबेडकर, पेंडसे, केलुस्कर इत्यादि इसी वर्ग के शिक्षकों का उनके प्रति अत्यंत स्नेहमय व्यवहार था । आंबेडकर जी के कारण ही उनका नाम ‘आंबावाडेकर’ से ‘आंबेडकर’ बना। केलुस्कर जी ने ही भीमराव के मेट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण होने के उपलक्ष्य में उन्हें स्वयं की लिखी गौतम बुद्ध की जीवनी पुरस्कार के रूप में दी, जिसे पढ़कर उनके जीवन चरित्र से भीमराव अत्यधिक प्रभावित हुए और आगे चलकर उन्होंने जिन तीन महापुरुषों को अपना गुरु इस रूप में स्वीकार किया उन में से एक थे गौतम बुद्ध। (उन के अन्य दो गुरु थे संत कबीर और महात्मा फुले।)
- अपने जीवन में उन्होंने अनेक दलितेतर महापुरुषों को देखा था जिन्होंने दलितों के उत्थान के लिए कई प्रकार के काम किए थे, कर रहे थे । (राजर्षि शाहू महाराज, कर्मवीर शिंदे, स्वातंत्र्यवीर सावरकर, बडौदा महाराजा सयाजीराव गायकवाड़, स्वामी श्रद्धानंद, न्यायमूर्ति रानडे, श्रीधरपंत तिलक, रावबहादुर बोले इत्यादि)। उनके दलितोद्धार के कार्य में भी दलितेतर समाज के अनेक लोग भरपूर योगदान कर रहे थे।
बाबासाहब के जीवन की एक बहुत बड़ी विशेषता की ओर साधरणतः किसी का ध्यान नहीं जाता। वह है उन्होंने अस्पृश्यता को समाप्त किया परंतु उसके लिए हिंसा और रक्तपात नहीं होने दिया । यदि अन्य देशों की सामाजिक बुराइयाँ किस तरह समाप्त हुईं यह देखते हैं तो ध्यान में आता है कि अमरीका से अब्राहम लिंकन, मार्टिन ल्यूथर किंग इत्यादि महापुरुषों के कारण वहाँ की गुलामी की प्रथा तो समाप्त हुई परंतु उसके लिए गृहयुद्ध होकर भीषण रक्तपात हुआ । दक्षिण अफ्रीका से भी नेल्सन मंडेला, ओलिवर टेम्बो इत्यादि महापुरुषों के कारण रंगभेद तो समाप्त हुआ परंतु अनेक संघर्षों में हुए रक्तपात के बाद ।
यह देखा जा सकता है कि दलित समाज के लोगों के मन में पूज्य बाबासाहब के प्रति अपार श्रद्धा का भाव है। श्री शंकरराव खरात द्वारा लिखित आंबेडकर चरित्र में आचार्य दादा धर्माधिकारी के इस संबंध में कथन का उल्लेख एकदम सटीक है। वे कहते हैं “अस्पृश्यता निवारण और अछूतोद्धार के अभियान महाराष्ट्र में महात्मा फुले, कर्मवीर अण्णासाहब शिंदे जैसे कुछ समाज सुधारकों ने बड़ी आस्था और लगन के साथ किये। मगर उनमें और डॉ. आंबेडकर में एक मूलभूत अंतर है। आंबेडकर स्वयं अस्पृश्य थे। अन्य लोगों द्वारा चलाए गए अछूतोद्धार के अभियान में दयाभाव होगा, सेवाभाव होगा, ज्यादा से ज्यादा प्रायश्चित की भावना होगी, मगर आंबेडकर द्वारा चलाए गए अछूतोद्धार के आंदोलन में स्वतंत्रता की व स्वत्व के विकास की भावना थी । इस कारण अस्पृश्यों के मन में स्वातंत्र्य की आकांक्षा और आत्मानुभूति जैसी वे निर्माण कर सके वैसी अन्य किसी के भी लिए निर्माण करना असंभव था और इसीलिए वे अस्पृश्य समाज के अनन्य और असाधारण नेता बने ।
‘दलित उद्धारक’ इस भूमिका की कुछ विशेष बातें : महात्मा फुले से प्रेरणा लेकर बाबासाहब ने दलितों के उद्धार के लिए उनमें शिक्षा का प्रचार करने का कार्य प्रारंभ किया, किन्तु उन्हें स्वयं के ही उदाहरण से ध्यान में आया कि केवल इतना ही पर्याप्त नहीं । (वे स्वयं उच्च शिक्षा विभूषित होते हुए भी उनके साथ सवर्णों के व्यवहार में जरा सा भी परिवर्तन नहीं हुआ।) तब उन्होंने दलितों को संगठित कर इस अन्याय/अत्याचार का विरोध करने की ठानी। इसके बाद महाड़ का चवदार ताल वाला सत्याग्रह, नासिक के कालाराम मंदिर और अन्य स्थानों के मंदिरों में प्रवेश हेतु सत्याग्रह इत्यादि आंदोलन प्रारंभ हुए। परन्तु इसके उपरान्त भी सवर्णों के व्यवहार में परिवर्तन नहीं हुआ। तब एक ‘सदमा उपचार’ के रूप में उन्होंने 1935 में घोषणा की कि ‘मैं हिन्दू इस रूप में जन्मा हूँ, मगर मैं हिन्दू इस रूप में मरूँगा नहीं’। यदि वास्तव में ही वे हिन्दू धर्म को छोड़ना चाह रहे होते तो 1935 में ही घोषणा के स्थान पर वे धर्म परिवर्तन कर चुके होते, या आगामी कुछ वर्षों में ही धर्म परिवर्तन कर लिया होता। उस हेतु 21 वर्ष तक प्रतीक्षा नहीं की होती। (वे 1956 में अपनी मृत्यु के मात्र 2 महीने पहले अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म में शामिल हुए।) इससे स्पष्ट होता है कि उन्हें हिन्दू धर्म से आपत्ति नहीं थी । सवर्ण हिन्दुओं के दलितों के प्रति होने वाले सामाजिक दुर्व्यवहार से आपत्ति थी। (जरा कल्पना करें कि आज हिन्दुओं के प्रमुख धार्मिक और सामाजिक नेतृत्व द्वारा जिस तरह ‘हिन्दवः सोदराः सर्वे, न हिन्दुः पतितो भवेत’ और ‘यदि अस्पृश्यता’ गलत नहीं है तो संसार में कुछ भी गलत नहीं है’ इन जैसी निःसंदिग्ध घोषणाएँ की जाती हैं वैसी तब के प्रमुख धार्मिक और सामाजिक नेतृत्व द्वारा की गई होतीं तो क्या बाबासाहब ने धर्मांतरण किया होता?)
मैं किस धर्म में जाऊँगा और किस में नहीं इस के बारे में बाबासाहब के विचार अत्यंत स्पष्ट थे। श्री धनंजय कीर ने आंबेडकर चरित्र में इससे संबंधित उनके कथन उद्धृत किए हैं । “जो धर्म इस देश की प्राचीन संस्कृति को धक्का पहुँचाये या अराष्ट्रीय बना दे वह धर्म मैं कभी भी स्वीकार नहीं करूँगा क्योंकि इस देश के इतिहास में विध्वंसक के रूप में स्वयं का नाम दर्ज कराने की मेरी इच्छा नहीं है।”
“बौद्ध धर्म स्वीकार करके मैं इस देश का अधिकाधिक हित साध रहा हूँ क्योंकि बौद्ध धर्म भारतीय संस्कृति का ही एक भाग है। मैंने यह सावधानी रखी है कि इस देश की संस्कृति व इतिहास की परंपरा को धक्का न पहुँचे ।’’
केंद्रीय सरकार के विधि मंत्री के रूप में बाबासाहब ने जो ‘हिन्दू कोड बिल’ संसद में प्रस्तुत किया था उसमें ‘हिन्दू’ के अंतर्गत सिख, बौद्ध और जैनों का भी समावेश किया गया था । बाबासाहब ने मंदिर प्रवेश आन्दोलन की विफलता और उस दौरान सवर्ण हिन्दुओं के दुर्व्यवहार और ऐसी ही अन्य घटनाओं से क्रुद्ध होकर ‘रीडेल्स इन िहन्दुज्म’ यह पुस्तक लिखी जिसमें उन्होंने राम, कृष्ण और अन्य देवी-देवताओं के बारे में अपमानजनक बातें कही थीं। किन्तु वे जानते थे कि ये बातें लोगों के सामने आने जैसी नहीं हैं और इसलिए उन्होंने उसे प्रकाशित नहीं किया । (कोई बहुत बुरी बात होने के बाद कोई व्यक्ति भगवान को भला-बुरा कहता है; परन्तु यह उसकी तात्कालिक प्रतिक्रिया होती है, उसके शाश्वत विचार नहीं।) यह पुस्तक उन गिनी चुनी पुस्तकों में से एक है जो उन्होंने लिखी किन्तु अपने पूरे जीवनकाल में प्रकाशित नहीं होने दी । (उनकी मृत्यु के 52 वर्ष बाद 2008 में ‘आंबेडकर समग्र ‘ के अंतर्गत उसका प्रकाशन हुआ ।) यह बाद ध्यान देने योग्य है कि जिनमें अत्यंत कठोर, चुभती हुई और विवादास्पद बातें हैं ऐसी भी पुस्तकों का प्रकाशन उन्होंने किया था। जैसे— ‘Thoughts on Pakistan’ 1940/1945 में और ‘What Congress and Gandhi Have Done for Untouchables’ 1945 में । (क्रमश:)