‘एक देश–एक चुनाव’ की चर्चा के साथ ही विपक्षी राजनीतिक दलों और उनके समर्थकों की बेचैनी बढ़ गई है। कांग्रेस के नेतृत्व में आकर ले रहे विपक्षी गठबंधन आईएनडीआईए की मुंबई बैठक से अधिक चर्चा ‘एक देश–एक चुनाव’ की हो रही है। कांग्रेस और विपक्षी गठबंधन के राजनेताओं की ओर से ही सबसे अधिक गैर–जरूरी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं। जबकि पूर्व में अनेक विपक्षी नेता ‘एक देश–एक चुनाव’ के विचार को आवश्यक बता चुके हैं। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव भी उनमें शामिल रही हैं। वहीं, छत्तीसगढ़ के प्रमुख कांग्रेसी नेता टीएस सिंहदेव ने कहा है कि वे व्यक्तिगत रूप से एक देश एक चुनाव का समर्थन करते हैं। उन्होंने उन लोगों को भी आईना दिखाया है जो इसे नया प्रोपेगेंडा बता रहे हैं। सिंहदेव ने कहा है कि यह कोई नया विचार नहीं है, यह एक पुराना विचार है। विपक्ष के एक–दो नेताओं को छोड़ दें तो अब लगभग सभी को इसमें दिक्कत दिखाई दे रही है। मुस्लिम राजनीति के चेहरे असदउद्दीन ओवैसी ने कहा है कि भारत में ‘एक देश–एक चुनाव’ संभव नहीं है। वह इस विचार ही को असंवैधानिक बता रहे हैं। जबकि भारत में स्वतंत्रता के बाद लंबे समय तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते रहे। स्वतंत्रता के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे, लेकिन 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग कर दी गईं। उसके बाद 1970 में लोकसभा भी भंग कर दी गई। इस वजह से एक देश-एक चुनाव की परंपरा टूट गई। आज संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देनेवाली कांग्रेस का सच भी इस परंपरा के टूटने के कारणों में छिपा है। कांग्रेस की केंद्र सरकारों ने जनता द्वारा निर्वाचित कई राज्य सरकारों को बर्खास्त किया, जिसके कारण उनके निर्वाचन के समय में बदल आया था। इतिहास को भुलाने वाली कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी आज कह रहे हैं कि ‘एक देश–एक चुनाव’ पर केंद्र सरकार की नीयत साफ नहीं है। इसकी अभी कोई जरूरत नहीं थी। कांग्रेस के नेताओं का तो यहां तक कहना है कि भाजपा उनके गठबंधन से डर गई है और लोगों का ध्यान भटकाने के लिए यह शिगूफा छोड़ा है। सच यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लंबे समय से इस विचार को देश के सामने रखते आ रहे हैं। नवंबर 2020 में 80वें अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा था एल– ”एक देश–एक चुनाव सिर्फ चर्चा का विषय नहीं बल्कि भारत की आवश्यकता है। हर कुछ महीने में कहीं न कहीं चुनाव हो रहे हैं। इससे विकास कार्यों पर प्रभाव पड़ता है”। इस बात की अनुभूति सभी करते हैं कि देश में एक नियमित अंतराल पर कहीं न कहीं चुनाव हो रहे होते हैं। ऐसे विकास कार्यों का प्रभावित होना स्वाभाविक ही है। नेता भी चुनावी प्रबंधन में फंसे रहते हैं। दूसरी बात, ऐसे में कोई भी अच्छी बात या निर्णय हो तो उसे राजनीतिक चश्मे से देख/दिखा कर संकीर्ण रूप दे दिया जाता है। जनता के कल्याण के लिए खर्च होनेवाला धन निर्वाचन की प्रक्रिया में ही खत्म हो जाता है। मानव संसाधन का भी समुचित उपयोग नहीं हो पाता। इसलिए भी समय की आवश्यकता है कि भारत अब ‘एक देश–एक चुनाव’ की दिशा में आगे बढ़े। विपक्षी दलों को जो कहना हो करते रहें, सरकार को चाहिए कि वह इस दिशा में आवश्यक कदम उठाए।
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