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मरी बकरी का उपचार तंत्र

सुखस्य मूलं धर्मः। धर्मस्य मूलं अर्थः।
सुख का मूल धर्म है और धर्म का मूल अर्थ।

चाणक्य ने सुख का यह क्रम बताया है। वर्तमान अर्थशास्त्र में अर्थ को सुख का माध्यम बताते हैं। अर्थ से ही भोग संभव है और भोग से सुख ऐसा वर्तमान अर्थशास्त्रियों का मानना है। इसलिए उपभोग (consumption) ही महत्वपूर्ण हैl जितना उपभोग बढ़ेगा उतनी माँग बढ़ेगी। माँग की पूर्ति हेतु उत्पादन बढ़ेगा, उसी से रोज़गार उत्पन्न होगा, संपदा बढ़ेगी और अंततोगत्वा सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GDP) में वृद्धि होगी। यही विकास के भूमण्डलीकरण का सूत्र है।

चार्ल्स डार्विन द्वारा जीवशास्त्र के विकासक्रम में दिये ‘अस्तित्व के लिए संघर्ष’ (Struggle for existence) और ‘सुयोग्य की सुरक्षा’ (Survival of the fittest) के सिद्धांतों को हर्बर्ट स्पेंसर ने सामाजिक शास्त्रों में लागू किया। राजनीति और अर्थनीति गलाकाट प्रतियोगिता में लिप्त हो गई। ऐडम स्मिथ ने राष्ट्रों की संपदा को व्यक्तियों की संपदा का जोड़ बताकर व्यक्तिवाद को प्रेरित किया। हॉब्स, लॉकी और रूसो जैसे समाजशास्त्रियों ने सामाजिक अनुबंध (Social Contract) के सिद्धांत का प्रतिपादन कर संबंधों को भी व्यापार बना दिया। ऐन रैंड ने अपने उपन्यासों ‘फाउंटनहेड’ (Fountainhead) और ‘ऐट्लस श्रग्ड’ (Atlas Shrugged) में स्वार्थ का सिद्धांत देते हुए कहा कि प्रत्येक व्यक्ति मूलतः स्वार्थी होता है। इन सब वैचारिक आधारों पर पश्चिमी और विशेषकर अमेरिकी विकास का प्रतिमान खड़ा हुआ।

दूसरी ओर जर्मन लेखक मार्क्स और एंगेल्स की पुस्तक ‘दास कैपिटल’ में विश्व को शोषक और शोषित इन दो भागों में बाँटकर उनमें वर्ग संघर्ष के सिद्धांत पर आधारित क्रांति से सोवियत रशिया में सत्ताकेंद्रित प्रशासन तथा अर्थनीति का प्रतिमान विकसित हुआ। यह विचार केवल समाज को ही नहीं परिवार को भी नकारता है। इसमें मनुष्यों का भी प्राणियों के समान झुंड (commune) में रहना प्रतिपादित किया है। इसी से इसका नाम कम्युनिज्म पड़ा। 1917 में हुई रशियन बोल्शेविक क्रांति के बाद लेनिन ने इस विचार पर आधारित व्यवस्थाओं का निर्माण किया। स्टैलिन ने निर्ममता से सत्ता के भय को स्थापित किया।

चीन में यह और अधिक कठोरता से माओ ने लागू किया। 1950 के दशक में सांस्कृतिक शुद्धीकरण के नाम पर लाखों कलाकारों, लेखकों और विचारकों की हत्या की गई। इतालवी विचारक ग्रामची ने सांस्कृतिक मार्क्सवाद का प्रतिपादन किया। नाम के विपरीत संस्कृति के विनाश से ही क्रांति संभव है यह इस सिद्धांत का मूल तत्त्व है। माओ की नृशंस नीतियों के विपरीत सभी लोकतांत्रिक देशों में शैक्षिक संस्थानों और विद्वानों के माध्यम से संस्कृति की जड़े खोदने का काम इसी विचारधारा के द्वारा नव स्वतंत्र (neo liberal), जागृत (Woke) आदि भिन्न भिन्न नामों से आज भी हो रहा है। कथित पूँजीवादी देशों के विश्वविद्यालयों में भी इस विघटनकारी शक्ति का प्रभाव दिखाई देता है।

सोवियत रशिया USSR के 1989 में 15 से अधिक राज्यों में विभाजन के बाद पश्चिम ने घोषणा की कि अब विश्व एक ध्रुवीय हो गया है। फ़्रांसिस फुकुयामा ने पुस्तक लिखी ‘इतिहास का अंत और अंतिम मानव’ (End of History and the last man) जिसमें उन्होंने एकध्रुवीय विश्व में अमेरिकी प्रतिमान के लागू करने का सिद्धांत प्रतिपादित किया। 1995 में विश्व व्यापार संगठन (WTO) की स्थापना के बाद पूरे विश्व को अमेरिकी विकास प्रतिमान की ओर धकेला गया। बदलते परिदृश्य को देख लोकतंत्र विहीन माओवादी चीन भी व्यापारी देश बन गया। सारे विश्व में ही विकास के नाम पर विनाश का भीषण नर्तन प्रारंभ हुआ। GDP बढ़ाने की होड़ में सारे देश लग गये। प्रकृति, पर्यावरण, मनुष्य का मन, मानवी संबंध और इन सबको संजोती संस्कृति सब गौण हो गए। केवल तकनीक और लाभ की अंधी प्रतिस्पर्धा में सब जुट गये। किसी ने यह देखने का भी प्रयत्न नहीं किया कि जिनका अंधानुकरण हम कर रहे हैं उनकी स्वयं की स्थिति क्या है?

बात उस किसान के समान हो गई जिसकी बकरी बीमार पड़ी। गाँववालों ने बताया कि मुखिया की बकरी भी कुछ दिन पहले बीमार हो गई थी उनसे उपाय पूछो। मुखिया ने बताया कि उन्होंने अपनी बकरी को कैरोसिन पिलाया था। किसान ने भी ऐसा ही किया और उसकी बकरी मर गई। मुखिया से लड़ाई करने पर मुखिया ने कहा तुमने केवल यह पूछा कि उपचार क्या किया। यह नहीं पूछा कि परिणाम क्या हुआ। बकरी तो मेरी भी मरी थी। बकरी तो अमेरिका और चीन की भी मरी है, फिर भी पूरे विश्व पर वही विफल विकास का विनाशकारी प्रतिमान थोपा जा रहा है।

संस्कृति को बेच कर समृद्धि का प्रयास आज विश्व के गले आ गया है। परिवार समाप्त हो रहे हैं। पूरी अमेरिका में सर्वेक्षण करने के बाद डॉ डेविड ब्लैंकेनहॉर्न ने यह निष्कर्ष दिया कि प्रौढ़ अर्थात् 15 वर्ष से अधिक आयुवाले 46% अमेरिकावासी नहीं जानते कि उनके पिता कौन है। अर्थात् केवल माता के साथ एकल अभिभावक परिवार में रहते हैं। अनेक माताओं को उन बालकों के पिता का भान ही नहीं है। उन्होंने 1995 में प्रकाशित अपनी पुस्तक को नाम ही दे दिया — पिताविहीन अमेरिका (Fatherless America)। इसी परिवारहीनता के परिणामस्वरूप अपराध बढ़ रहे हैं।

गोलीबारी से सामूहिक हत्या (Mass Killing) की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। गत वर्ष 2022 CE में 647 गोलीबारी की घटनाओं में 22800 से अधिक हत्याएँ हुई। इस वर्ष 2023 CE के प्रथम 4 माह में ही 203 गोलीबारी की घटनाएँ घट चुकी हैं, अर्थात् प्रतिदिन लगभग दो घटनाएँ और 60 हत्याएँ। इन सामूहिक घटनाओं के साथ ही राह चलते लूटपाट, दुकानों की लूट, नशेडियों द्वारा अपराध आदि की संख्या भी जनसंख्या के अनुपात में पश्चिम के तथाकथित विकसित देशों में भारत से कई गुना अधिक है। महिलाओं के प्रति अपराधों की स्थिति तो और भी विकट है। प्रति एक लाख जनसंख्या पर बलात्कारों की संख्या अमेरिका में 28 से अधिक है जिसका अनुपात भारत में केवल 1.24 है (वैसे तो एक भी स्वीकार्य नहीं है)। संस्कृति, परिवार और समाज को दांव पर लगा कर समृद्धि बढ़ाने के प्रतिमान का यह परिणाम है।

इतना सब करने के बाद भी क्या वास्तव में समृद्धि प्राप्त हुई है? केवल सर्वाधिक GDP होने के कारण ही अमेरिका को ‘सर्वाधिक विकसित’ का तमग़ा लगा हुआ है किंतु वास्तव क्या है? अगस्त 2023 CE में अमेरिका का सकल उत्पाद 27 ख़रब डॉलर (27 Trillion $) है किंतु वर्तमान सकल राष्ट्रीय ऋण 32 खरब डॉलर (32 Trillion $) के ऊपर अर्थात् GDP के 132% है। कुल बकाया ऋण (Total unfunded debt) तो 101 खरब डॉलर (101 Trillion $) का है, GDP के चार गुना। किसी भी सामान्य व्यक्ति अथवा व्यापार-उद्योग को ऐसी ऋण स्थिति में दिवालिया कहा जाता है। अमेरिकी जनता की स्थिति भी कोई अधिक बेहतर नहीं हैं। फ़ेडरल बजट का एक तिहाई से अधिक सामाजिक सुरक्षा पर व्यय होता है। उसमें से 80% वरिष्ठ जनों के भोजन पर व्यय होता है। अमेरिका के 67% वरिष्ठ नागरिक स्वयं की आजीविका के लिए शासन द्वारा दिये भत्ते पर निर्भर होते हैं। अनाथ अथवा परित्यक्त बालकों तथा बेरोज़गार युवाओं का भार भी शासन पर ही है। बेघर भिकारियों की संख्या तीव्र गति से बढ़ रही है। उसी के साथ हिंसा और व्यसनाधीनता में भी वृद्धि हो रही है। सामरिक (Military) शक्ति और विश्वभर से एकत्रित प्रतिभा के बूते पर जमा बौद्धिक संपदा (IP) के आश्रय पर अमेरिका का भीतर से ध्वस्त प्रासाद जैसे तैसे खड़ा है।

अमेरिका की आर्थिक श्रेष्ठता के दिखावे को बनाए रखने का मूल्य सारा विश्व चुका रहा है। मुद्रा के रूप में डालर का प्रयोग, ज़बरदस्ती थोपे गए चिकित्सा, कृषि तथा अन्य अनावश्यक उत्पाद ये आर्थिक मूल्य तो हैं ही, साथ ही पर्यावरण के रूप में भी अमेरिकी ‘विकास’ का इंजन विश्व की लगभग 40% ऊर्जा और 60% प्राकृतिक संसाधनों के ईंधन पर चल रहा है। विश्व की 4% जनसंख्या 36% विद्युत (Electricity) तथा 42% कच्चे तेल (Crude Oil) का प्रयोग कर 60% प्रदूषण का विसर्जन करती है। कल्पना करें कि यही प्रतिमान सारे विश्व में लागू किया जाए तो पृथ्वी जैसे 25 ग्रहों के संसाधन भी कम पड़ेंगे।

विश्व को बाज़ार बना विकास के नाम पर व्यक्तिवाद, उपभोग, उत्शृंखलता का विष बेचने वाली विषकन्या स्वयं उसी विष से ग्रसित हो गई है। उसी बाज़ार का प्रयोग स्वयं के विस्तारवाद के लिए करनेवाले चीन की घरेलू स्थिति अमेरिका से भी अधिक दयनीय और विस्फोटक है। लोकतंत्र और मुक्त माध्यमों के अभाव में सही जानकारी बाहर आती ही नहीं, किंतु फिर भी पलायन कर दूसरे देशों में आश्रय पानेवाले चीनी नागरिकों द्वारा बतायी कहानियाँ अत्यंत हृदय विदारक हैं। दोनों विफल प्रतिमान एक दूसरे पर इतने निर्भर हो गये हैं कि पूर्ण विध्वंस को टालने में परस्पर सहयोग कर रहे हैं।

ब्राज़ील, दक्षिण अफ़्रीका जैसी उदीयमान आर्थिक शक्तियों के साथ ही रशिया भी पश्चिम को उसके ही खेल में उसके ही नियमों से मात देने का प्रयास कर रही है। भारत ने अपने समाज की स्वाभाविक उद्यमिता का आह्वान कर परिवार केंद्रित सुलभ नीतियों से सुप्त आंतरिक आर्थिक शक्ति का जागरण किया तो विश्व मंच पर अग्रणी स्थान प्राप्त किया है। खेल वही, नियम वही पर चमू (Team) के खिलाड़ियों का कलात्मक कौशल शुद्ध भारतीय है। ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा का उचित दोहन कर निर्मित विशुद्ध देशी अद्वितीय तकनीकी तंत्र, सहज, सुलभ किंतु अभूतपूर्व संख्या (Volume) में त्वरित अंतर्क्रिया (Transection) की पूर्ण सुरक्षित व्यवस्था UPI तथा अपने स्वदेशी वित्तीय स्रोतों को खोल कर किया अद्भुत अधोसंरचना (Infra-structure) विकास तथा इन सबके क्रियान्वयन में संतुलित आत्मनिर्भरता ही इस गतिमान प्रगति का रहस्य है।

विदेश नीति में दृष्टि परिवर्तन के द्वारा ली अंतरिक्ष उड़ान के समान ही आर्थिक क्षेत्र में भी अब आण्विक उड़ान (Quantum jump) की आवश्यकता है। जब अणु के भीतर कक्षा में चलायमान इलेक्ट्रॉन अपनी नकारात्मकता को त्याग ऊर्जा में वृद्धि करता है तब उसे कक्षा (Orbit) बदलनी पड़ती है। इसी को आण्विक उड़ान कहते है। अब भारत का भी कक्षा बदलने का समय आ गया है। प्रस्थापित प्रतिमानों के साथ विकास की क्षमता को सिद्ध करने के बाद अब खेल के नियम ही नहीं खेल को ही बदलने का समय आ गया है। अधूरी भौतिक विचारधाराओं पर आधारित अर्थतंत्र के स्थान पर भारत के परिपूर्ण जीवन दर्शन पर आधारित ‘सनातन विकास प्रतिमान’ (Eternal Development Model) विकसित करने की आवश्यकता है। सुख और अर्थ के मध्य जो धर्म का सेतु भारत में समाज जीवन में विद्यमान है उसे व्यवहार, व्यापार और नीति के साथ ही मूल्यांकन के परिमाणों में रूपांतरित करने का उचित समय आ गया है।

बकरी की केवल चिकित्सा ही नहीं पोषण, निवास व्यवस्था और भवितव्य को भी बदलना है ताकि किसान की बकरी केवल जीवित ही ना बचे सुदृढ़ हो और मुखिया को भी उपाय बता सकें।

साभार : उत्तरापथ

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